16 अप्रैल को दिल्ली के तीन अलग-अलग अस्पतालों में भटकने के बाद 30 वर्षीय चिन शरणार्थी की कोविड-19 से मृत्यु हो गई. मृतक की मां के अनुसार बेटे ने आखिरी अस्पताल में उसके साथ घटी घटना के बारे में बताया था कि “बाकि लोगों से मेरा चेहरा-मोहरा अलग है इसलिए उन्होंने मुझ पर ध्यान नहीं दिया. मुझे बहुत दुख हुआ. मैं सबसे ऊपर की मंजिल से कूदना चाहता हूं लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता.” सिसकते हुए उसकी मां ने मुझे बताया कि उसके अंतिम दिन बहुत कष्टदायक रहे हैं. “उसने मुझे बताया कि अस्पताल वाले उस पर चिल्लाते थे. पहले दिन उन्होंने 50000 रुपए मांगे, उसके अगले दिन 70000 और तीसरे दिन उन्होंने 80000 रुपए मांगे. वह हमें फोन किया करता था और कहता था कि उसने डॉक्टर की शक्ल तक नहीं देखी है. उसने कहा था, 'मैं बहुत भूखा हूं, मुझे हमेशा भूख लगती है.' जब हम उससे मिलने गए तो उन्होंने हमें उससे मिलने भी नहीं दिया." 30 वर्षीय के अलावा दिल्ली में रहने वाले चिन शरणार्थी के चार अन्य लोगों की भी दूसरी लहर में मौत हुई है. इन्हें सरकारी अस्पतालों में किसी तरह की देखभाल नहीं मिली और निजी अस्पताल में भर्ती होने के लिए आवश्यक दस्तावेज और पैसे नहीं थे.
कोविड-19 महामारी ने भारत के विभिन्न शरणार्थी समुदायों, खासकर दिल्ली के चिन समुदाय को उजाड़ कर रख दिया है, जो मिजोरम और मणिपुर की सीमा से लगे म्यांमार के चिन राज्य के मुख्य रूप से ईसाई लोगों का एक समूह है. भारत में टीका लगवाने के लिए कोविन ऐप पर पंजीकरण कराने के लिए आधार कार्ड, पासपोर्ट, पैन कार्ड या वोटर आईडी जैसे पहचान पत्रों की आवश्यकता है लेकिन चिन शरणार्थियों के पास ये न होने से वे अयोग्य हो जाते हैं. कई शरणार्थियों के पास पहचान बताने वाला एकमात्र दस्तावेज संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त द्वारा जारी शरणार्थी कार्ड है. जिसे आमतौर पर संयुक्त राष्ट्र कार्ड बोला जाता है. ऐसा लगता है कि यूएनएचसीआर और सरकार ने शरणार्थियों के टीकाकरण को सुनिश्चित करने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किया है. बिना दस्तावेज वाले समुदायों के लिए टीकाकरण की व्यवस्था करने वाला एकमात्र सरकारी प्रयास 6 मई को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित एक उद्देश्य कथन (एसओपी) है. इस एसओपी का उद्देश्य एक ऐसी प्रक्रिया तैयार करना था जिसके माध्यम से हाशिए पर रहने वाले समूह जिनके पास सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त पहचान पत्र नहीं है, टीकाकरण करा सकें. यूएनएचसीआर के प्रतिनिधियों ने मुझे बताया कि इस एसओपी को शरणार्थियों के लिए टीकाकरण पंजीकरण की समस्या को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है.
1980 के दशक के आखिर से ही चिन राज्य ने अपनी खुद की सरकार और म्यांमार में संघीय सरकार के गठन के लिए लंबा सशस्त्र संघर्ष किया है. संयुक्त राष्ट्र के तहत काम करने वाले चिन मानवाधिकार संगठन की रिपोर्ट के अनुसार म्यांमार की सेना ने चिन समुदाय का नस्लीय सफाया किया है. पिछले कुछ दशकों के दौरान कई चिन शरणार्थी भागकर भारत आए हैं. हाल ही में 1 फरवरी को म्यांमार में सैन्य तख्तापलट और 171 लोकतंत्र समर्थक चिन कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद कई अन्य चिन शरणार्थी पड़ोसी राज्य मिजोरम में भाग आए थे. 20 मार्च को मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को म्यांमार से प्रवासियों को रोकने वाले केंद्र सरकार के आदेशों की आलोचना करते हुए एक पत्र लिखा. उन्होंने कहा कि यह अस्वीकार्य है और सभी शरणार्थियों को मानवीय आधार पर शरण प्रदान की जानी चाहिए. इसके बावजूद 22 मार्च को गृह मंत्रालय ने चिन शरणार्थियों को देश में आने से करने से रोकने के लिए म्यांमार सीमा पर अर्धसैनिक बल असम राइफल्स की तैनाती कर दी. 26 मार्च को मणिपुर सरकार के गृह विभाग ने पांच उपायुक्तों को एक परिपत्र जारी कर उन्हें शरणार्थियों को भोजन और आश्रय प्रदान करने के लिए कोई भी शरणार्थी शिविर नहीं खोलने और रहने के लिए ठिकाना ढूंढने वालों को विनम्रता से वापस भेज देने के लिए कहा. बाद में यह परिपत्र वापस ले लिया गया.
भारत में रहने वाले चिन शरणार्थियों की संख्या का कोई स्पष्ट अनुमान नहीं है. 1980 के दशक के आखिर से कितने चिन शरणार्थी आए, इसका कोई अनुमान नहीं है. 2017 में म्यांमार की सेना और अलगाववादी समूहों के बीच जारी युद्ध के दौरान कथित तौर पर 1800 चिन शरणार्थी भागकर भारत आए थे. ह्यूमन राइट्स वॉच की 2009 की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि सिर्फ मिजोरम में 100000 से अधिक चिन शरणार्थी हैं. भारत में चिन रिफ्यूजी कमेटी के अध्यक्ष जेम्स आर. फनाई ने मुझे बताया कि उनके पास देश में रह रहे चिन शरणार्थियों की संख्या की जानकारी नहीं है. उन्होंने कहा कि यह आंकड़ा 2009 के बाद से निस्संदेह बढ़ गया होगा. उन्होंने कहा, "कभी-कभी 2002, 2003 के आसपास एक वर्ष में लगभग एक हजार तक की संख्या में लोग आए. तब से लोग समय-समय पर आ रहे हैं." दिल्ली स्थित यूएनएचसीआर कार्यालय ने 2 जून को मुझे बताया कि उनके पास भी भारत में चिन शरणार्थियों की संख्या का कोई अंदाजा नहीं है.
फनाई ने मुझे बताया कि टिकाकरण के लिए सरकार द्वारा स्थापित मौजूदा व्यवस्था शरणार्थियों को टीके की पहुंच से दूर कर देती है. उन्होंने बताया, "कोई भी टीका लगवाने में समर्थ नहीं है क्योंकि उसके लिए हमें ऑनलाइन पंजीकरण करने की जरूरत है और ऑनलाइन पंजीकरण के पोर्टल पर ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड, पासपोर्ट, पैन कार्ड या मतदाता पहचान पत्र जमा करने का विकल्प दिया जाता है. जिसमें हमें अपने पहचान पत्र का नंबर दर्ज करना होगा. लेकिन उसमें यूएन कार्ड के लिए कोई विकल्प नहीं है. इस बीच, भारत सरकार ने टीके के पंजीकरण के लिए 11 दस्तावेजों में से किसी एक का होना अनिवार्य कर दिया है लेकिन इनमें यूएनएचसीआर कार्ड शामिल नहीं है. जनवरी 2020 तक भारत में यूएनएचसीआर में पंजीकृत 210201 शरणार्थी हैं. फनाई ने मुझे बताया कि सीआरसी ने चिन शरणार्थियों तक टीकों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए हर संबंधित अधिकारी से संपर्क करने की कोशिश की. फनाई ने मुझे बताया, "टीकाकरण अभियान की शरुआत होने से पहले ही हम कई बार यूएनएचसीआर गए . हमने एक बार दिल्ली के मुख्यमंत्री को पत्र भेजा लेकिन हमें वहां से कोई जवाब नहीं मिला. दिल्ली के मुख्यमंत्री ने शरणार्थियों के संबंध में एक भी बयान नहीं दिया है.”
14 मई को चिन नेता चीते ने मुझे बताया कि यूएनएचसीआर ने उन्हें बताया था कि वह संयुक्त राष्ट्र कार्ड से पंजीकरण कर शरणार्थियों के टीकाकरण के संबंध में भारत सरकार के जवाब का इंतजार कर रहा है. चीते ने मुझे बताया, "संयुक्त राष्ट्र से हमें केवल यही जवाब मिलता है कि वे लोग कोई उपाय ढ़ूंढ रहे हैं.” यूएनएचसीआर ने कहा कि उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री और गृह मंत्री को पत्र लिखा है और उनके जवाब का इंतजार कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि उन्होंने उच्च अधिकारियों को भी पत्र लिखा है लेकिन कोई जवाब नहीं आया. 28 मई को यूएनएचसीआर के बाहरी संबंधों के सहायक अधिकारी किरी अत्री ने मुझे लिखा, “कोविड-19 महामारी को ध्यान में रखते हुए यूएनएचसीआर को बड़े पैमाने पर सबसे कमजोर शरणार्थी समुदायों के लिए खाद्य, गैर-खाद्य और जीवन रक्षक चिकित्सीय सहायता प्रदान करके उनकी मदद में बढ़ोतरी करनी पड़ी." उन्होंने ईमेल में आगे लिखा, "लेकिन जैसे-जैसे जरूरतें बढ़ती हैं हमारी सीमित निधी इन बढ़ती जरूरतों को पूरा करने की हमारी क्षमता के आड़े आ जाती है. यूएनएचसीआर बिना पहचान पत्र वाले लोगों को कोविड-19 टीकाकरण कराने की अनुमति देने वाले स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी किए गए एसओपी का स्वागत करता है. यह शरणार्थियों और अन्य शरण लेने वाले लोंगो सहित बाकि कमजोर समूहों के लिए भी टीकाकरण के अवसर प्रदान करेगा."
स्वास्थ्य मंत्रालय ने 6 मई को एसओपी जारी किया था. यूएनएचसीआर की उम्मीदों के उलट एसओपी में सीधे तौर पर शरणार्थियों को लेकर कुछ नहीं कहा गया है. एसओपी में उल्लेख किया गया कि टीकाकरण के लिए व्यक्ति को सात दस्तावेजों में से एक की आवश्यकता होगी लेकिन इनमें यूएन कार्ड शामिल नहीं किया गया. एसओपी में आगे उल्लेख किया, "मंत्रालय सभी लोगों के लिए कोविड-19 टीकाकरण की सुविधा की आवश्यकता से अवगत है, विशेष रूप से उन कमजोर समूहों के लिए जिनके पास सात निर्धारित पहचान पत्रों में से कोई भी नहीं है." इस समस्या को लेकर एसओपी में कहा गया है कि एक जिला टास्क फोर्स या वहां का मुख्य समन्वयक उन कमजोर समूहों की पहचान कर उनका टीकाकरण के लिए पंजीकरण करवा सकता है जिनके पास सरकारी द्वारा जारी पहचान पत्र नहीं है. इस दस्तावेज में यह उल्लेख नहीं किया गया है कि जिला टास्क फोर्स में किन लोगों को शामिल किया जाना होगा. मुख्य समन्वयक के तौर पर केवल जेल के कैदियों के लिए जेल अधिकारी, वृद्धाश्रम के लिए कार्यकारी अधिकारी या अधीक्षक का उल्लेख किया गया है. मेरे यह पूछने पर कि क्या जिला टास्क फोर्स के किसी सदस्य ने टीकाकरण को लेकर जानकारी के लिए सीआरसी से संपर्क किया है, तो फनाई ने मुझे बताया, “किसी ने भी टीकाकरण के लिए हमसे कोई जानकारी नहीं ली है."
एसओपी की कमजोर समूहों की सूची में शरणार्थियों का शामिल न होना, शरणार्थियों की अनदेखी को दर्शाता है. इस सूची में खानाबदोश (जिनमें विभिन्न धर्मों के साधु / संत शामिल हैं), जेल के कैदियों, मानसिक स्वास्थ्य संस्थानों के कैदियों, वृद्धाश्रमों में रहने वाले, भिखारी, पुनर्वास केंद्रों और शिविरों में रहने वाले लोग शामिल हैं." लेकिन शरणार्थियों का उल्लेख नहीं किया गया है. अत्री ने उस ईमेल का जवाब नहीं दिया जिसमें पूछा गया था कि क्या टीकाकरण के संबंध में गैर-प्रतिबद्ध एसओपी के अलावा यूएनएचसीआर का भारत सरकार के साथ कोई अन्य समझौता भी हुआ है. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विन कुमार चौबे और स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने शरणार्थियों के टीकाकरण को लेकर पूछे गए सवालों का जवाब नहीं दिया.
फनाई ने मुझे बताया कि यूएनएचसीआर ने टीकाकरण के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी. उन्होंने बताया, "यूएनएचसीआर ने हमें सूचना दी कि उनका साथी संगठन बॉस्को वैक्सीन के लिए काम करेगा. हालांकि, सरकारी पहचान पत्र के बिना टीकाकरण का आदेश काफी हद तक भारतीय नागरिकों के लिए ही है इसलिए हमें नहीं पता कि आगे क्या होगा. कई ऐसे भारतीय हैं जिनके पास पहचान पत्र नहीं है, जैसे मिजोरम में कुछ लोग धार्मिक कारणों से आधार कार्ड बनवाने से डरते हैं और जो इसे अनावश्यक समझते थे. यदि जांच व्यवस्था अच्छी नहीं भी हुई तो भी हम वहां नहीं जा सकते हैं और न ही वहां कोई अलग से पंजीकरण पोर्टल है. इस साल मार्च में आई यूएनएचसीआर की रिपोर्ट के अनुसार पूरे एशिया प्रशांत क्षेत्र में नेपाल ऐसा पहला देश है जिसने अपने राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान में शरणार्थियों के लिए भी टीकाकरण की व्यवस्था की है. अप्रैल में आई यूएनएचसीआर की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार सर्बिया और रवांडा सहित लगभग बीस देशों ने अपने टीकाकरण अभियान में शरणार्थियों को शामिल किया है. यहां तक की यूएनएचसीआर कार्ड महामारी के दौरान चिकित्सा सुविधाओं को प्राप्त करने में अक्सर शरणार्थियों के लिए मुश्किलें पैदा करने वाला साबित हुआ है. जुलाई 2020 में दिल्ली के रहने वाले एक विकास सलाहकार विजय राजकुमार और चिन रिफ्यूजी कमेटी ने संयुक्त रूप से "दिल्ली में म्यांमार शरणार्थी समुदाय पर कोविड-19 लॉकडाउन के प्रभाव का सटीक मूल्यांकन," शीर्षक से एक अध्ययन प्रकाशित किया. इसमें उल्लेख किया गया है, "स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में कोविड-19 के परीक्षण, उपचार के समय उत्पीड़न और देरी से शरणार्थी समुदाय को बेहद पीड़ा उठानी पड़ी है."
फनाई ने मुझे बताया कि अधिकांश अस्पतालों ने यूएन कार्ड स्वीकार नहीं किया. "कुछ अस्पताल तो यूएन कार्ड क्या है यही नहीं समझ पाते हैं. हमें कई लोगों से बात करनी पड़ती है और उन्हें समझाने के लिए विभिन्न अधिकारियों से बात करनी पड़ती है." फनाई ने कहा कि शरणार्थी आबादी में वायरस तेजी से फैल रहा है. उन्होंने मुझे बताया, ''अब तक पांच लोगों की मौत हो चुकी है. यह बताना मुश्किल है कि कितने लोग वायरस से संक्रमित हुए हैं क्योंकि कुछ लोग इसे बताते ही नहीं हैं. अभी तक हमारे पास आए 170 मामलों में से तीन की हालत गंभीर बनी हुई है.” फनाई ने बताया कि दिल्ली में 3000 से अधिक चिन शरणार्थी रह रहे हैं. मैंने वहां रह रहे वरिष्ठ नागरिकों सहित कुछ अन्य लोगों से भी बात की. कुछ को अपनी बात रखने में थोड़ी परेशानी हुई लेकिन सभी ने अंततः मुझे एक ही बात बताई कि वे डरे हुए हैं. अपनी पहचान जाहिर न करने वाले एक 45 वर्षीय चिन शरणार्थी ने मुझे बताया, "हम बहुत डरे हुए हैं क्योंकि दिल्ली में इतने सारे लोग मारे गए हैं. हमारे कुछ शरणार्थी साथी भी मारे गए हैं. हखा समुदाय के एक 32 वर्षीय व्यक्ति की कोविड-19 से मौत हो गई. हमारा जीवन अचानक रुक सा गया है."
दिल्ली में दस साल से भी अधिक समय से रहने वाले एक चिन शरणार्थी साविवेला ने बताया मुझे कि वह डरे हुए हैं कि अगर उनका पहले से ही खराब चल रहा स्वास्थ्य और बिगड़ गया तो इलाज कराने के लिए कहां जाएंगे. उन्होंने कहा, "मैं 64 साल का हूं और मैं घबराया हुआ हूं. मुझे संक्रमण होने का डर है क्योंकि मैं अब बूढ़ा हो गया हूं. यह बहुत खतरनाक है लेकिन हमें नहीं पता कि क्या करना है. मुझे उच्च रक्तचाप की भी समस्या है." उन्होंने मुझे बताया कि कुछ दिनों पहले वह जबरदस्त रूप से बीमार हो गए थे. "मुझे बहुत सर्दी-जुखाम था और मैं जांच कराने के लिए गया था. उन्होंने कहा कि यह उच्च रक्तचाप के कारण हुआ था. मैं पूरे रास्ते ऑटो रिक्शा में उल्टी कर रहा था. हमारे जैसे अस्वस्थ वरिष्ठ नागरिकों के लिए यह बहुत खतरनाक है और मैं इन दिनों मानसिक रूप से परेशान हूं."
अन्य चिन शरणार्थियों ने भी मुझे बताया कि जब बात उनके स्वास्थ्य की आती है तो उसे लेकर उन्हें कोई गारंटी नहीं है. दिल्ली में रहने वाले एक 79 वर्षिय शरणार्थी एस्थर केमी ने मुझे बताया, "मैं अकेला रहता हूं. हाल ही में मैं संक्रमण के कारण दो सप्ताह तक बीमार था और मेरे चर्च के कुछ लोग आगे आए और मुझे आईवी ड्रिप के लगभग छह बॉक्स दिए और मेरी देखभाल की. मुझे नहीं पता कि मेरी देखभाल पर आए खर्चे का भुगतान किसने किया. लेकिन अभी मैं बेहतर महसूस कर रहा हूं."
भारत सरकार का पहचान पत्र न होने के आभाव में शरणार्थियों की आजीविका को भी खतरा है. केमी ने कहा, "म्यांमार के लोग बहुत गरीब हैं और अब हमारे पास कोई नौकरी नहीं है. यह आसान नहीं है लेकिन जब तक मैं जीवित हूं मैं जीविका चला रहा हूं. मेरे पास कोई काम नहीं है लेकिन यूएनएचसीआर मुझे महीने का 3800 रुपए वजीफा देता है. यह मेरे किराए का भुगतान करने के लिए तो नहीं लेकिन मेरे खाने के लिए काफी है इसलिए मेरे किराए का भुगतान मेरे दोस्त और शुभचिंतक करते हैं. मैं लोगों की कृपा और सहानुभूति पर जीता हूं. लोग मुझे खाना देते हैं और भगवान मुझे जिंदा रखता हैं."
61 वर्षीय चिन शरणार्थी गिन खान डो की भी ऐसी ही कहानी थी. डो ने मुझे बताया, "हम लॉकडाउन के कारण संकट का सामना कर रहे हैं. मेरे दो बच्चे काम कर रहे थे लेकिन उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. एक होटल में और दूसरा फैक्ट्री में काम करता था. वे ही हमारा घर का खर्च उठाते हैं. ऊपर से हमें घर का किराया भी देना पड़ रहा है और अब अगर हम बीमार हो गए, तो हम खाना कैसे खरीदेंगे." डो ने बताया कि वह दस साल से दिल्ली में रह रहे हैं. उन्होंने कहा, "शरणार्थी समुदाय के युवा और बूढ़े दोनों ही भारतीय पहचान पत्र न होने के चलते संस्थानों और कंपनियों में नौकरी नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए हमें आधार कार्ड, पैन कार्ड या मतदाता पहचान पत्र की मांग जहां नहीं होती वहां नौकरी करनी पड़ती है. इन नौकरियां में अच्छी कमाई नहीं हो पाती." विजय राजकुमार और सीआरसी द्वारा प्रकाशित प्रभाव आकलन रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सरकारी दस्तावेजों की कमी ने चिन शरणार्थी समुदाय को दरिद्र बना दिया है. रिपोर्ट बताती है, "युवा लड़कों और लड़कियों को अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए 14-15 साल की उम्र में ही हेल्पर्स, वेटर और वेट्रेस के रूप में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. इस उम्र के अधिकांश शरणार्थी काम कर रहे हैं. वे उचित शिक्षा और अपने भविष्य को संवारने का मौके खो देते हैं. शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न भी आम बात है. वे कम से कम नवीं कक्षा तक अपनी शिक्षा जारी रख सकें इसके लिए वित्तीय सहित अन्य सहायता समय की अति आवश्यक प्राथमिकता है." रिपोर्ट में आगे कहा गया है, “युवा लड़कियां 14-15 साल की उम्र में काम करना शुरू कर देती हैं. उनमें से कई बैंक्वेट हॉल में काम कर रही हैं. लॉकडाउन से पहले वे वेट्रेस का काम करती थीं और उन्हें अपने परिवार का खर्च चलाने के लिए प्रति दिन 500-600 रुपए मिलते थे. उन्हें छोटी स्कर्ट और कम कपड़े पहनने पड़ते हैं और रोजाना यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.”
जोमी समुदाय के लिए काम करने वाली सीआरसी की शाखा के सचिव एम नौलक ने मुझे बताया, "जब हमारे युवा किसी अच्छी कंपनी में साक्षात्कार के लिए जाते हैं और अगर उनके पास कोई पहचान पत्र या आधार कार्ड नहीं होता, तो उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ता है. यहां तक कि कॉल सेंटरों में काम करने के लिए भी अगर उनके पास आधार कार्ड नहीं है तो उन्हें नौकरी पर नहीं रखा जाता है. एक दूसरी आवश्यकता बैंक खाते की होती है और बैंक खाता बनाने के लिए भी पैन कार्ड और आधार कार्ड की जरूरत पड़ती है. नतीजतन, हमारे अधिकांश युवा होटल और रेस्तरां और इन जैसी अन्य छोटी जगहों में नौकरियां करते हैं. एक अच्छी कंपनी में पक्की नौकरी पाना संभव नहीं है." नौलक ने मुझे बताया कि चूंकि अधिकांश शरणार्थी रेस्तरां और असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, इसलिए कोविड-19 महामारी पर अंकुश लगाने के लिए किए गए लॉकडाउन ने उनके जीवन को और कठिन बना दिया है. नौलक ने कहा कि सीआरसी को दिया जाने वाला दान भी इस साल कम हो गया है. उन्होंने मुझे बताया, "बीते वर्षों में हमें अन्य देशों से सहायता प्राप्त होती रही है लेकिन क्योंकि इस बार म्यांमार संकट में है, तो जो लोग मदद करना चाहते हैं वे म्यांमार को ही अपना दान दे रहे हैं इसलिए फिलहाल हमारी स्थिति पहले जैसी नहीं है."
फनाई ने मुझे बताया कि उन्हें न तो संयुक्त राष्ट्र और न ही भारत सरकार से मदद मिलने की कोई उम्मीद है. उन्होंने मुझे बताया, "अब तक हमारे पांच लोगों की कोविड-19 के कारण मृत्यु हो चुकी है.” आखिरी व्यक्ति अपने कमरे में मृत पाया गया था जिसे कोई चिकित्सीय देखभाल नहीं मिली. दिल्ली मिजो वेलफेयर ने हमारे कुछ सदस्यों को जिन्हें ऑक्सीजन की जरूरत थी, उन्हें ऑक्सीजन उपलब्ध कराने में हमारी मदद की है. हमें नहीं पता कि संयुक्त राष्ट्र किसके डर से हमारी मदद नहीं कर रहा है. हम सिर्फ मिजो वेलफेयर के भरोसे हैं.”