30 जनवरी 1948 को दिल्ली में नाथूराम गोडसे ने गांधी को गोली मार दी.
हत्या के चार दिन बाद 3 फरवरी को गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया. एक दिन बाद, आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. सरकार ने इस प्रतिबंध को न्यायसंगत ठहराते हुए कहा था- “संघ के सदस्यों द्वारा अवांछित और यहां तक कि खतरनाक गतिविधियां भी की गई हैं.” विवरण भयावह थे. नोटिस में कहा गया है, “यह पाया गया है कि देश के कई हिस्सों में आरएसएस के अलग-अलग सदस्यों ने आग लगने, चोरी, डकैती और हत्या से जुड़ी हिंसा के कृत्यों में भाग लिया हैं और अवैध हथियारों और गोला बारूद जमा किया हैं.” उन लोगों ने सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करने, पुलिस और सेना को अपने पक्ष में करने, हथियार इकट्ठा करने, आतंकवादी तरीकों का सहारा लेने जैसे कृत्यों के लिए पर्चे बांटे.”
सरकार की कार्रवाई से आरएसएस के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया लेकिन अगले एक साल में गोलवलकर ने आरएसएस को संकट से बाहर निकाल लिया. ऐसे करने के लिए गोलवलकर ने खुला और छिपा परिचालन किया, सार्वजनिक वक्तव्य और बहस और राजनीतिक लॉबिंग का सहारा लिया. उप प्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने इस संगठन के बचे रहने में मुख्य भूमिका निभाई.
आरंभ में, प्रतिबंध के एक दिन बाद, गोलवलकर ने सतर्क शब्दों में लगभग कूटनीतिक वक्तव्य जारी किया. “आरएसएस की नीति हमेशा से ही कानून का पालन करने की रही है और उसने कानून के दायरे में रह कर काम किया है. चूंकि सरकार ने आरएसएस को गैरकानूनी संस्था घोषित किया है इसलिए यह उचित होगा कि जब तक उस पर प्रतिबंध लगा रहता है उसे भंग कर दिया जाए साथ ही संघ सभी आरोपों को खंडन करता है.”
एंडरसन और दामले ने अपनी किताब में लिखा है, “प्रतिबंध और उपरोक्त निर्देशों के बावजूद बड़ी संख्या में स्वयंसेवक नियमित रूप से आपस में मिलते रहे.” किताब में लिखा है कि संगठन के हर स्तर के आरएसएस पदाधिकारियों की गिरफ्तारी के बावजूद “संगठन के युवा कार्यकताओं ने गोपनीय ढांचा तैयार किया और इसे बनाए रखा.”
आने वाले दिनों में यह स्पष्ट हो गया कि हत्या और हत्या का षडयंत्र हिंदू महासभा के एक हिस्से ने बनाया था लेकिन ऐसा वतावरण बनाने में जिसमें यह अपराध हुआ आरएसएस की मुख्य भूमिका थी. 18 जुलाई 1948 को हिंदू महासभा के पूर्व अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने गांधी की हत्या में आरएसएस और हिंदू महासभा की भूमिका पर पत्र में लिखा, “इन दो संगठनों की गतिविधियों के परिणाम स्वरूप, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के कारण, देश में ऐसा माहौल बना जिसमें यह त्रास्दी हो सकी. मेरे दिमाग में इस बात की कोई शंका नहीं है कि हिंदू महासभा का उग्र हिस्सा इस षडयंत्र में शामिल था. आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए स्पष्ट तौर पर खतरा है. हमारी रिपोर्टों के मुताबिक प्रतिबंध के बावजूद ये गतिविधियों बंद नहीं हुई हैं.” हिंसा भड़काने के लिए आरएसएस की भूमिका को मानते हुए भी सरकार गांधी हत्या पर उसके खिलाफ प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं जुटा पाई जिसके कारण अधिकांश कार्यकर्ता रिहा हो गए.
अगस्त में गोलवलकर को भी रिहा कर दिया गया लेकिन कुछ शर्तों के साथ. उन्हें सर्वाजनिक सभा न करने और कुछ भी प्रकाशित करने से पहले सरकार की अनुमति लेने को कहा गया. उसी वर्ष पटेल ने आरएसएस की गतिविधियों पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए गोलवलकर को पत्र लिखा. हिंदुओं को एक करना और उनकी मदद करना एक बात है और उनकी तकलीफों के लिए निर्दोश और बेबस आदमियों, औरतों और बच्चों से बदला लेना दूसरी बात है.” पटेल ने कांग्रेस पार्टी के प्रति आरएसएस के विरोध को “जहरीला जिसमें व्यक्तित्व की शिष्ठता और मर्यादा तक का ख्याल नहीं रखा जाता” बताते हुए निंदा की और तर्क दिया कि, “इसने लोगों के अंदर एक प्रकार की अशांति उत्पन्न की है.”
पटेल ने जोड़ा कि संघ के नेताओं के “भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे हैं. हिंदुओं को संगठित करने और उनमें उत्साह भरने के लिए जहर फैलाने की आवश्यकता नहीं है. उस जहर के अंतिम परिणाम के रूप में देश को गंधीजी के अमूल्य जीवन की आहुति देनी पड़ी.” पटेल ने जोर दिया कि सरकार और जनता अब आरएसएस का विरोध करते हैं. उन्होंने लिखा, “यह विरोध तब और बड़ हो गया जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी मौत का जश्न मनाया और मिठाईयां बांटी.” “ऐसी परिस्थितियों में सरकार के लिए यह जरूरी हो गया था कि वह आरएसएस पर प्रतिबंध लगाए.” और सरकार को यह आशा थी कि आरएसएस अपने तौर तरीकों को बदलेगा लेकिन छह महीने बाद की रिपोर्टों में यह दिखता है कि अपनी पुरानी गतिविधियों को नया जीवन देना का प्रयास जारी है.”
(कारवां के जुलाई 2017 अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी का अंश. पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें.)