मंदी से निपटने के लिए मोदी सरकार को नोटबंदी और जीएसटी के बारे में सही समझ बनानी होगी

नोटबंदी के बाद के तीन महीनों में तीन करोड़ रोजगार खत्म हो गए और छह महीनों में बाजार में श्रम शक्ति 45 करोड़ से घटकर 42 करोड़ रह गई. यही स्थिति आज भी बनी हुई है. धीरज सिंह/ब्लूमबर्ग/गैटी इमेजिस

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 20 सितंबर को चौंकाने वाली घोषणा करते हुए कॉरपोरेट कर को 20 फीसदी कम कर दिया. कर और उपकर को मिला कर कंपनियों को फिलहाल अपनी आय का 34.9 फीसदी करों के रूप में भुगतान करना पड़ता है. कर में की गई कटौती के बाद यह दर 25.17 फीसदी रह जाएगी. हाल के महीनों में यह बात एकदम साफ हो चुकी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ढलान पर है. सीतारमण की घोषणा इसी का एक उपाय है. सरकार को उम्मीद है कि कर में कटौती करने से कंपनियां अपने उपभोक्ताओं को सामान और सेवाओं में छूट देंगी जिससे अर्थतंत्र में तरक्की और पूंजी निवेश और रोजगार में बढ़ोतरी होगी. इस घोषणा ने बाजार पर अच्छा असर डाला और सेंसेक्स पांच साल में पहली बार एक ही दिन में 1800 अंक चढ़ गया.

इससे पहले सीतारमण मंदी को मानने को तैयार नहीं थीं. सितंबर की शुरुआत में जब भारत की विकास दर 8 फीसदी से गिरकर 5 फीसदी रह गई तो सीतारमण आर्थिक गिरावट के सवालों से बचती नजर आईं. दूसरी बार उन्होंने ऑटो उद्योग में जारी संकट के सवाल पर भी ऐसा ही किया. अगस्त में वाहनों की बिक्री 22 सालों में सबसे कम थी. घरेलू कारों की बिक्री पिछले साल अगस्त की तुलना में 41 फीसदी नीचे आ गई. इस माह व्यवसायिक वाहनों की बिक्री 38 फीसदी नीचे पहुंच गई और मोटरसाइकिल तथा स्कूटर जैसे दोपहिया वाहनों की बिक्री भी 22 फीसदी लुढ़क गई. अगस्त में भारत की सबसे बड़ी वाहन निर्माता कंपनी मारूति सुजुकी ने 3000 ठेका मजदूरों को काम से निकाल दिया. सितंबर में अशोक लेलैंड ने घोषणा की है कि वह 52 दिनों के लिए अपने संयंत्रों में उत्पादन रोक देगी. इन 52 दिनों का वेतन मजदूरों को नहीं मिलेगा.

सितंबर के मध्य में सीतारमण ने दावा किया था कि चौपहिया वाहनों की बिक्री इसलिए कम हो रही है क्योंकि वर्तमान पीढ़ी मासिक किस्तों में कार खरीदने की जगह कैब सेवाओं का इस्तेमाल करने में ज्यादा यकीन रखती है. उनकी यह टिप्पणी मांग के कम होने के असली कारणों पर पर्दा डालने जैसी थी. इसी आयु वर्ग के लोगों पर किया गया एक सर्वे, मंत्री सीतारमण के दावे से अलग तस्वीर पेश करता है. 2018 में मिंट और ब्रिटेन की बाजार पर शोध करने वाली कंपनी यूगोव ने 180 शहरों के 5000 लोगों का सर्वे किया. जिसमें पाया गया था कि सर्वे में भाग लेने वालों लोगों में से 80 फीसदी, अपना खुद का वाहन खरीदने की इच्छा रखते हैं.

आर्थिक मंदी को अस्वीकार करने की सरकार की कोशिश चिंताजनक तो है ही इससे भी बड़ी चिंता उसके समाधानों से पैदा हो रही है. सरकार मानकर चल रही है कि कॉरपोरेटों को करों में छूट देने से आर्थिक मंदी से निपटा जा सकता है और इस छूट से कॉरपोरेटों को मिलने वाला लाभ नीचे की ओर रिसकर लोगों तक पहुंचेगा. बीजेपी सरकार इसी लाइन पर सोच रही है लेकिन सच्चाई यह है कि ये एक गलत उपाय है. इस लाइन की एक कमजोरी तो यह है कि यह ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में घटी हुई मांग को नजरअंदाज करती है. साथ ही यह असंगठित क्षेत्र को भी ध्यान में नहीं रखती जो भारतीय अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा है. सरकार के पास उस समस्या की समझदारी का अभाव है जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था आज फंसी हुई है. इसके अलावा सरकार सिर्फ कॉरपोरेट को फायदा दे रही है लेकिन नोटबंदी और माल एवं सेवा कर (जीएसटी) के अर्थतंत्र पर पड़े असर को जानबूझकर अनदेखा कर रही है.

ऑटो सेक्टर अकेला नहीं है जिसे खरीदार नहीं मिल रहे. रियल एस्टेट और आवास शोध संस्था लाइसेंस फोरस के अनुसार, जुलाई 2019 में भारत के 30 शीर्ष शहरों में 10 लाख 28 हजार मकान ऐसे हैं जिनको खरीदार नहीं मिले. यह पिछले साल के मुकाबले सात फीसदी अधिक है. सितंबर के मध्य में इकोनॉमिक टाइम्स में खबर छपी थी कि बाजार शोध संस्था कैंटर कंसल्टेंसी के अनुसार, जनवरी और जून की अवधि में ऑनलाइन खरीदारी में 21 फीसदी की कमी आई है. इस अवधि में प्रत्येक खरीद औसतन 27 फीसदी घटी है, जबकि मोबाइल फोन और फैशन उत्पाद के खरीदारों की संख्या भी क्रमशः 17 और 16 फीसद कम हुई है.

जुलाई और सितंबर 2016 में एफएमसीजी डोमेन वाली कंपनियों का राजस्व 16.5 फीसदी था, जो इस साल जून में घटकर 10 फीसदी हो गया है. इसी अवधि में बिक्री 13.4 फीसदी से घटकर 6.2 फीसदी हो गई है. अप्रैल और जून की तिमाही में एफएमसीजी कंपनियों कि ग्रामीण बिक्री में मात्र 10.3 फीसदी का इजाफा हुआ है, जबकि 2018 की इसी अवधि में यह दर 20.3 फीसदी थी. ये आंकड़े ऐसी चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं जिसे सरकार शायद नहीं देख पा रही है.

लेखक और अर्थशास्त्री अरुण कुमार के अनुसार, ग्रामीण अर्थतंत्र में गिरावट का एक कारण नोटबंदी भी है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे कुमार, फिलहाल सोशल साइंसेज संस्थान में प्रोफेसर हैं. उन्होंने कहा, “नोटबंदी के तुरंत बाद गैर कृषि, असंगठित क्षेत्र में काम खत्म हो गया और बहुत सारे लोग शहरी इलाकों से वापस ग्रामीण इलाकों में लौट गए.” कुमार ने मनरेगा योजना के अंतर्गत काम की मांग में आई बढ़ोतरी की तरफ इशारा किया. वित्तीय वर्ष 2016 और 2019 के बीच नरेगा के लिए आवंटन 70 फीसदी बढ़ा है. 2016 में सरकार ने इस योजना के लिए 35776.75 करोड रुपए आवंटित किए थे जबकि इस साल के बजट के संशोधित अनुमानों के मुताबिक इस योजना का कुल आवंटन 61084 करोड़ रुपए है.

वह कहते हैं, “नरेगा की मांग से साबित होता है कि लोग शहरी क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्रों में इसलिए आए क्योंकि उन्हें शहरों में काम नहीं मिल रहा. इसी दौरान ग्रामीण इलाकों में नरेगा की बढ़ती मांग का संकट पैदा हुआ.”

भारतीय अर्थतंत्र पर नजर रखने वाली संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी की फरवरी 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, नोटबंदी के बाद के तीन महीनों में तीन करोड़ रोजगार खत्म हो गए और छह महीनों में बाजार में श्रम शक्ति 45 करोड़ से घटकर 42 करोड़ रह गई. यही स्थिति आज भी बनी हुई है. श्रम शक्ति उस झटके से अब तक उबर नहीं पाई है. आरबीआई की योजनाएं बाजार में श्रम की भागीदारी को पूर्व के स्तर पर लाने के लिए काफी नहीं हैं. इस रिपोर्ट में लिखा है कि नोटबंदी से लगा आर्थिक झटका, बाजार में पैसों को पुनः पहुंचाने से हल नहीं हो सकता.

कुमार ने बताया कि ज्यादातर नौकरियां असंगठित क्षेत्र से खत्म हुईं. असंगठित क्षेत्र में श्रम शक्ति का 94 प्रतिशत काम करता है और इस क्षेत्र में आई किसी भी गिरावट से खाद्यान्न की मांग पर असर पड़ता है जिसका कृषि पर नकारात्मक असर होता है. यदि एक बार खाद्यान्न की मांग कम हो जाती है तो कृषि मूल्य घट जाता है. किसानों को इसकी दोहरी मार पड़ती है. अनाज का मूल्य कम होता है और न्यूनतम समर्थन मूल्य की पहुंच सीमित होती है. कुमार ने बताया, “असंगठित क्षेत्र में नकारात्मक असर पड़ने से अनाज की मांग कम हुई जिससे किसान की आय कम हो गई और किसानों ने गैर कृषि उत्पाद कम खरीदा.”

प्रमुख अर्थशास्त्री और क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग्स में सार्वजनिक फाइनेंस के निदेशक सुनील सिन्हा भी कुमार के निष्कर्षों से सहमत हैं. उनका कहना है कि नोटबंदी और जीएसटी ने असंगठित अर्थतंत्र की कमर तोड़ दी जिसकी वजह से मंदी आई है. “हमारे अर्थतंत्र का 45 फीसद आउटपुट असंगठित और लघु एवं मझोले क्षेत्र से आता है.” सिन्हा ने कहा कि सब को पता है कि कृषि क्षेत्र संकट से गुजर रहा है.

नोटबंदी के बाद माना जा रहा था कि नकदी व्यापार पर इसकी अधिक मार पड़ेगी लेकिन जैसे ही बाजार में पैसा वापस लौटने लगेगा स्थितियां सामान्य हो जाएंगी. “हुआ यह कि नोटबंदी से नकद अर्थतंत्र पर असर पड़ा और वह भी ऐसा पड़ा कि यह आंशिक रूप से ही सामान्य हो पाया और कहीं-कहीं तो नहीं भी हुआ.”

नोटबंदी के बाद वाले कुछ महीनों में मांग और रोजगार की कमी का जीडीपी के आंकड़ों पर असर नहीं दिखाई दिया. सिन्हा के मुताबिक ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 2016 में सातवां वेतन आयोग लागू कर दिया गया जिससे कई उपभोक्ताओं की आमदनी बढ़ गई.

सिन्हा बताते हैं कि हालात इसलिए और बिगड़ गए क्योंकि इस दौरान सरकार ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया. उन्होंने बताया कि सरकार नोटबंदी की मार को जानबूझकर कर अस्वीकार करती रही. उल्टा सरकार जोर देती रही कि बड़े संरचनागत सुधार की जरूरत है और उसने नोटबंदी के बाद जीएसटी लागू कर दिया.

जीएसटी का लक्ष्य अनौपचारिक क्षेत्र के एक बहुत बड़े हिस्से को औपचारिक क्षेत्र में लाने का था. इसने असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ दिया. सिन्हा ने बताया, "अनौपचारिक क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा प्रतिस्पर्धी है और व्यापार करने में सक्षम है क्योंकि वह औपचारिक क्षेत्र का हिस्सा नहीं है. जैसे ही आप उसे औपचारिक क्षेत्र में लाएंगे, तो इसका मतलब यह होगा कि उसे उन बहुत सारे करों और दायित्वों को अदा करना पड़ेगा, जिनका बोझ अब तक उस पर नहीं था. एक बार जब उसे उन लागतों को अदा करना पड़ेगा, तो क्या वह प्रतिस्पर्धी बना रहेगा? सरकार ने उसे इससे उबारने के लिए क्या उपाय किया है?”

कुमार के अनुसार, जीएसटी की संरचना उन कंपनियों के पक्ष में झुकी हुई है जो पहले से ही संगठित अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं. जीएसटी ने अनिवार्य रूप से इनपुट टैक्स क्रेडिट की अवधारणा को प्रस्तुत किया. इसके तहत व्यवसाय तैयार आउटपुट की बिक्री पर देय कर से इनपुट या कच्चे माल की खरीद पर चुकाए गए कर में कटौती के लायक बन गए. शेष राशि का भुगतान सरकार को करना होता है. कंपनियां इस क्रेडिट को उन अन्य व्यवसायों को बेचने या पास करने के लिए पात्र हैं, जिनके साथ वे जुड़ती हैं. कुमार ने कहा, "इसकी मार असंगठित क्षेत्र पर पड़ी है क्योंकि उन्हें इनपुट क्रेडिट नहीं मिलता है. वे इनपुट क्रेडिट नहीं दे सकते. इसलिए भले ही असंगठित क्षेत्र को छूट है लेकिन संगठित क्षेत्र इनपुट क्रेडिट दे सकता है. मांग असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में स्थानांतरित हो रही है. यह एक संरचनात्मक समस्या है.”

उन्होंने कहा कि जीएसटी लागू होने के कारण संगठित क्षेत्र को भी नुकसान हुआ, "असंगठित क्षेत्र असामयिक रूप से प्रभावित हुआ है... जीएसटी के भीतर की संरचनात्मक समस्या को केवल दर को कम करने या कर में कटौती करने से नहीं निपटा जा सकता है."

कुमार ने कहा कि जीएसटी की मौजूदा संरचना बड़े पैमाने पर कर चोरी की भी इजाजत देती है. "जीएसटी की वर्तमान संरचना इतनी जटिल है कि झूठे इनपुट क्रेडिट का दावा करने के लिए कंपनियों के ऊपर कंपनियां बनी हुई हैं. यह इतना जटिल है कि धोखाधड़ी करना आसान है."

उन्होंने कहा कि जीएसटी वास्तव में संगठित क्षेत्र द्वारा की गई लॉबिंग का परिणाम था जिसे इससे लाभ हुआ है. उन्होंने कहा कि "संगठित क्षेत्र सरकार पर दबाव डालता है और सरकार रियायत देती है. हमारे सांसदों ने पूरी तरह से समझे बिना जीएसटी बिल पारित कर दिया. संगठित क्षेत्र द्वारा उसे मूर्ख बनाया गया है." उन्होंने कहा कि असंगठित क्षेत्र को "पूरी तरह से नजरंदाज किया गया है. दो साल तक तो सरकार यह मानने को भी राजी नहीं थी कि असंगठित क्षेत्र तकलीफ में है."

सिन्हा ने बताया कि जब सरकार ने यह स्वीकार किया कि जीएसटी और नोटबंदी के कारण कुछ बुरा प्रभाव पड़ा है, "तो बात यह होने लगी कि वे लगभग एक या दो तिमाही में ही इस पर काबू पा लेंगे." इस तरह के दिखावे ने सरकार को यह विश्लेषण किए बिना आगे बढ़ने दिया कि क्या इन दोनों नीतियों का अर्थव्यवस्था विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र पर कोई स्थायी प्रभाव पड़ेगा. "उस पूरे समय में जबकि प्रभाव महसूस किया जा रहा था, इसके अंतर्निहित प्रभाव को कभी समझा ही नहीं गया."

सिन्हा ने कहा कि इस साल मई में मोदी सरकार के दुबारा सत्ता में आने के बाद इसे और तेजी से आगे बढ़ाने की इजाजत दे दी गई. उन्होंने कहा कि सरकार ने चुनाव परिणाम को इस बात की पुष्टि के तौर पर लिया कि "पिछले पांच सालों में नीतिगत रूप से जो कुछ किया गया है वह सब सही है." जुलाई में पेश किए गए सरकार के पहले बजट में “यह भी स्वीकार नहीं किया कि अर्थव्यवस्था में कोई समस्या है. बजट को इस तरह पेश किया गया था जैसे कि स्थिति सामान्य हो.”

अगस्त के अंत में, सांख्यिकी मंत्रालय के तहत एक सरकारी निकाय, केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने आंकड़े जारी किए कि पिछले वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था में पांच प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो पिछले छह वर्षों में सबसे धीमी वृद्धि दर है. इसी दिन सरकार ने खुलासा किया कि वह दस सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का चार में विलय करने जा रही है.

सिन्हा ने इसे सीएसओ डेटा जारी होने के बाद "ध्यान भटकाने वाली" कार्रवाई बताया. उन्होंने कहा, "यह सबसे खराब तरह का उपाय है जिसके बारे में आप सोच सकते हैं कि जब अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है और बैंकों को ज्यादा कर्ज देने की जरूरत है, तो आप बैंकों के विलय में लग जाएं." ऋण संकट का सामना कर रहे बैंकों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि बैंक ऋण देने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि वे क्रेडिट-योग्य पार्टियों को खोजने में असमर्थ थे." उन्होंने कहा कि "इससे निपटने के लिए आप कुछ बैंकों का एकीकरण करते हैं? अगले छह महीने से एक साल तक, ये बैंक क्या करेंगे? उधार देने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, वे अपने विलय पर काम करने, कार्यबल को युक्तिसंगत बनाने में व्यस्त रहेंगे."

कुमार ने कहा कि सरकार गलत क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देने के लिए अपने सुधारों को लक्षित कर रही है. उन्होंने कहा कि मंदी से बचने के एक उपाय के बतौर सरकार को असंगठित क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, जिसमें विभिन्न उपायों के साथ अन्य विकल्प भी शामिल हैं जैसे, किसानों के लिए उच्च एमएसपी, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का सृजन और ग्रामीण बुनियादी ढांचे में सुधार. उन्होंने कहा कि "संगठित क्षेत्र को पैकेज देने के बजाय, असंगठित क्षेत्र को पैकेज देने की शुरूआत की जाए.” आपने बैंकों को पुनर्पूंजीकरण के लिए 70000 करोड़ रुपए दिए हैं लेकिन उनके पास अतिरिक्त पैसे हैं. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का कहना है कि हमारे पास एक लाख करोड़ रुपए का कर्ज देने लायक पैसा है लेकिन कर्ज की मांग नहीं है. मांग भला क्यों होगी? आरबीआई के आंकड़ों से पता चलता है कि क्षमता का उपयोग - किसी भी समय किसी राष्ट्र या इकाई द्वारा उपयोग की जाने वाली विनिर्माण और उत्पादन क्षमता - संगठित क्षेत्र में 75 प्रतिशत है. जब तक यह 85-90 प्रतिशत तक नहीं बढ़ेगी, तब तक निवेश फिर से चालू नहीं होगा. इसलिए, निजी क्षेत्र का निवेश तब तक दुबारा चालू नहीं होगा जब तक मांग दुबारा से पैदा नहीं होगी.

सिन्हा ने कहा कि "सरकार द्वारा मौजूदा मंदी को दूर करने के लिए किए गए अधिकांश नीतिगत नुस्खे या घोषणाएं यह नहीं बताते हैं कि उन्हें इस बात की पूरी समझ है कि समस्या कहां है." सरकार का मानना ​​है कि ऑटो क्षेत्र में और अन्य क्षेत्रों में बिक्री में आई गिरावट को उस क्षेत्र के लोगों पर ध्यान देकर हल किया जा सकता है. "जाहिर है कि इन लोगों के पास सरकार से कहने के लिए और कुछ नहीं है सिवाय इसके कि “जीएसटी कम कर दो, हमें कुछ रियायत दे दो” और इसी तरह की तमाम अन्य बातें. सरकार भी यही कर रही है. लेकिन ये सभी उपाय आपूर्ति पक्ष को ही नजर में रखकर किए जा रहे हैं. मांग पक्ष के लिए प्रयास कहां हैं?” सिन्हा के अनुसार, सरकार को उपभोक्ताओं के हाथों में अधिक पैसा पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए. “क्योंकि जिस दिन आप ऐसा करेंगे वह उत्साहित महसूस करेगा कि मेरी खर्च करने योग्य आय बढ़ गई है. मांग पक्ष को देखते हुए अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का अभी कोई प्रयास नहीं किया गया है. सिर्फ कार की कीमतें कम करने से काम चलने वाला नहीं है. “अभी, उपभोक्ता एक ऐसी स्थिति में है जहां वह जोखिम उठाना नहीं चाहता इसलिए यदि आप चाहते हैं कि वह अपना पर्स खोले, तो उसे भी अपने पर्स में अपनी संपत्ति दिखाई देनी चाहिए.”