कच्छ : जो हिंदू और मुसलमान को दो आंख से नहीं देखता

22 August, 2022

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कच्छ की संस्कृति के ऐसे निशान हमें हजार साल या उससे भी पीछे जाने पर मिलते हें, जो कमोबेश आज तक कायम हैं. अंजार के वोरा साहब बताते हैं कि उनके जन्म से भी काफी पहले (उनकी उम्र 72 साल है) कच्छ में मुहर्रम और होली के जुलूस निकलते थे, जो आज भी निकलते हैं. होता यह था कि रास्ते के बहाने कभी-कभार दोनों जुलूसों में भिड़ंत हो जाती थी. वह ऐसे एकाधिक उदाहरण देते हैं जब मुहर्रम का ताजिया गुजरने पर मंदिरों के कपाट बंद कर दिए जाते और होली की घेर निकलने पर मस्जिदों में नमाज बंद हो जाती. अंजार से भुज का संपर्क मार्ग तब वैसा नहीं था जैसा आज है. वह बताते हैं कि इन मौकों पर प्रजा को संभालने या अमन चैन बनाए रखने के लिए राजा तो खुद भौतिक रूप से उपस्थित हो नहीं सकता था. उस वक्त कच्छ की रानी गंगा बा अमन चैन के लिए व्रत रखती थीं. जब तक ताजिया और घेर शांतिपूर्ण तरीके से गुजर नहीं जाते और रानी तक खबर नहीं पहुंच जाती कि सब कुछ ठीक—ठाक से संपन्न हो गया है, तब तक वे अन्न नहीं ग्रहण करती थीं.

वह बताते हैं कि जब समूचे गुजरात में 2002 में दंगे हुए, उस वक्त कच्छ बिलकुल शांत रहा. यहां एक भी सांप्रदायिक घटना देखने-सुनने में नहीं आई. इसके पीछे विरासत और कच्छ की अलहदा संस्कृति का मामला तो है ही, लेकिन समीरा शेख अपने अध्ययन में इसका बेहतरीन विश्लेषण करते हुए मामले को गुजरात में वैष्णव पंथ के प्रसार तक ले जाती हैं और ब्राह्मणवाद के बरक्स एक क्षेत्र के बतौर गुजरात व कच्छ को देखने का प्रयास करती हैं.

‘'फोर्जिंग अ रीजन’’ नाम की अपनी पुस्तक में 12वीं से 15वीं सदी के बीच गुजरात के सुलतानों, व्यापारियों और तीर्थस्थलों पर समीरा शेख ने अहम शोध किया है. वह लिखती हैं कि आज के दौर में गुजरात का लेना-देना मोटे तौर से हिंदू धर्म की वैष्णव धारा से हो, लेकिन इस बात के साक्ष्य कम हैं कि पंद्रहवीं सदी से पहले यहां वैष्णव परंपराएं रही होंगी. पंद्रहवीं सदी में पहली बार द्वारका और कृष्ण से जुड़े स्थलों को क्षेत्रीय तीर्थ परिपथ के अंश के बतौर गिना जाने लगा वरना पश्चिमी भारत और सिंध में बाहर से आई इस्मायली मिशनरियों का शैव और जैन पंथों के साथ सह-अस्तित्व का संबंध रहा.

वह लिखती हैं, ‘'चौदहवीं सदी और पंद्रहवीं सदी के आरंभ में धार्मिक विविधता को दरकिनार करना तो दूर, सल्तनत के राज ने अभूतपूर्व तरीके से धार्मिक विकल्पों का एक समूचा संसार ही खोल दिया, एक तरीके से जिसे धर्म का बाजार कहा जा सकता है, जहां नवधनाढ्यों को पनाह मिली.'’ जगड़ू शाह दातार जैसे नवधनाढ्य अगर अपने वक्त में अपने पंथ की सीमाओं को लांघ कर मस्जिद और शैव मंदिर बनवा सके तो इसका श्रेय मोटे तौर से इस्मायली सल्तनत को जाता है. इसे समझने के लिए थोड़ा इतिहास में चलना होगा. गुजरात में कौमी एकता की जड़ों को समझने के लिए यह जरूरी है.

दरअसल, मुद्रा और मांडवी के तटों से होनेवाला समुद्री व्यापार अनिवार्यत: अफ्रीका और अरब तक फैला हुआ था. शिया मुसलमानों की सबसे बड़ी कौम रहे इस्मायली उत्तरी अफ्रीका से आए थे जहां मोहम्मद साहब की बेटी फातिमा के चलाए हुए फातिमद खिलाफत का राज होता था. इस्मायली इज्तिहाद यानी तर्क में विश्वास करते थे और सबसे बड़ी बात कि वे बहुलतावादी थे. इस्मायली पंथ में कई तरीके थे (सिलसिले) जिनमें सबसे बड़ा तरीका हुआ निजारी. निजारी आज भी शिया समुदाय में दूसरा सबसे बड़ा पंथ है जिसके इमाम आगा खान-4 माने जाते हैं.

मुंद्रा में पीर बुखारी की दरगाह से निकलते हुए मुगल गेट के रास्ते में आपको कुछेक दुकानें अब भी मिलेंगी जहां प्रिंस आगा खान की तस्वीर लगी होगी. ऐसी ही एक दुकान पर हम नींबू सोडा पीने के लिए रुके, तो हमारे आश्चर्य की सीमा न रही कि प्रिंस आगा खान की तस्वीर के बगल में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के एक लोकप्रिय आध्यात्मिक बाबा की भी तस्वीर लगी थी. हमने दुकान वाले सज्जन से इस बाबत पूछा तो उन्होंने बताया कि वह उक्त संत के समुदाय का हिस्सा हैं और जहां कहीं भी सत्संग होता है, वह वहां जाते हैं.

यह इत्तेफाक नहीं है. कच्छ को समझने के लिए हिंदू और मुसलमान के इस समन्वय को समझना जरूरी है. दरअसल, गैर-इस्मायली ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस्मायली शियाओं के प्रभाव को कहीं दर्ज ही नहीं किया गया है. इसका इकलौता प्रामाणिक स्रोत है दक्षिण एशिया में इस्मायलियों की प्रार्थनाएं, जिन्हें जिनान कहते हैं. इस्मायली पंथ का प्रभाव हालांकि ग्यारहवीं और बारहवीं सदी में गुजरात और खासकर कच्छ में इतना व्यापक रहा कि बिश्नोई, मेघवाल और अहीर जैसे पशुपालक समूहों ने इस समुदाय को अपना लिया. यहां तक कि राजपूतों और रबारियों के भी इस्मायली बनने की बात अलग-अलग दस्तावेजों में मिल जाती है. सतह पर जो आध्यात्मिक पंथ हिंदू धर्म का हिस्सा जान पड़ते हैं- मसलन रामदेव का पंथ, जाम्भा, आई माता, इत्यादि- ये सब भारतीय उपमहाद्वीप में पहले निजारी दावे का हिस्सा हुआ करते थे. आज भी इनके तीर्थस्थल, इनकी परंपराएं और इनकी प्रार्थनाएं आपको एक सी मिलेंगी. ये निजारी खुद को सतपंथी भी कहते हैं. निजारी दावे और सतपंथियों के बीच केवल एक फर्क है कि सतपंथी आगा खान को अपना इमाम नहीं मानते.

मसलन, शाहजहांपुर के जिस बाबा की तस्वीर हमने मुंद्रा के उस पानवाले के पास देखी, उसके बारे में अनुयायी कहते हैं कि बाबा ‘'भौतिक’’ स्वरूप में जीवित नहीं हैं, आध्यात्मिक स्वरूप में जीवित हैं. उस बाबा को मैं इसलिए पहचान सका क्योंकि मेरे अपने विस्तारित परिवार में भी इस बाबा के कुछ अनुयायी मौजूद हैं जिन्होंने बाकायदा दीक्षा ली हुई है. यह एक दिलचस्प बात है कि सतपंथी और निजारी हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. कोई 700 से 900 साल पहले बताया जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदुओं ने बड़े पैमाने पर इस्मायली पंथ को अपनाया, लेकिन यह धर्म परिवर्तन वैसा नहीं था जैसा बाद में सुन्नी मुसलमानों ने किया. यह व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन की विवशताओं और श्रद्धा से उपजा परिवर्तन रहा, जहां इस्मायली बनने के बाद व्यावहारिक जीवन में कुछ खास नहीं अपनाना होता था. बस हिजाब और साड़ी का ही फर्क है, बाकी सतपंथियों की दरगाहें आज भी एक हैं. यह एक ऐसा धार्मिक समन्वयवाद है जहां आपको ओम भी मिलेगा, स्वास्तिक भी मिलेगा, हिंदू नाम और पहचान भी मिलेगी लेकिन प्रार्थनाओं में फारसी और अरबी की दुआएं भी मिलेंगी.

मुंद्रा से मांडवी की ओर बढ़ते हुए हमें ऐसी ही एक दरगाह की तलाश थी जिसका नाम है मरद पीर. इब्राहिम भाई ने अंदाजे से एक गांव का नाम बताया था और वहां पूछने को कहा था. मुख्य मार्ग पर ही गांव की चौपाल थी. वहां हमने एकाध लोगों से पूछा तो उन्होंने भीतर के रास्ते पर जाने की सलाह दी. कोई आठ दस किलोमीटर तक चलने के बाद जंगल आ गया तो हम अंदाजे से पीछे लौटे और एक पेड़ के नीचे रुके जहां छोटे से जंगले के भीतर एक मूर्ति रखी हुई थी और सामने की ओर एक मंदिर था. पेड़ के नीचे रखी छोटी सी मूर्ति के बाहर लिखा था क्षेत्रपाल. बेशक यह परंपरा के हिसाब से किसी स्थानीय कुलदेवता की मूर्ति होगी, ऐसा हमें समझ आया. फिर हम मंदिर का दरवाजा खोलकर भीतर गए. वहां कोई नहीं था.

पीछे की ओर कुछ गायें बंधी थीं. वहां एक नौजवान बैठा हुआ था. हमने उसे आवाज दी. वह करीब आया तो हमने उससे पूछा कि क्या यही मरद पीर है. उसने हां में जवाब दिया. हमने पूछा यह मंदिर है कि दरगाह. उसने कहा मंदिर है. यह अजीब बात थी क्योंकि हमारे अनुभव की जमीन उत्तर भारत में पीर का सामान्य अर्थ मजार या दरगाह से ही लगाया जाता है. मंदिर के गर्भगृह में कुल पांच मूर्तियां थीं. पांचों अलग-अलग आकार के घोड़े थे और सबके ऊपर गेरुआ रंग पुता हुआ था. दाहिनी तरफ मोरपंखियों से बना एक पंखा रखा हुआ था. बाएं से चारों घोड़े खाली थे. केवल पांचवें यानी दाहिने से पहले घोड़े के ऊपर एक मानव सिर जैसा दिख रहा था. लड़के ने बताया कि एक घोड़े के ऊपर ही सिर होता है. वही मरद पीर का है.

मुंद्रा और मांडवी के बीच मरद पीर के कई मंदिर और दरगाहें हैं. कहानी तकरीबन सभी की एक जैसी है, जैसा हमें विक्रम ने रामदेव पीर के बारे में बताई थी या जो रण के मशहूर हाजी पीर के बारे में प्रसिद्ध है. ऐसी हर कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है और उसकी गायें होती हैं. गायों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फरियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है. पीर घोड़े पर बैठ कर जाता है और औरत की गायों को बचाने के चक्कर मे शहीद हो जाता है.

हाजी पीर की कहानी में औरत हिंदू है. रामदेव पीर की कहानी में औरत मुसलमान है. दोनों में ही गायों को लूटने वाले डकैत मुसलमान हैं. ऐसी कथाएं आपको समूचे कच्छ में सुनने को मिलेंगी. इनके पीछे जो समानता दिखती है, वह यहां की मूल पशुपालक कौम की जिंदगी की रोजमर्रा की दिक्कतों से जुड़ी है. एक पशुपालक की दैनिक जिंदगी में सबसे बुरी घटना यही हो सकती है कि उसके मवेशी लूट लिए जाएं. मवेशियों को वही बचा पाएगा जिसे उनका पता मालूम हो और जिसके पास लुटेरों का पीछा करने के लिए घोड़ा हो. हाजी पीर ने बीस साल की उम्र में एक हिंदू औरत की गाय को बचाने के चक्कर में अपनी जान दे दी. ऐसी शहादतों की यहां लंबी सूची है. इन्हीं शहादतों ने यहां साहसी और आध्यात्मिक व्यक्तियों को अपने दौर में पीर और औलिया बना दिया है. मंदिर में मिला नौजवान थोड़ा संकोच के साथ कहता है, ‘'वह क्या है आप जो पूछ रहे हो ये सब धर्म का मामला है. इस मामले में मेरे मुंह से थोड़ा भी कुछ गलत निकल गया तो....''

(27 जुलाई 2022 को प्रकाशित अभिषेक श्रीवास्तव की पुस्तक कच्छ कथा के अध्याय ‘मरद पीर, औरत पुजारी’ का एक अंश.)

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन का ‘सार्थक’ इम्प्रिंट
पृष्ठ संख्या: 264
मूल्य: 299 रुपए