20 दिसंबर को भारतीय नौसेना के पांच जहाजों ने एक नाव से संपर्क किया, जो भारतीय जलक्षेत्र में घुस आई थी. 4 दिसंबर को इसके दोनों इंजन खराब हो जाने के बाद से नाव कई हफ्तों से भटक रही थी. इसमें म्यांमार के लगभग 200 रोहिंग्या शरणार्थी थे जिनकी हालत गंभीर थी. इनमें से 26 की मौत हो गई थी. शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त द्वारा बार-बार शरण चाहने वालों की मदद करने के लिए भारतीय और इंडोनेशियाई अधिकारियों से अपील के बाद भारतीय नौसेना ने कथित तौर पर इससे संपर्क किया था. इसने शरणार्थियों को भोजन और पानी दिया लेकिन उन्हें इंडोनेशिया की ओर धकेल दिया जिसने आखिरकार नाव को उतरने की इजाजत दी.
अपने मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ म्यांमार का अमानवीय रवैया भारत सरकार को प्रभावित नहीं करता है, जो उन्हें केवल एक सुरक्षा खतरे के रूप में देखती है. सरकार अनुमानित 40000 रोहिंग्या शरणार्थियों को "अवैध अप्रवासी" कहती है और नियमित रूप से उन्हें निर्वासित करने की धमकी देती है. इनमें से 16000 शरणार्थी यूएनएचसीआर द्वारा पंजीकृत हैं.
कूटनीति की रचनात्मकता इस बात में है कि भारत अपने रणनीतिक हितों का त्याग किए बिना अपने संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा दे. म्यांमार में निंदनीय शासन के साथ संवाद करते हुए भी दिल्ली वहां की जुंटा को सही काम करने के लिए फटकार लगा सकती है. लेकिन म्यांमार में, अफगानिस्तान की तरह, भारत ने अपने हितों को कमतर करते हुए अपनी नैतिकता को जाया जाने दिया है.
ऐसा लगता है कि जब चिन विद्रोहियों को निशाना बनाने के लिए म्यांमार वायु सेना ने भारतीय क्षेत्र में बम गिराए तो मोदी सरकार ने उस पर सवाल भी नहीं उठाया क्योंकि वह जुंटा के साथ करीबी रिश्तों की इच्छा रखता है. सीमा से लगभग दस किलोमीटर दूर स्थित मिजोरम के चम्फाई जिले के एक कस्बे फारकॉन के स्थानीय लोगों ने दि गार्जियन को बताया कि 11 जनवरी को सीमा के भारतीय हिस्से में दो बम गिरे थे. अन्य चश्मदीदों और स्थानीय पुलिस प्रमुख ने इसकी पुष्टि की है.
सरकार ने दस दिन बाद जाकर इस घटना को स्वीकार किया लेकिन फिर भी इस बात पर कायम रही कि भारतीय हवाई क्षेत्र का कोई उल्लंघन नहीं हुआ. "हमने इस मामले को म्यांमार के समक्ष उठाया है", क्षेत्रीय संप्रभुता के इस घोर उल्लंघन पर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की सतही प्रतिक्रिया यही थी. जुंटा ने अब तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. पिछले जुलाई में थाई सरकार, जिसके म्यांमार के सशस्त्र बलों के साथ मधुर संबंध हैं, ने जुंटा सरकार को माफी मांगी के लिए तब मजबूर कर दिया जब म्यांमार का एक जेट विमान करेन राज्य में बमबारी करते हुए थाई हवाई क्षेत्र को पार कर गया था. जब भारत ने 2015 में म्यांमार के भीतर एक नागा विद्रोही शिविर पर "सर्जिकल स्ट्राइक" की थी, तो तत्कालीन आंग सान सू की सरकार ने भारतीय मीडिया से कहा था कि "म्यांमार क्षेत्र में किसी भी विदेशी सैन्य अभियान की इजाजत नहीं है" और भारत को याद दिलाया था कि "हर देश को दूसरे देश की संप्रभुता का सम्मान करना ही चाहिए."
मोदी सरकार का यह रवैया एक गर्वित, राष्ट्रवादी शासन के अपने शेखी बघारने वाले दावों के उलट जान पड़ता है जो किसी भी बाहरी संवेदनशीलता की परवाह नहीं करता है.
पिछले बीस सालों में नई दिल्ली में सुरक्षा और खुफिया शासन ने खुद को आश्वस्त किया है कि भारत के अस्थिर पूर्वोत्तर राज्यों को स्थिर रखने के लिए म्यांमार सेना का सहयोग जरूरी है. "डीप स्टेट" के इस गहरे अंतर्निहित आख्यान को एक कूटनीतिक तर्क द्वारा समर्थित किया गया है कि जुंटा पर किसी भी प्रकार का दबाव डालने से चीन को म्यांमार में खुली छूट मिल जाएगी. विश्लेषक इसे एक और ढंग से औचित्य प्रदान करते हैं, जो तर्क देते हैं कि भारत को उन सरकारों से रिश्ते बनाने की कोशिश करनी चाहिए जो अन्य देशों में सत्ता में हैं, जिनके साथ यह सहज है, फिर भले ही वह कितनी भी घिनौनी क्यों न हों.
इनमें से कोई भी तर्क गलत नहीं है लेकिन म्यांमार के साथ संबंधों को केवल नई दिल्ली की सुरक्षा और खुफिया हितों तक सीमित करके वे भारत के लिए एक बड़ा नुकसान करते हैं. भारत के उस देश में आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सामाजिक हित भी हैं जो 1935 तक ब्रिटिश भारत का हिस्सा था. एक स्थिर द्विपक्षीय संबंध के लिए देशों के बीच मजबूत लोगों से लोगों के बीच संबंध द्वारा रेखांकित किया जाना चाहिए. व्यापार और अर्थव्यवस्था एक स्वस्थ निर्भरता का आधार बनती है, जो भारत द्वारा शुरू की गई प्रमुख विकासात्मक परियोजनाओं द्वारा बनाई जाएगी. राजनीतिक रूप से अस्थिर म्यांमार में, जहां जातीय विद्रोही और लोकतंत्र समर्थक समूह भूमि के बड़े हिस्से पर नियंत्रण रखते हैं, इन परियोजनाओं को क्रियान्वित करना और बनाए रखना असंभव है.
भारत के हितों को मूल्यों से अलग नहीं किया जा सकता है. मूल्य मायने रखते हैं. अगर उन्होंने नहीं किया तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी "दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र" या भारत के "लोकतंत्र की जननी" होने के बारे में जोर-शोर से घोषणा नहीं कर रहे होंगे. इसके बजाए वह इस तथ्य के बारे में बात करेंगे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वह संगठन जिसके वह सदस्य हैं, नाजियों और फासीवादियों को अपना आदर्श मानता था. विदेशों में अपने भाषणों में मोहनदास करमचंद गांधी को उद्धृत करने के बजाए, वह आरएसएस के दूसरे प्रमुख एमएस गोलवलकर के बंच ऑफ थॉट्स के वाक्यों का हवाला दे रहे होंगे.
यह मूल्यों और रुचियों के बीच कोई विकल्प नहीं है. आखिरकार इस क्षेत्र में भारत के साझेदारों और दोस्तों- क्वाड के अन्य सदस्यों सहित, एक रणनीतिक सुरक्षा समूह जिसका वह हिस्सा है- ने जुंटा को फटकार लगाई है. म्यांमार के सेनापति भारत सरकार से वैधता चाहते हैं. वे यहां तक चाहते हैं कि लोकतांत्रिक चुनावों का कार्ड उनके घिनौने शासन के लिए आवरण प्रदान करे.
नई दिल्ली के पास जुंटा के मुकाबले ज्यादा ताकत है लेकिन यह एक काल्पनिक हेनरी किसिंजर की अति-यथार्थवाद कूटनीति की खोज में बर्बाद की जा रही है. कूटनीति को पैरानॉयड इंटेलिजेंस ऑपरेटिव्स की तरह संचालित किया जा रहा है, जो स्पष्ट रूप से दुष्ट चरित्रों के साथ संबंध स्थापित करना चाहती है. अति-यथार्थवादी नीति की बात करके भारत खुद को कम करके पेश कर रहा है. यह न केवल 2014 के बाद से म्यांमार बल्कि 2020 के बाद से अफगानिस्तान के लिए भी सच है.
अमेरिका के नेतृत्व वाली उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन की सेना के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद, भारत तालिबान शासन के साथ संबंध स्थापित करने के लिए तेजी से आगे आया है. काबुल में एक राजनयिक पद खोला और अफगानिस्तान के बैंकिंग क्षेत्र को चलाने के लिए तालिबान को तकनीकी सहायता प्रदान की गई. तालिबान के दो प्रमुख धड़ों के बीच की खाई को बढ़ाने और पाकिस्तान को निशाना बनाने की कोशिश में नई दिल्ली ने कंधार-आधारित कट्टरपंथी नेतृत्व का साथ देने का फैसला किया है, जो महिला विरोधी सबसे निर्मम फरमानों के लिए जिम्मेदार है. अफगानिस्तान के मुसलमानों को वीजा देने से इनकार करके, भारत ने अफगान लोगों के बीच सद्भाव खो दिया है, जो कुछ महीने पहले अकल्पनीय था.
म्यांमार में जुंटा के साथ मोदी सरकार तालिबान को वैधता प्रदान करती है और प्रतिगामी शासन से कोई मांग नहीं करती है. नई दिल्ली महिलाओं को शिक्षा और काम करने से रोकने के लिए तालिबान की निंदा भी नहीं कर सकी है. तालिबान अब मांग कर रहा है कि उसके एक सदस्य को भारत में अफगान दूतावास में दूत के रूप में तैनात किया जाए. भारत को अफगानिस्तान से होने वाले आतंकी हमलों से सुरक्षित रखने के लिए सुरक्षा और खुफिया जानकारी को छोड़कर हर एक मुद्दे पर तालिबान के अधीन रहने की आवश्यकता नहीं है.
मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी सबसे बड़ी सफलताओं में से एक के रूप में अपनी व्यक्तिगत कूटनीति का प्रदर्शन किया है. लेकिन कूटनीति केवल तमाशा या भाषणों या फोटो-ऑप्स, या यहां तक कि जी20 या शंघाई सहयोग संगठन की अध्यक्षता भर नहीं है. यह भारत के हितों को सुरक्षित रखने और संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखना भी है. जैसे-जैसे अस्थिरता का दायरा म्यांमार से बांग्लादेश और अफगानिस्तान से पाकिस्तान की ओर बढ़ेगा भारत के लिए चुनौती और भी बड़ी होती जाएगी.
इसलिए चुनाव स्पष्ट है. नई दिल्ली या तो एक खुफिया ऑपरेटिव की विश्वदृष्टि से कम करना जारी रख सकती है या यह पड़ोस में अपनी सही भूमिका को पुनः प्राप्त करने के लिए एक उदार, बहुलवादी और धर्मनिरपेक्ष भारत की राजनीतिक कल्पना को अमल में ला सकती है.