लाहौर में, जनवरी की वह बुझी-बुझी सी शाम थी. जहूर इलाही रोड पर बिजली गुल थी और फरीदा खानम आखिरकार नींद से जाग चुकी थीं.
हम सब परछाइयों के दरम्यान उनकी बैठक की फर्श पर बैठे थे: मैं गलीचे पर आसन जमाए बैठा था और वे मसनद पर, जो कभी उनके ऊंचे मुकाम की निशानी हुआ करती थी (वह “मल्लिका-ए-गजल” हैं, शास्त्रीय संगीत में अपनी पीढ़ी की आखिरी प्रशिक्षित गायिका), जिस पर पहले की तरह, उम्रदराजी के तकाजों के चलते, वे आज अपने दिलकश अंदाज में किसी मोहक जलपरी की मानिंद नहीं बैठ पातीं. मेरा लाहौर जाना, कलकत्ता में एक हफ्ते बाद होने वाले संगीत समारोह में उनकी शिरकत की तैयारी के सिलसिले में हुआ था. मैं उस उनींदी सुबह को मासूम से लगने वाले सवालों से उनके साथ गुफ्तुगू का सिलसिला शुरू करने की जुगत बिठा रहा था: जैसे, वे समारोह में कौन-कौन सी गजलें गाने की सोच रही हैं और उनकी क्रमबद्धता क्या होगी, इत्यादि?
“दो-तीन चीजां आगा साहेब दियां,” उन्होंने अपनी चटकी हुई आवाज में पंजाबी में फरमाया. वे आजादी से पूर्व के शायर और नाटककार, आगा हशर कश्मीरी की तरफ इशारा कर रहीं थीं.
“दाग भी,” मैंने कहा, “ओथ्थे सब दाग दे दीवाने ने,” – दाग देहलवी, उन्नीसवीं शताब्दी के मशहूर शायर थे.
उनके मुंह से अनायास ही एक “आह!” निकली और उन्होंने सर हिलाकर मुझे घूरते हुए मुझसे इत्तेफाक जाहिर किया, जैसे मैंने कलकत्तावासियों के पुराने खोट को पहचान लिया हो.
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