लाहौर में, जनवरी की वह बुझी-बुझी सी शाम थी. जहूर इलाही रोड पर बिजली गुल थी और फरीदा खानम आखिरकार नींद से जाग चुकी थीं.
हम सब परछाइयों के दरम्यान उनकी बैठक की फर्श पर बैठे थे: मैं गलीचे पर आसन जमाए बैठा था और वे मसनद पर, जो कभी उनके ऊंचे मुकाम की निशानी हुआ करती थी (वह “मल्लिका-ए-गजल” हैं, शास्त्रीय संगीत में अपनी पीढ़ी की आखिरी प्रशिक्षित गायिका), जिस पर पहले की तरह, उम्रदराजी के तकाजों के चलते, वे आज अपने दिलकश अंदाज में किसी मोहक जलपरी की मानिंद नहीं बैठ पातीं. मेरा लाहौर जाना, कलकत्ता में एक हफ्ते बाद होने वाले संगीत समारोह में उनकी शिरकत की तैयारी के सिलसिले में हुआ था. मैं उस उनींदी सुबह को मासूम से लगने वाले सवालों से उनके साथ गुफ्तुगू का सिलसिला शुरू करने की जुगत बिठा रहा था: जैसे, वे समारोह में कौन-कौन सी गजलें गाने की सोच रही हैं और उनकी क्रमबद्धता क्या होगी, इत्यादि?
“दो-तीन चीजां आगा साहेब दियां,” उन्होंने अपनी चटकी हुई आवाज में पंजाबी में फरमाया. वे आजादी से पूर्व के शायर और नाटककार, आगा हशर कश्मीरी की तरफ इशारा कर रहीं थीं.
“दाग भी,” मैंने कहा, “ओथ्थे सब दाग दे दीवाने ने,” – दाग देहलवी, उन्नीसवीं शताब्दी के मशहूर शायर थे.
उनके मुंह से अनायास ही एक “आह!” निकली और उन्होंने सर हिलाकर मुझे घूरते हुए मुझसे इत्तेफाक जाहिर किया, जैसे मैंने कलकत्तावासियों के पुराने खोट को पहचान लिया हो.
“ते दो-तीन चीजें फैज साहब दियां भी गा देणा.” इस पर उन्होंने कहा, “बस्स,” जिसका आशय “बहुत हो गया” के अंदाज में बात को खत्म करना नहीं था, बल्कि उसमें टालने का भाव जैसा कुछ था, जैसे कह रही हों, “काश” या कि “तब की तब देखेंगे, इंतजार करो.”
मुझे मालूम था कि कलकत्ता की आगामी यात्रा को लेकर वे नर्वस महसूस कर रही थीं:– फासला, हवाई जहाजों की अदला-बदली, मौसिकी को लेकर बंगालियों का उच्च स्तर, इत्यादि. उनका ध्यान बंटाने के लिए मैंने अपने हारमोनियम का ढक्कन खोल लिया और राग भैरवी के सा-गा-पा की धुन छेड़ दी. मैं ‘बाजूबंद खुल खुल जाए’ गुनगुनाने लगा.
“फरीदा जी, ए किस्त्रां है?” मैंने जानबूझकर उन्हें उकसाते हुए पूछा.
“गाओ ना,” उन्होंने कहा. मैंने अलाप लेना शुरू किया.
“आssssss...” उनका मुंह गुफा और हथेली फकीर की मानिंद खुल गई. “सुभानअल्लाह,” मेरे मुंह से निकला और मैंने उंगलियों से धौंकनी में हवा भरना शुरू कर दिया.
उनकी सुरीली आवाज से कमरा गूंज उठा: उन्होंने दीर्घ स्वर लगाया, फिर उस पर पसर गईं और स्वरों की कलाबाजियां खाने लगीं.
“वाह वाह, फरीदा जी! मैं कहवां कमाल हो जायेगा! कलकत्ता वाले दीवाने हो जाएंगे,” मैंने कहा.
उन्होंने दूर शून्य में तकते हुए मुंह बनाते हुए कहा, “हां” जिसका मतलब, एक साथ विवेचना, उदासीनता और उपहास, कुछ भी हो सकता था.
होने वाला यह संगीत समारोह, ‘कलकत्ता साहित्यिक सम्मलेन’ का आयोजन करने वाली, मालविका बनर्जी के दिमाग की उपज थी. जब मैं पिछले साल सम्मलेन में बनर्जी से मिला तो मैंने उन्हें बताया, “माला,” मैं फरीदा खानम पर एक वृतचित्र बनाने जा रहा हूं.
हमारी बातचीत तब हुई जब हम विक्टोरिया मेमोरियल के पास जर्जर होती इमारतों के पास से एक रात कार में गुजर रहे थे. मैंने उन्हें खानम के कलकत्ता कनेक्शन के बारे में बताया. खानम की आपा मुख्तार बेगम, एक पंजाबी गाने वाली हुआ करतीं थीं, जो एक पारसी की नाटक कंपनी में काम करने 1920 में कलकत्ता आईं. कुछ ही सालों में, वे कलकत्ता के मंच पर एक सितारा बन कर उभरने लगीं. विज्ञापन के पर्चों में, उन्हें बुलबुल-ए-पंजाब के नाम से बुलाया जाने लगा. वे रिपन स्ट्रीट पर एक घर में रहने लगीं थीं. खानम की पैदाईश भी 1930 के दशक में, अब बदहाल हो चुके इलाके में, यहीं कहीं हुई थी.
माला के जेहन में बात अटक गई: उन्होंने पूछा क्या मैं अगले वर्ष के साहित्यिक समारोह में खानम को ला सकता हूं. उन्होने फिर बड़े अदब से फुसफुसाकर पूछा, “क्या वे अभी भी गाती हैं?”
मैंने कहा, “बेशक”. इसमें मेरा भी स्वार्थ छुपा था. मैं खानम को कलकत्ता इसलिए भी बुलाना चाहता था क्योंकि मुझे अपनी फिल्म के सिलसिले में उन्हें उन गलियों में फिल्माना था, जहां उनका बचपन बीता था.
“ठीक है,” माला ने कहा, “मैं कुछ करती हूं.”
एक साल बाद, मैं खानम और उनकी दो बेटियों, उनकी पन्द्रह-साला पोती और फिल्म के आर्केविस्ट के साथ, कलकत्ता रवाना हुई. लेकिन उससे पहले एक संकट पेश आ गया. कलकत्ता रवाना होने से कुछ हफ्ते पहले मुझे पता लगा कि खानम के पासपोर्ट की अवधि समाप्त हो गई है. लिहाजा किसी तरह जुगाड़ लगाकर, एक हफ्ते के भीतर उनका पासपोर्ट बनवाया गया. उसके बाद वीसा की मुसीबत आन पड़ी. मुझे लाहौर में भारतीय उच्चायुक्त से वीसा वक्त पर देने के लिए मिलना पड़ा और वह मिल भी गया. खानम के पुरजोर ऐतराज के बाद भी पाकिस्तान से ही उनके लिए एक व्हीलचेयर का इन्तेजाम किया गया. हमें लगता था कि वे बाघा बॉर्डर और भारत के हवाई अड्डों पर पैदल चलना मैनेज नहीं कर पाएंगीं.
जिस दिन उनका पासपोर्ट आया, उन्होंने पूरे यकीन से कहा, “कारलांगी.”
उनकी ऐंडोक्रायिनोलॉजिस्ट बेटी, फेहमिदा ने साफ इंकार कर दिया: “अम्मी, आप हरगिज नहीं कर सकतीं.”
फहमीदा ने मुझे बताया कि साइटिका नर्व के कारण उनके बाएं पैर में सुन्नपन है. वे सिर्फ तभी सफर कर सकती हैं जब उन्हें चलना न पड़े. “लेकिन वे जाएंंगी, उन्हें जाना चाहिए. डॉक्टर ने कहा है कि उन्हें चलते-फिरते रहना चाहिए. हमें उन्हें घर पर बिठा कर नहीं रखना चाहिए,” फहमीदा ने कहा. पिछले तीन सालों से खानम इस परेशानी का सामना कर रहीं थीं, जिस दौरान उन्हें अस्पतालों और फिजियोथेरेपिस्ट के चक्कर लगाने पड़े तथा ढेरों दवाइयां खानी पड़ीं (खानम ने खुद मुझे अपनी इन शैतानी सनसनियों, अपने पैर के सुन्न हो जाने, अजीबोगरीब दवाइयों और सर चकराने के बारे में बताया था). लेकिन मैंने महसूस किया कि इस बीमारी के साथ उन्हें एक किस्म की निराशा ने भी घेर लिया था, जो जिस्म के नश्वर होने के बोध से उपजती है, विषाद से भरपूर. खानम की उस सबसे मशहूर नग्मे आज जाने की जिद्द न करो के बिलकुल उलट:
वक्त की कैद में जिन्दगी है मगर
चंद घड़ियां यही हैं जो आजाद हैं
अमृतसर से रुखसत होने के कुछ दिन पहले ऐन्वई गप्पे हांकने के दौरा उन्होंने मुझसे बड़े ही अनासक्त भाव से कहा, “मैं कारलांगी?” मैंने भी बिंदास अंदाज में कहा: “आराम नाल, फरीदा जी. त्वानू पता वी नहीं चल्ना.”
आधिकांश लोगों की तरह, मैं भी फरीदा खानम की तरफ फय्याज हाशमी की, आज जाने की जिद्द न करो को सुनकर मुखातिब हुआ था. गैरमामूली तरीके से इतना भर कह देने- कि इसका फलां-फलां द्वारा इसकी “अदायगी” की गई; और बेहद औपचारिक रूप से गीत के मजमून के साथ, शायर का नाम जोड़ देना (मानो वे कोई महान शायर हों, या, उनका यह कोई महान कलाम हो) – में वह मजा नहीं है. सच तो यह है कि आज जाने की जिद्द न करो की शुरुआत एक बेहद मामूली गीत के रूप में हुई थी, जिसे कई लोगों ने अपनी नासमझी में इसे गजल तक कह डाला. वास्तव में, इसे मूल रूप से 1974 में बनी पाकिस्तानी फिल्म बादल और बिजली के लिए लिखा गया था. हबीब वली मोहम्मद नामक कराची के एक मेमन ने इसे सबसे पहले गाया. उनके द्वारा गाया गया यह गीत अपनी तासीर में बहुत रूखा तथा कामुकता और उतार-चढ़ावों से भरा था. यह जैसे किसी जवां मर्द की कामुकता की तस्कीं करता हुआ महसूस होता था.
इसके बरक्स, खानम की 1980 के दशक की अदायगी ने इसे परतों से सराबोर सम्मोहन प्रदान किया, जिसमे फुसलाने और तसल्ली देने के साथ-साथ, आनंद के चर्मौउत्कर्ष में मस्तियां भरी डुबकियां लगाने तथा अठखेलियां करने का भाव भी भरपूर है. इसमें परमानंद, कलह, प्रेम और सेक्स का भाव भी शामिल है.
बेशक, खानम इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगी. वे अपने संगीत के मुत्तालिक बहुत हल्के में बात करती हैं: गीत बहुत “तेज” या “धीमा” था; गीत बहुत हल्का था और उन्होंने तो इसमें बस “सोज” का पुट डाल दिया. मूल गीत, फिल्मी अंदाज में गाया गया था, और उसे अपना बनाने के लिए उन्होंने इसे “थोड़ा बदले हुए अंदाज में गा दिया.”
इस अदायगी की औपचारिक विवेचना इसके द्वारा अख्तियार अंदाज के रास्ते पर रौशनी डालती है. गीत को, जिसे ‘यमन कल्याण’ के नाम से भी जाना जाता है, राग में गाया गया है, जो एक झुटपुटे का राग है और रोमांटिक मूड बनाने के लिए गाया या बजाया जाता है. प्रभाव के लिए खानम राग पर निर्भर करती हैं: उनके द्वारा गाया गया यूं ही पहलू में बैठे रहो इसलिए भी इतना कशिश से ओत-प्रोत है क्योंकि वे स्वर को यथाशब्द पकड़ कर बैठ जाती हैं. जैसे इन पक्तियों को गाने में राग के गांधार या “गा” स्वर, जो इसका वादी, या, प्रबल सुर बन जाता है. फिर इसमें थाप या ‘बीट’ का विस्पंदन चक्र है; यहां 14 तालों वाली दीपचंदी ताल. खानम अपने जोखिम भरे “आड़े अंदाज” में गाने के लिए ‘कुख्यात’ हैं, यानी वे ताल से थोड़ा हटकर गाती हैं, जिसमें उनकी आवाज और तबले की थाप के बीच अतिरिक्त कशिश बनी रहती है, जिसका कभी-कभी चक्र के ‘सम’ पर मिलान होता है. उनका आज जाने की जिद्द न करो, इसी अर्धमुक्त शैली में गाया गया है. जब वे गीत के बोलों को अपने खास अंदाज में गाती हैं तो किसी मरीचिका का पीछा करने जैसा मायाजाल बुने जाने का एहसास होता है. मानो ताल की जालसाजी से बचने के लिए एक मुसलसल जद्दोजहद चल रही हो. (आवाज में मुसलसल अस्थिर नशीले एहसास में रहने वाली तकनीक उनके उस्ताद आशिक अली खान की खासियत थी, जो खानम की गजल गायिकी में अपने मधुरतम अंदाज में मिलती है, जहां गायिकी अपनी समझी-बूझी, फैलाने और समेटने की तकनीक का इस्तेमाल कर विलंबित काफिए से गायिकी सुनने के लुत्फ को कई गुना बढ़ा देता है).
लेकिन इन ऊपरी पंक्तियों को दोहराने के बाद क्या? उस जरा सी विदीर्ण बुनावट को क्या कहें, स्वर में उस कर्कशता को क्या नाम दें, आवाज की दीवानगी के रस को क्या कहें? और क्या करें खानम की उस कातिल “हाय” के साथ, जो हाय मर जाएंगे वाली पंक्ति में वे कह जाती हैं? बॉलीवुड की पार्श्व गायिका रेखा भारद्वाज को मैंने एक बार कहते हुए सुना, “यह सारा गाना ही ‘हाय’ पे है.” मुझे लगता है वे सही कहती हैं. खानम ने “हाय” शब्द का जिस तरह कायांतरण किया है, जहां वे इसे इसके मूल झटकेदार विस्मयबोधक प्रभाव से निकालकर, एक चकरा देने वाले ऊंचे मकाम तक ले जाती हैं और वहीं तैरने लगती हैं. इस तरह अपने अंदाज में वे गीत को एक मुख्तसर मौजू बख्शती हैं.
इस तरह की घटना को कैसे समझाया जा सकता है? हारमोनियम पर तो हरगिज नहीं. एक बार मैंने खानम के सामने अपना बाजा रख दिया और उनसे मिन्नत की कि मुझे इस “हाय” के चढ़ाव को स्वर-ब-स्वर बजाकर समझाएं. लेकिन वे इसे सिर्फ अपनी आवाज से ही निकाल पातीं थीं. अपने समूचे जिस्म में निहायत ही रहस्यमयी लोचें लाकर वे अपनी आंखें बंद कर लेतीं, होंठों पर एक मुस्कान फैला लेतीं, अपने सर को एक तरफ झटका देतीं और एक हाथ को हवा में फेंकते हुए “हाय” निकालतीं.
मौसिकी में खानम जैसी नेमतें सभी को हासिल नहीं हैं.
पाकिस्तानी गजल गायक मेहदी हसन, जिनका इन्तेकाल 2012 में हुआ और जो खानम के हमजोली और प्रतिद्वन्दवी दोनों थे, शिकायत किया करते थे के वे बहुत घोलमघाल करती हैं. पल में किसी एक राग को उठाती हैं और अगले ही पल मनचाहे राग के साथ उसे मिला देती हैं. किसी राग को अपने बेहद धीमे अंदाज में गाने वाले हसन द्वारा खानम पर यह राग के साथ छेड़खानी का सीधा-सीधा इल्जाम है. अब है तो क्या करें? इसकी तुलना हसन के अपने अंदाज से करें, जहां वे प्रस्तुति के दौरान ही रागों को समझाते चलते हैं. लेकिन छेड़खानी के उनके इस इल्जाम को तारीफ के रूप में भी लिया जा सकता है: बदलाव लाने की उनकी काबलियत.
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खानम को एक अत्यंत पेचीदा गायिका मानते हैं, जो सीधी तान में गा ही नहीं सकतीं. पाकिस्तानी संगीत निर्देशकों में वे “सीधा न गा सकने वाली” के रूप में मशहूर हैं. उनकी इस छवि के चलते खानम को पार्श्व गायन में कुछ खास काम नहीं मिल पाया. वे इस आलोचना से बहुत खफा भी रहती थीं, उन्होंने मुझे बताया. उन्होंने इस धारणा को गलत साबित करने की ठान ली. 1976 में उन्हें एक मौका मिला, जब पाकिस्तानी टीवी प्रोग्राम सुखनवर के लिए अख्तर नफीस की गजल वो इश्क जो तुमसे रूठ गया गाने के लिए कहा गया. काम मिलने की चाह में अपने बल खाते अंदाज की बनिस्पत, खानम ने इस गजल को बहुत सादगी के साथ गाया. भैरवी में मास्टर मंजूर द्वारा संगीतबद्ध किए गए इस गीत को उन्होंने पहले सुन रखा था. इसके प्रचलित होने का उन्हें भरपूर एहसास था. इस कार्यक्रम के सर्वोसर्वा पीटीवी के अफासरान इसे किसी और से ना गंवा लें, इसके लिए उन्होंने काफी नाज नखरे दिखाए: उन्होंने पहले पहल गीत न गाने का यह कहकर बहाना किया कि यह “उनके अंदाज से” मेल नहीं खाता. इस बात ने अफसरानों को उकसा दिया. और वे सजा के तौर पर उन्हीं से गवाने पर आमदा हो गए.
कुछ और लोग खानम को एक ऐसी अधूरी तालीमयाफ्ता गायिका मानते हैं जो कायदों के दायरे में रहकर इसलिए नहीं गा सकतीं क्योंकि उन्हें उनका इल्म ही नहीं है. उनकी गायिकी में ताल और सरगम की भिड़ंत को ये लोग उनकी अधूरी तालीम का सबूत मानते हैं (उनकी गायिकी की इस खामी की तुलना हमेशा मेहदी हसन या नूरजहां और इकबाल बानो से की जाती है). यह सही है कि खानम के मौसिकी के इस सफर में यकीनन रुकावट आई थी. अमृतसर में अपने घर से उजड़ने के बाद उन्होंने कई मर्तबा इसका जिक्र किया है कि बंटवारे के कारण उनकी तालीम बीच में ही रुक गई थी और उन्हें जाती तौर पर और संगीत की अपनी शिक्षा को लेकर कई समझौते करने पड़े. अनजाने शहर रावलपिंडी में रहते हुए वे कुछ सालों तक रेडियो पर गाने और फिल्मों में काम करने के मकसद से नियमित रूप से लाहौर आती जाती रहीं. लेकिन इस जुगत में वे अपना कुछ खास प्रभाव छोड़ने में नाकमयाब रहीं. जल्द ही उनकी शादी हो गई और अपने उद्योगपति शौहर के कहने पर उन्होंने गाना बजाना छोड़ दिया और ऐशोआराम की जिन्दगी बसर करने लगीं. बाद में कई सालों बाद जब उन्होंने मौसिकी की तरफ दुबारा रुख किया, तो ख्याल और ठुमरी को न अपनाकर, “सेमी क्लासिकल” शैली उर्दू गजल को अपनाया.
लेकिन यहां भी एक कलात्मक पेचीदगी है. जब मैंने उनसे बचपन में उनकी तालीम और स्टाइल के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “सान्नू सिखाया ही ऐस्तरां सी.” वास्तव में उनके उस्ताद अपने संगीत में रवायत की खिलाफत करने वालों में शुमार थे. उनका ध्यान सरलता और गतिशीलता पर अधिक रहता था, बजाय बने-बनाए कायदों पर चलने के (उनकी खुद की आवाज बेहद कर्कश और सपाट थी. उनकी साख हमारे वक्त के नुसरत फतेह अली खान की तरह थी, जो आवाज की मिठास या भावात्मक तासीर की बजाय ताल के सनसनीखेज गिमिक पर टिकी थी). इसके साथ-साथ, खानम का बचपन उत्तर भारत के उदारवादी माहौल में तवायफों के बीच गुजरा था, जो मौसिकी को रिझाने का जरिया अधिक मानते थे, बनिस्पत रूप और परंपरा की हदों में रहने के (खानम, मल्लिका-ए-गजल मानी जाने वाली बेगम अख्तर की मदमस्त गायिकी की मुरीद थीं, जो उनकी आपा की खास सहेलियों में से एक थीं और उनके घर अक्सर आया जाया करतीं थीं). वे कानूनदारी से ऐसी अदायगी पर ज्यादा ध्यान देते थे, जिससे दिल की धड़कने रुकने का एहसास पैदा हो. उनका संगीत खान साहिबों और गवैय्यों से मुख्तलिफ था, जो रागों और तालों पर अपनी महारत पर आधारित था. इस फन को गजल गायिकी में भी देखा जा सकता था. तहजीब और तमद्दुन के मसायिलों पर लिखने वाले अली अदनान के मुताबिक मेहदी हसन और गुलाम अली जैसे फनकार ताल पर अपनी पकड़ को दिखाने के लिए लालायित रहते हैं और सम पर पहुंचने पर “क्लाइमेक्स” की तरह विस्फोटित होते हैं जबकि फरीदा खानम, हैरतअंगेज तरीके से “एंटी क्लाइमेक्स” पर पहुंचती हैं.
फिर आखिर में लुत्फ का एक अपना व्यापार है, जिसे व्याख्याएं कम ही भाती हैं और तकनीकों से परहेज रहता है. फरीदा खानम मुकम्मिल लुत्फ की झंडाबरदार हैं, जो किसी किस्म की बंदिशों में यकीन नहीं रखती. उनको सुनना और गाते हुए देखना एक अनुभव है.
पीटीवी निर्माता की यह बात कितनी सटीक है कि “महफिल लूटना कोई उनसे सीखे!” कायदों को तोड़ना-मरोड़ना एक पैदाइशी अदाकारा की पहचान होती है. यह पारस्परिक भी होता है और हालातों को समझने की काबलियत के साथ काम करता है, जिसका अनुभव एक लाइव परफॉरमेंस में ही लिया जा सकता है.
कलकत्ता में होने वाले संगीत समारोह से, अक्टूबर के महीने में, करीब तीन महीने पहले, फरीदा ने लाहौरवासियों की आंखें नम करके रख दीं थीं.
यह घटना, “ख्याल लिटरेचर फेस्टिवल” के दौरान घटी थी. हुआ यूं कि द लव सौंग ऑफ पाकिस्तान के सत्र के दौरान मैं उनकी म्यूजिक लाइफ पर उनका इंटरव्यू कर रहा था. हमारे पैनल को चार चांद बक्श रहे थे गजल गायक गुलाम अली. मैंने उन्हें कार्यक्रम के शुरू में ही काले कुर्ते और बगैर रिम के चश्मे के, दर्शकों में बैठा देख लिया था और उन्हें स्टेज पर आने की दावत दी. हॉल में अधिकतर अमीर कुलीन लाहौरी बैठे हुए थे, लेकिन उस सीमित कुलीनों के तबकों में भी खासी विविधिता थी (उनमें छात्र-अध्यापक, माता-पिता, बड़े बुजुर्ग, औरतें, बच्चे, सभी किस्म के लोग थे). खानम के स्टेज पर आने से पहले ही, एहतराम का माहौल था लेकिन इसमें एक भारी संत्रास भर आया, जब परदे के पीछे से अपनी बेटी का सहारा लेकर ठोकर खाती सी लगभग घिसटते-घिसटते फरीदा प्रकट हुईं.
मैंने कहा, “फरीदा जी, क्या आप हमारे लिए थोड़ी देर के लिए अपने बचपन में सीखी यमन में बंदिश गा सकती हैं? बराए मेहरबानी बस थोड़ा सा.”
यह पहले से प्लानड था. मैंने एक हफ्ते पहले ही उनसे स्टेज पर यमन की बंदिश गाने की गुजारिश की थी: वे शास्त्रीय संगीत से शुरू कर, गजल और गीतों पर आ सकती हैं; यहां तक कि पसंदीदा रागों में हरदिलअजीज आज जाने की जिद्द न करो भी गा सकती हैं. यह हमारे सत्र को बांध कर रखेगा और इसे समझ पाना भी आसान होगा,” मैंने कहा.
उनका जवाब सिर्फ, “अच्छा” था. “सिर्फ यमन करना है?” उन्होंने अपने होंठ दबाते हुए अपने निराले अंदाज में पूछा. फिर अपने लाड़ में धमकाने वाले अंदाज में बोलीं, “ठीक्के. ए अच्छा सोच्या ए.” अब स्टेज पर वे लुभावनी मुस्कुराते देते हुए बंदिश के लिए मेरी गुजारिश को मान गईं थीं. उनके बीमार जर्जर शरीर के मुकाबले उनके गले में अब भी खनक थी: पूरे गले से निकलती बुलंद, सधी हुई लचीली आवाज. उस शाम जो भी उन्होंने गाया उसमें गजब की स्फूर्ति थी. उन्होंने तीन ताल पर आलाप लिया, फैज की शामे फिराक अब न पूछ गाई, सूफी तबस्सुम की, वो मुझसे हुए हमकलाम और अपनी मशहूर गजल आज जाने की जिद्द न करो भी गाई. अपनी गायिकी में वे रागों को उनके अलग-अलग रूपों में पेश कर रही थीं, उनके जाने-पहचाने लटके-झटके और उनके रहस्यों को उजागर कर रही थीं. लेकिन गाने के साथ-साथ वे कलकत्ता में बीते बचपन के किस्सों में पिछली पूरी सदी का सांस्कृतिक इतिहास भी समेट रहीं थीं: अमृतसर में अपने उस्ताद के साथ रियाज के किस्से, बंटवारे के बाद लाहौर रेडियो स्टेशन में शायरों और संगीत निर्देशकों के साथ काम करने के किस्से, और किस खुशकिस्मती से उन्हें एक महफिल में किसी ने आज जाने की जिद्द न करो गाने की पेशकश की. रागों को उनके चिरस्थायी और क्षणिक स्वरुपों में अनुभूत करना आम लाहौरी दर्शकों के लिए यह पूरा अनुभव किसी तिलिस्म से कम न रहा होगा- बीमार को बेवजह करार आ जाए वाला पल.
बिलाल तनवीर नामक एक नौजवान लेखक जो उस रोज दर्शकों में रोता तालियां बजाता बैठा था ने बाद में मुझसे कहा कि फरीदा आपा ने “उस दिन राग यमन का जिन्न खड़ा कर दिया.” और यह उनके लिए एक तिलिस्सिमाती एहसास था. मुझे लगा उसकी बात में अथाह गहराई है. किसी जिन्न या रूह को बुलाना, जादूगरी से कम नहीं.
इस तरह से जिन्नों को तलब करना महान फनकारों के ही बस में होता है (उपज और आमद जैसे विशेष शब्दों से हिन्दुस्तानी संगीत में इन जिन्नों के वजूद की तस्दीक होती है). संगीत में भी सिर्फ गायिकी ही एक ऐसी कला है जिसके माध्यम से रूहों को तलब किया जा सकता है. यही वजह है शायद कि कई कलाकार खासकर एक अच्छे कॉन्सर्ट या रिकार्डिंग के बाद पूरी तरह से पस्त और घबराए हुए नजर आते हैं. प्रस्तुति जितनी बेहतर होगी गाने वाला अपने अंदर उतनी ही रिक्तता महसूस करेगा.
जिन्नों को तलब करने में फरीदा खानम की भूमिका, उसके सामाजिक और ऐतिहासिक सन्दर्भ से कई गुना बढ़ जाती है. एक किवदंती के अनुसार 13वीं सदी में अमीर खुसरो ने राग यमन के कायदे बनाए थे. जब वे आज जाने की जिद्द न करो गाती हैं तो सदियों का सार आसानी से समझ आ सकने वाले रूप में पेश कर रही होती हैं. हमारी अज्ञानता से यह पूरा सिलसिला मर्मान्तक और विडंबनापूर्ण हो जाता है: कितने शौकीनों को पता है कि वे किसे तलब कर रहे होते हैं जब वे आज जाने की जिद्द न करो गाकर, यूट्यूब या फेसबुक पर अपलोड करते हैं? खानम के गाने में विरह जरूर है, लेकिन साथ-साथ यह हमारी जड़हीनता और अत्यधिक मध्यस्थता की उस मन:स्थिति; तथा सही, बिरले, मौलिक एवं उत्कृष्ट की हमारी चाह को और अधिक उकसा देती है.
जहां तक खानम का सवाल है मुझे नहीं लगता कि उन्हें इस बात का जरा भी भान था कि वे नौजवानों में कितनी प्रचलित हैं. एक दिन मैंने उन्हें बिठाकर उनकी गोद में लैपटॉप रख दिया.
“यूट्यूब,” मैंने कहा.
“ओहो,” जिज्ञासा दिखाते पर बिना विचलित हुए उन्होंने कहा.
“ए की है?” स्क्रीन पर विडियो लिंक की तरफ इशारा करते हुए, मैंने पूछा.
खानम ने स्क्रीन की तरफ देखते हुए कहा, “ए ते मैं आं.”
मैंने उनको आज जाने की जिद्द न करो के कई संस्करण सुनाए और उनके नीचे दिए गए कमेंट पढ़कर बताए: “मार्मिक”; “क्या खूबसूरत आवाज है”; “133 डिसलाइक – किसलिए?”; और, “मेरी पसंदीदा गजल.”
उन्होंने पूछा, “ए हुने ही आया ए?”
मैंने उन्हें बताया कि नहीं यह बहुत सालों से जमा हो रहा है और तब तक जमा होता रहेगा जब तक लोग इस गाने को सुनते रहेंगे. खानम ने कहा, “मैं हैरत में हूं, ए मैजिक हो रया ए.”
हम पुराने वक्तों की खातिर भारत आए. हमें अपने यात्रा कार्यक्रम को चालाकी से बीच में तोड़ना पड़ा: हमने बाघा से बॉर्डर पार किया, अमृतसर में रात गुजारी, सुबह हवाई जहाज से दिल्ली पहुंचे और दोपहर में कलकत्ता की कनेक्टिंग फ्लाइट पकड़ी (हमने फ्लाइट में कोलकता बोलने का अभ्यास किया). कई जगहों पर हमें व्हीलचेयर की जरूरत आन पड़ी. खानम की अरुचि खत्म हो गई जब हमने उसे चेयर बुलाना शुरू किया. इसमें से व्हील्स को हटाकर हमने इसे ऐशोआराम की चीज में तब्दील कर दिया था, जो खानम जैसी शख्सियत के साथ पूरी तरह से वाजिब भी था.
खानम को अनचाही तवज्जो से बचाने का भी अहम काम था. जब मीडिया उनके इंटरव्यू की गुजारिश करता तो हम कह देते “वे आराम फरमा रही हैं.” जबकि असल में वे तैयारी कर रही होतीं थीं: अजीबोगरीब दवाइयां. शहद-अदरक का रस, इत्यादि. उनकी आवाज बैठने के डर से उन्हें कम बोलने के लिए बार-बार मना करना पड़ता.
कभी-कभी अपने पैरों में असहनीय दर्द के कारण उनकी हल्की “आह” निकल जाती.
मैं उन्हें बार-बार दिलासा के स्वर में कहता कि वे कितनी खूबसूरत लग रही हैं; कि लोग उन्हें कितना चाहते हैं; और कि कॉन्सर्ट बहुत अच्छा जाएगा. "सारा कलकत्ता अफरातफरी विच है," मैं उनसे कहता जबकि मुझे इसका जरा भी भी इल्म नहीं था कि शहर में क्या चल रहा था. "सारे टिकट बिक गए ने."
फिर कॉन्सर्ट की रात एक आखिरी अड़चन आ खड़ी हुई. मैं कॉन्सर्ट स्थल जीडी बिड़ला मंदिर साउंड ट्रैक देखने आया हुआ था, जहां मुझे पता चला कि ऑडिटोरियम में दाखिल होने के लिए खानम को कई सीड़ियां चढ़नी पड़ेंगी.
मैंने आयाजकों से पूछा, “अब हम क्या करेंगे?”
तभी एक साड़ी पहने हुई औरत ने मुझे असमंजस वाली दृष्टि से देखा और कहा, “रुको.”
बीस मिनट के बाद, शाम के सात बजने से कुछ पल पहले एक सफेद कार जीडी बिड़ला मंदिर में दाखिल हुई. गुलाबी सुनहरी साड़ी में खानम नमूंदार हुईं. मददगारों और चाहने वालों की मदद से उन्हें दीर्घा में लाया गया. उसके बाद मंदिर के गेट बंद कर दिए गए और दीर्घा खाली हो गई. खानम को कुर्सी पर उठाकर ऊपर ले जाया गया.
उन्होंने कुर्सी के हत्थे जोर से पकड़ के रखे थे और उनकी जुबान अल्लाह का नाम बुदबुदा रही थी. थोड़ी ही देर में वे फूलों से सजे स्टेज पर बैठीं थीं. “या अली मदद.” उन्होंने पर्दा उठने से पहले इस्लाम के चौथे खलीफा और मोहम्मद के वारिस अली को याद किया.
“एक मुद्दत हो गई है,” खानम ने कलकत्ता के दर्शकों के सामने, जिनमे बूढ़े-जवान सभी थे, थोड़ा कांपते से, लेकिन बेहद शांत स्वर में कहा. “इन्होने कहा, आप चलें, बस थोड़ा सा सफर है.”
उन्होंने तयशुदा प्लान के मुताबिक गाया: दो दाग और दो फैज की गजलें; एक भैरवी में ठुमरी और और आज जाने की जिद्द न करो. मुझे उनके साथ स्टेज पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और मैं गीतों के बोल वाली किताब लेकर उनके साथ बैठा था. वे दर्शकों के साथ जिस तरह पेश आ रहीं थीं मुझे उनके संतुलन और ट्रेनिंग पर रश्क हो रहा था. वे पर्दे के पीछे साजिंदों को अपने हाथ की हरकतों और चेहरे के हावभावों से संचालित कर रही थीं. मैंने देखा एक नौसिखिया एक उस्ताद को परफॉर्म करते देख रहा था जैसे कोई नश्वर किसी जीते-जागते दिग्गज को अपना जलवा बिखरते हुए देख रहा हो कि कैसे वे अपनी आवाज पर काबू पाती हैं, कैसे वे मध्यम स्वर फैलाती हैं, कैसे दीर्घ स्वर को संकुचित हैं, सांस फूलने पर शब्दों और स्वरों को कैसे तोड़ती हैं. कभी-कभी जब मुझे लगता कि वे बीट मिस कर जाएंगी, मैं अपने हाथ की किताब को जोर से भींच लेता और दर्शकों की तरफ देखता.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जब-जब एंटी क्लाइमेक्स हुआ, उसमें भी गजब का लुत्फ था.
अनुवाद : राजेन्द्र सिंह नेगी