जंग खाई मेज के उस पार, हाथ में एक चम्मच पकड़े वर्दी वाले आदमी का मौजूद होना मुलाकातियों के लिए शायद कोई नई बात नहीं थी. लोग खाना लेकर आते और आदतन खोल कर उस आदमी को दिखाते. वह कभी खाने को सूंघता और कभी चम्मच से चख कर देखता. उस सुरक्षाकर्मी का चम्मच मलाई कोफ्ते, शाही पनीर और मिक्सड वेज के बर्तनों में गोता लगाने लगा. एक बूढ़ी औरत के खाने में डूबने के बाद वह चम्मच बगल में रखे स्टील के बर्तन में भरे पानी में नहा कर एक प्लास्टिक के टिफन में जा कर धंस गया. बर्तन का पानी रंगबिरंगा हो चुका था. सर्द दोपहर की रोशनी पानी में तैरते तेल को इंद्रधनुष बना रही थी.
मेरा नंबर साढे-चार बजे आया. चम्मच वाले आदमी ने तीन बार ऊपर से नीचे तक मेरी तलाशी ली. मेटल डिटेक्टर से आ रही आवाज को बंद करने के लिए मुझे अपना बेल्ट, स्टील की घड़ी और चाबियां हटानी पड़ीं. तमिलनाडु स्पेशल पुलिस का बैज लगाए आदमी ने संतुष्ट होने के बाद मुझे भीतर जाने को कहा. तिहाड़ केंद्रीय कारावास के तीन नंबर हाई रिस्क वार्ड में चौथी बार मेरी तलाशी ली गई. मैं यहां मोहम्मद अफजल गुरु से मिलने आया था.
मुलाकाती कमरे में मिलने आए लोगों और कैदियों के बीच कांच की एक मोटी दीवार थी. वहां माइक्रोफोन लगे थे जो दिवार पर लगे स्पीकर से जुड़े थे. फिर भी बहुत कम सुनाई पड़ता था और लोगों को दीवार पर कान लगाकर बात सुननी पड़ती थी. अफजल मेरे सामने आकर बैठ गए. 30 साल से कुछ अधिक के अफजल कद छोटा था और उन्होंने सफेद कुर्ता पैजामा पहन रखा था. कुर्ते की जेब में रिनॉल्ड का पेन था. सम्मान के साथ साफ आवाज में उन्होंने मेरा स्वागत किया.
“आप कैसे हैं, जिनाब?” अफजल ने पूछा.
मैंने कहा कि मैं ठीक हूं. फिर सोचने लगा कि क्या मैं भी एक ऐसे आदमी जो कि मौत के बेहद करीब है उससे यही सवाल पूछ सकता हूं? फिर मैंने भी पूछ ही लिया.
“बहुत अच्छा हूं. शुक्रिया.” अफजल ने गर्मजोशी से भरा जवाब दिया.
हमारी बातचीत तकरीबन एक घंटे चली. मैं दोबारा 15 दिन बाद उनसे मिला. हम दोनों कम वक्त में बहुत कुछ जानना और बताना चाहते थे. मैं अपनी छोटी सी डायरी में लगातार लिख रहा था और अफजल एक ऐसे आदमी की तरह बोल रहे थे जो बहुत कुछ कहना चाहता था. फिर भी वह बार बार अपनी मजबूरी का हवाला देते कि मौत के फंदे से लोगों तक अपनी बात नहीं पहुंचा पा रहे हैं.
अफजल गुरु की अन्तर्विरोधी छवि है. तो आज मैं किस अफजल से मिल रहा हूं?
क्या सच में? लेकिन जहां तक मैं समझता हूं अफजल एक ही है. यह जो आपके सामने है. तो आप जानना चाहेंगे कि मैं कौन हूं.
(कुछ पल खामोश रहने के बाद) यह अफजल जवान है, जिंदादिल है, फरजानो है, उसूल परसत नौजवान है. इस अफजल पर भी हजारों हमकश्मीरियों की तरह 1990 के कश्मीर के राजनीतिक हालात का असर है. यहां जो अफजल आपके सामने बैठा है वह जेकेएलएफ (जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) का मेंबर था और बॉर्डर पार कश्मीर गया था लेकिन चंद हफ्तों में मायूस होकर लौट आया और मामूली इंसान की तरह जीना चाहता था. लेकिन सुरक्षा एजेंसियों ने उसे इसकी भी इजाजत नहीं दी. उसे हजारों बार गिरफ्तार किया गया, नसों को निचोड़ देने की हद तक उसका टॉर्चर किया गया. उसे बिजली के झटके दिए गए, बर्फीले पानी में डुबाया गया और पेट्रोल से नहलाया गया. मिर्च के धुएं से भरे कमरे में बंद रखा गया. इस अफजल को झूठे मामले में फंसाया गया और वकील और निष्पक्ष सुनवाई से महरूम रखा गया. और आखिर में इसे मौत की सज़ा दे दी गई. पुलिस के झूठ को आप लोगों ने मीडिया में खूब प्रचारित किया. और शायद इसकी वजह से एक ऐसा माहौल बना जिसे सुप्रीम कोर्ट ने “राष्ट्र का सामूहिक विवेक” कहा. और फिर इसी “सामूहिक विवेक” को तुष्ट करने के लिए अफजल को मौत दे दी गई. आज आप इसी अफजल से मुलाकात कर रहे हैं.
(फिर कुछ देर की खामोशी के बाद) लेकिन मुझे पता नहीं कि बाहरी दुनिया इस अफजल को जानती भी है या नहीं. मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या मुझे अपनी कहानी सुनाने का मौका दिया गया? क्या मुझे इंसाफ मिला? क्या आप बिना वकील के मुझे फांसी पर लटकाना पंसद करेंगे? बिना मेरी जिंदगी के बारे में जाने? जम्हूरियत (लोकतंत्र) के माने ये नहीं हैं? या हैं?
आप अपने बारे में बताएंगे? इस केस से पहले के बारे में...
जब मैं बड़ा हो रहा था तो कश्मीर में हालात बेहद संगीन थे. मकबूल भट्ट को फांसी दे दी गई. हालात विस्फोटक बन चुके थे. कश्मीर के लोगों ने एक बार फिर वोटों के जरिए लड़ाई लड़ने का फैसला किया. वे अमन के रास्ते कश्मीर का मसला सुलझाना चाहते थे. कश्मीर मामले के आखिरी हल के लिए कश्मीरी मुसलमानों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का गठन हुआ. दिल्ली में बैठे लोगों को एमयूएफ को मिल रहे समर्थन ने बेचैन कर दिया. नतीजतन, ऐसी चुनावी धांधली हुई जिसके बारे में कभी किसी ने सोचा भी न था. जिन लीडरों ने चुनाव में भाग लिया और जो भारी बहुमत से जीते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, अपमानित किया गया और जेलों में डाल दिया गया. बस इसके बाद ही इन लीडरों ने हथियारबंद संघर्ष का बिगुल फूंक दिया. उन दिनों मैं श्रीनगर के झेलम वैली मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था. मैंने पढ़ाई छोड़ दी और जेकेएलएफ का मेंबर बन कर बॉर्डर पार चला गया. लेकिन जब मैंने देखा कि पाकिस्तान के सियासतदान भी इस मामले में हिंदुस्तानी सियासतदानों की तरह ही पेश आ रहे थे तो मायूस होकर चंद हफ्तों में वापस लौट आया. मैंने सुरक्षा बलों के आगे सरेंडर कर दिया. बीएसएफ ने मुझे सरेंडर आतंकी का सर्टिफिकेट भी दिया. मैंने एक नई जिंदगी शुरू की. मैं डॉक्टर तो नहीं बन पाया लेकिन दवा और सर्जिकल औजारों का एजेंट बन गया. (अफजल यह कह कर हंसने लगे.)
अपनी मामूली कमाई की बदौलत मैंने स्कूटर खरीदा और निकाह कर लिया. लेकिन ऐसा एक भी दिन नहीं था जब राष्ट्रीय रायफल और एसटीएफ के लोगों ने मुझे नहीं सताया हो. कश्मीर में कहीं भी आतंकी हमला होता तो ये लोग आम शहरियों को घेर लेते और खूब टॉर्चर करते. मेरे जैसे हथियार डाल चुके आतंकियों के लिए तो यह और भी बुरा होता. हम लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाता और झूठे मामलों में फंसा देने की धमकी दी जाती. फिर भारी रिश्वत देने के बाद हम लोगों को छोड़ा जाता. मैंने बार बार रिश्वत दी है. 22 राष्ट्रीय रायफल के मेजर राम मोहन रॉय ने मेरे प्राइवेट पार्ट में बिजली के झटके दिए. मुझसे सैंकड़ों बार कैंपों और टॉयलेटों की सफाई कराई गई. एक बार एसटीएफ के हुमहामा यातनागृह से आजाद होने के लिए मेरे पास जो कुछ भी था मैंने सुरक्षा में तैनात जवानों के हवाले कर दिया. डीएसपी विनय गुप्ता और डीएसपी दविन्दर सिंह की देखरेख में टॉर्चर किया जाता था. इंस्पेक्टर शांति सिंह उनका टॉर्चर एक्सपर्ट था. एक बार उसने तीन घंटों तक मुझे बिजली के झटके दिए. जब मैं एक लाख रुपए रिश्वत देने के लिए तैयार हुआ तब कहीं मुझे छोड़ा गया. मेरी बीवी ने अपने गहने बेच दिए और जब वह भी कम पड़े तो मेरा स्कूटर बेचना पड़ा.
मैं मानसिक और जिस्मानी तौर पर टूट चुका था. मेरी हालत इतनी खराब थी कि छह महीनों तक घर से बाहर नहीं निकल सका. मैं अपनी बीवी के साथ सो भी नहीं सकता था क्योंकि मेरे प्राइवेट पार्ट में करेंट लगाया गया था. मर्दानगी हासिल करने के लिए मुझे इलाज कराना पड़ा.
(भावशून्य चहरे के साथ जब अफजल आपबीती सुना रहे थे तो मेरा दिल जोरो से धड़क रहा था. मेरे टैक्स पर पल रही फौज की ज्यादतियों को सुनना जब मेरे बस में नहीं रहा तो उन्हें बीच में टोक कर मैंने दूसरा सवाल किया.)
आपके मामले पर बात करते हैं. किन परिस्थितियों में आप संसद पर हुए हमले के आरोपी बने?
एसटीएफ कैंप में रहने के बाद आपको पता होता है कि या तो आपको चुपचाप एसटीएफ का कहना मानना होगा नहीं तो आप या आपके परिवार वालों को सताया जाएगा. ऐसे में जब डीएसपी दविन्दर सिंह ने मुझे एक छोटा सा काम करने को कहा तो मैं न कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. जी हां, उन्होंने इसे “एक छोटा सा काम” ही कहा था. दविन्दर ने मुझे एक आदमी को दिल्ली लेकर जाने और उसके लिए किराए का मकान ढूंढने को कहा था. मैं उस आदमी से पहली बार मिला था. क्योंकि उसे कश्मीरी नहीं आती थी इसलिए मैं कह सकता हूं कि वह बाहरी आदमी था. उसने अपना नाम मोहम्मद बताया. (पुलिस का कहना है कि जिन 5 लोगों ने संसद में हमला किया उनका लीडर मोहम्मद था. उस हमले में सुरक्षा बलों ने इन पांचों को मार दिया था.)
जब हम दोनों दिल्ली में थे तब दविन्दर हम दोनों को बार बार फोन करते थे. मैंने इस बात पर भी गौर किया कि मोहम्मद दिल्ली के कई लोगों से मिलने जाता था. कार खरीदने के बाद उसने मुझसे कहा कि उसे मेरी जरूरत नहीं है और मैं घर जा सकता हूं. जाते वक्त उसने मुझे तोहफे में 35 हजार रुपए दिए. मैं ईद के लिए कश्मीर आ गया.
मैं श्रीनगर बस अड्डे से सोपोर के लिए निकलने ही वाला था कि मुझे गिरफ्तार कर लिया गया और परिमपोरा पुलिस स्टेश लाया गया. उन लोगों ने मेरा टॉर्चर किया और फिर एसटीएफ के मुख्यालय ले गए और वहां से दिल्ली लेकर आए.
दिल्ली पुलिस के विशेष सेल के टॉर्चर चैंबर में मैंने मोहम्मद के बारे में जो कुछ भी मुझे पता था, बता दिया. लेकिन उन लोगों ने जोर दिया कि मैं कबूल कर लूं संसद में हमले में मेरा कजन शौकत, बीवी नवजोत, एसएआर गिलानी और मैं शामिल थे. मैंने इसका विरोध किया लेकिन जब उन लोगों ने मुझे बताया कि मेरा परिवार उन लोगों के कब्जे में है और उनको मार दिया जाएगा तो मुझे ऐसा करना पड़ा. मुझसे सादे कागज में दस्तखत कराया गया और मीडिया के सामने क्या कहना है बताया गया. जब एक पत्रकार ने मुझसे एसएआर गिलानी के बारे में सवाल किया तो मैंने कहा कि वह बेकसूर हैं. इस पर एसीपी राजबीर सिंह ने पूरे मीडिया के सामने मुझे फटकार लगाई क्योंकि मैं उनके सिखाए से अलग बोल रहा था. जब मैं उनकी सीख से हट कर बोल गया तो वे लोग निराश हो गए और पत्रकारों से मिन्नतें करने लगे कि गिलानी की बेगुनाही वाली मेरी बात को न छापा जाए.
राजबीर सिंह ने दूसरे दिन मेरी बीवी से बात कराई. बात कराने के बाद उसने मुझसे कहा कि अगर मैं अपने लोगों को जिंदा देखना चाहता हूं तो उनका सहयोग करना होगा. अपने परिवार की जिंदगी की खातिर गुनाह कबूल करने के सिवा मेरे पास और कोई चारा नहीं था. स्पेशल सेल के अफसरों ने मुझसे कहा कि वे लोग मेरा केस इतना कमजोर बना देंगे कि मैं कुछ दिनों में ही छूट जाऊंगा. वे लोग मुझे लेकर अलग-अलग जगह गए और वे बाजार दिखाए जहां से मोहम्मद ने चीजें खरीदी थीं. इस तरह उन लोगों ने मामले के सबूत पैदा किए.
पुलिस ने संसद में हमले के मास्टरमांइड को न पकड़ पाने की अपनी नाकामयाबी को छिपाने के लिए मुझे बलि का बकरा बनाया. पुलिस ने लोगों को बेवकूफ बनाया. आज तक लोगों को नहीं पता कि संसद में हमले की साजिश किसने रची. मुझे कश्मीर के विशेष कार्रवाई बल ने इस केस से जोड़ा और दिल्ली पुलिस के विशेष सेल ने फंसाया.
मीडिया ने मेरे “इकरार” को बार बार प्रसारित किया. पुलिस अफसरों को ईनाम मिला और मुझे मौत.
आपको कानूनी सहायता क्यों नहीं मिली?
मैं किसी को नहीं जानता था. यहां तक कि सुनवाई के छह महीनों तक मैं अपने परिवार से नहीं मिल सका. और जब मैं उनसे मिला भी तो पटियाला हाउस कोर्ट में बहुत कम समय के लिए. मेरे लिए वकील करने वाला कोई नहीं था. चूंकि इस देश में कानूनी सहायता एक बुनियादी हक है इसलिए मैंने चार वकीलों का नाम दिया. मैं चाहता था कि ये मेरा केस लड़ें. लेकिन जज एसएन डींगरा ने कहा कि उन चारों ने मेरा केस लड़ने से इनकार कर दिया है. कोर्ट ने जिस वकील को मेरे लिए चुना उसने बिना मुझसे मश्विरा किए ही कुछ बेहद जरूरी दस्तावेजों को सही मान लिया. वह अपना काम ठीक से नहीं कर रहीं थीं और बाद में सह आरोपी का बचाव करने लगीं. फिर कोर्ट ने एमिकस क्यूरी नियुक्त कर दिया. इसलिए नहीं कि वह मेरा बचाव करे बल्कि अदालत को इस मामले में सहयोग करने के लिए. उसने मुझसे कभी मुलाकात नहीं की. उसका व्यवहार शत्रुतापूर्ण और सांप्रदायिक था, तो यह है मेरा मामला. महत्वपूर्ण सुनवाई प्रक्रिया में मुझे बचाव करने का मौका नहीं दिया गया.
यह एक तथ्य है कि मुझे वकील नहीं दिया गया और सब जानते हैं कि ऐसे मामलों में वकील न दिए जाने के क्या मायने हैं. अगर आप लोग मुझे फांसी पर लटकाना ही चाहते थे तो इतनी लंबी प्रक्रिया की जरूरत क्या थी? मेरे लिए यह सब बेमतलब है.
क्या आप विश्व समुदाय से कोई अपील करना चाहते हैं?
नहीं, मैं कोई अपील नहीं करना चाहता. जो भी मुझे कहना था वह मैं भारत के राष्ट्रपति के नाम अपनी याचिका में कह चुका हूं. मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि अंध-राष्ट्रवाद और दुष्प्रचार में फंस कर अपने हमवतन के सबसे बुनियादी हकों का कत्ल मत होने दीजिए. आज मुझे भी वही कहना है जो एसएआर गिलानी ने तब कहा था जब उन्हें सत्र अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी. उन्होंने कहा था, “इंसाफ की मंजिल अमन के रास्ते चलकर मिलती है.” जहां इंसाफ नहीं होता वहां अमन भी नहीं हो सकता. मुझे लगता है यही वह बात है जो मैं कहना चाहता हूं. आप मुझे मारना चाहते हैं, शौक से मारिए लेकिन याद रखिए कि मेरी मौत हिंदुस्तान की न्यायिक और सियासती व्यवस्था पर एक बदनुमा दाग होगी.
जेल में आप किन हालतों में रह रहे हैं?
मुझे उच्च सुरक्षा सेल के एकान्त कारावास में रखा गया है. मुझे दोपहर में बहुत थोड़े वक्त के लिए बाहर लाया जाता है. यहां न रेडियो है, न टीवी. यहां तक कि मुझे जो अखबार दिया जाता है वह भी फटा हुआ होता है. अगर अखबार में मेरे मामले से जुड़ा कुछ छपा होता है तो उस हिस्से को काट कर मुझे अखबार दिया जाता है.
आपके भविष्य की अनिश्चिता के अलावा ऐसी कौन सी बात है जो आपको सताती है?
यकीनन मुझे बहुत सी बातें परेशान करती हैं. सैंकडों कश्मीरी अलग अलग जेलों में बिना वकील, बिना सुनवाई और बिना किसी हक के कैद हैं. कश्मीर में आम शहरियों की हालत भी इससे जुदा नहीं है. कश्मीर घाटी अपने आप में एक खुली जेल है. इन दिनों फर्जी मुठभेड़ की खबरें आ रही हैं. लेकिन यह बस एक झलक है. कश्मीर उन सभी बुरी बातों का गवाह है जो किसी भी सभ्य समाज में नहीं होनी चाहिए. यहां के लोग सांस भी लेते हैं तो उनका टॉर्चर किया जाता है, यहां सरेआम नाइंसाफी होती है.
(फिर कुछ देर रुक कर) मेरे अंदर और भी बहुत कुछ चलता रहता है. मैं अपनी जमीन से बेदखल कर दिए गए किसानों के बारे में सोचता हूं, दिल्ली के उन दुकानदारों के बारे में भी सोचता हूं जिनकी दुकानों को सील कर दिया गया. नाइंसाफी के कितने चहरे हैं, है ना? क्या कभी आपने सोचा कि इन सब बातों से कितने लोगों की जिंदगी पर असर पड़ता है. उनकी जीविका, परिवार कैसा चलता है? ये तमाम बातें मुझे बेचैन करती हैं।
(अफजल फिर कुछ देर खामोश हो गए)
मैं दुनिया के हालातों के बारे में सोचता हूं. जब सद्दाम हुसैन को फांसी दी गई, मैं बेहद गमगीन हो गया था. कितनी बेशर्मी से खुलेआम नाइंसाफी की गई. मेसोपोटामिया की सरजमीं इराक, दुनिया की सबसे दौलतमंद सभ्यता है, जिसने हमें गणित पढ़ाया, साठ मिनट वाली घड़ी देखना सिखाया, 24 घंटे का दिन दिया, रेखागणित को 360 डिग्री दी, उस सभ्यता को अमेरिकियों ने जमींदोज कर दिया. अमेरिका सभी सभ्यताओं और मूल्यों को तहसनहस कर रहा है. आतंकवाद के खिलाफ जंग के नाम पर नफरत को हवा दी जा रही है और चीजों को नष्ट किया जा रहा है. अगर मैं उन सभी बातों को गिनाने लग जाऊं जो मुझे बेचैन करती हैं तो शायद यह दिन कम पड़ जाए.
अभी आप कौन सी किताब पढ़ रहे हैं?
अभी-अभी मैंने अरुंधति राय को पढ़ कर खत्म किया. फिलहाल मैं अस्तित्ववाद और सात्र को पढ़ रहा हूं. देखिए न, जेल की लाइब्रेरी में कितनी कम किताबे हैं. मैं सोच रहा हूं कि कैदियों के हकों की सुरक्षा करने वाली संस्था एसपीडीपीआर के मेंबरों से कुछ किताबें मंगा लूं.
बाहर आपको बचाने के लिए कैंपेन चल रहा है...
मैं आपको बता नहीं सकता कि कितना भावुक हूं इस बात को देख कर कि हजारों लोग सामने आ रहे हैं और कह रहे हैं कि मेरे साथ नाइंसाफी हुई है. वकील, छात्र, लेखक, बुद्धिजीवी और वे तमाम लोग जो इस नाइंसाफी के खिलाफ बोल रहे हैं, बहुत बड़ा काम कर रहे हैं. 2001 में हालात ऐसे नहीं थे कि इंसाफ पसंद लोग सामने आ पाते. जब हाई कोर्ट ने एसएआर गिलानी को बरी किया तब लोग पुलिस की थ्योरी पर सवाल उठाने लगे. और जब ज्यादा से ज्यादा लोग केस को समझने लगे तो बताई बातों पर सवाल उठाने लगे. यह जरूरी है कि इंसाफ पसंद लोग अपनी बात रखें और कहें कि “हां, अफजल के साथ नाइंसाफी हुई है”. इसलिए कि यही सच है.
आपके परिवार के लोग आपके मामले में अलग अलग बातें कर रहे हैं.
मेरी बीवी लगातार कह रहीं हैं कि मुझे गलत फंसाया गया है. उन्होंने देखा है कि कैसे एसटीएफ ने बार बार मेरा टॉर्चर किया और मुझे आम जिंदगी जीने नहीं दी. वह यह भी जानती हैं कि मुझे इस मामले में कैसे फंसाया गया. वह चाहती हैं कि मैं अपने बेटे गालिब को बड़ा होते देखूं. मुझे लगता है कि मेरे बड़े भाई एसटीएफ के दबाव में मेरे खिलाफ बोल रहे हैं. जो वह बोल रहे हैं बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. मैं बस इतना ही कहूंगा.
देखिए, यह कश्मीर की हकीकत है. जिसे आप आतंकरोधी अभियान कहते हैं वह बहुत ही गंदी शक्ल अख्तियार कर लेता है. भाई को भाई के खिलाफ और पड़ोसी को पड़ोसी के खिलाफ लड़ाया जाता है. आप अपनी गंदी तरकीबों से समाज को तोड़ रहे हैं. जहां तक कैंपेन की बात है तो मैंने गिलानी द्वारा चलाए जाने वाले सोसायिटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ डिटेनीस एंड प्रिजनर्स को अनुरोध किया है और उन्हें कैंपेन चलाने के लिए अपनी रजामंदी दी है.
जब आप अपनी बीवी तबस्सुम और बेटे गालिब के बारे में सोचते हैं तो आपके जहन में कैसे विचार आते हैं?
इस साल हमारी शादी को 10 साल हो गए. इन सालों में, आधे वक्त मैं जेल में था. और शादी से पहले मुझे कई बार गिरफ्तार किया गया और यातना दी गई. तबस्सुम मेरे जिस्मानी और मानसिक घावों की गवाह हैं. बहुत बार तो ऐसा हुआ कि जब मैं यातना के बाद घर आता तो खड़ा भी नहीं हो पाता. तबस्सुम मुझे यकीन करना सिखातीं. हमें कभी एक लम्हा चैन का नहीं मिला. यह कश्मीर की न जाने कितनी जोड़ियों का किस्सा है. कश्मीर का हर घर डर के साये में जी रहा है.
जब बेटा हुआ तो हम कितने खुश थे. हमने उसका नाम अजीज शायर गालिब के नाम पर रखा. हम अपने बेटे गालिब को बड़ा होते देखना चाहते थे. मैं कितना कम वक्त उसके साथ गुजार पाया. उसके दूसरे जन्मदिन के बाद मुझे इस मामले में फंसा दिया गया.
आप उसे क्या बनाना चाहेंगे?
मैं उसे डॉक्टर बनते देखना चाहता हूं. इसलिए कि मेरा यह सपना अधूरा रह गया.
लेकिन उससे भी जरूरी है कि वह खौफ से परे माहौल में बड़ा हो. मैं चाहता हूं कि वह नाइंसाफी के खिलाफ आवाज उठाने वाला बने. मुझे यकीन है कि वह ऐसा जरूर करेगा. भला कौन मेरी नाइंसाफी की कहानी बीवी और बेटे से अच्छी तरह से जान सकता है.
(जब अफजल अपनी बीवी और बेटे के बारे में बता रहे थे तो मुझे 2005 में सुप्रीम कोर्ट के बाहर उनकी बीवी तबस्सुम से अपनी मुलाकात याद आने लगी. अफजल के परिवार वाले कश्मीर में ही थे और तबस्सुम अपने बेटे गालिब के साथ अफजल को बचाने का मजबूत इरादा लेकर दिल्ली आईं थीं. सुप्रीम कोर्ट के नए वकीलों के चैंबर के बाहर चाय की एक छोटी दुकान में उन्होंने मुझे अफजल के बारे में बताया. चाय में चीनी ज्यादा पड़ गई थी और वह इस बात को लेकर गुस्सा थीं. उन्होंने बताया कि अफजल को खाना पकाना बहुत पंसद था. उन्होंने एक ऐसी बात भी बताई जो मेरे जेहन में अब भी ताजा है. वह बात दोनों के दरमियां के ऐसे पल के बारे में थी जो बहुत कीमती था. अफजल उन्हें रसोई में आने नहीं दे रहे थे और तबस्सुम को कुर्सी पर बैठा कर खुद खाना बना रहे थे. उनके एक हाथ में किताब थी और दूसरे में करछी. वह खाना बनाते और तबस्सुम को कहानियां पढ़ कर सुनाते.)
क्या आप बता सकते हैं कि कश्मीर मसले को कैसे सुलझाया जा सकता है?
सबसे पहले तो सरकार को कश्मीरी आवाम के लिए ईमानदार होने की जरूरत है. और उसे कश्मीर के असल नुमाइंदों से बात करनी चाहिए. मेरा भरोसा कीजिए, कश्मीर के असल नुमाइंदे इस मामले को सुलझा सकते हैं. लेकिन जब तक सरकार शांति प्रक्रिया को आतंकरोधी अभियान का हिस्सा मान कर चलेगी यह मामला हल होने वाला नहीं है. यह ईमानदारी के साथ पेश आने का वक्त है.
वे असली लोग कौन हैं?
यह बात आप कश्मीरी आवाम से पूछिए. मैं किसी का नाम नहीं लूंगा. और भारतीय मीडिया से मेरी अपील है कि दुष्प्रचार का साधन मत बनिए. सच दिखाइए. अपनी चालाक भाषा में की गई राजनीतिक रिपोर्ट के जरिए मीडिया गलत बातों को पेश करता है, अधूरी रिपोर्ट दिखाता है और कट्टरवाद और आतंकी पैदा करता है. मीडिया गुप्तचर संस्थाओं के जाल में आसानी से फंस जाता है. गैर ईमानदार पत्रकारिता कर आप लोग समस्या को बढ़ा रहे हैं. कश्मीर के बारे में गलत खबरें रुकनी चाहिए. हिंदुस्तानियों को द्वंद्व का पूरा इतिहास जानने दीजिए. जो हो रहा है उससे वाकिफ कीजिए. सच्चे जम्हूरियत पसंद लोग तथ्यों से भाग नहीं सकते. अगर हिंदुस्तानी सरकार कश्मीरी अवाम की इच्छा का सम्मान नहीं करेगी तो समस्या का हल भी नहीं होगा. यह द्वंद्व का क्षेत्र बना रहेगा.
अब आप ही बताइए कि कश्मीरियों का भरोसा कैसे हासिल किया जा सकता है जबकि आप उन्हें यह पैगाम दे रहे हैं कि भारत में एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था है जो लोगों को वकील और निष्पक्ष सुनवाई के बिना ही मौत की सजा सुना देती है. बताइए न कि कैसे जब सैंकड़ों कश्मीरी आपकी जेलों में बिना वकील और इंसाफ की उम्मीद के कैद हैं तो आप हिंदुस्तानी सरकार के लिए कश्मीरियों में व्याप्त अविश्वास को कैसे मिटा सकते हैं? क्या जरूरी मुद्दों को दरकिनार कर और केवल दिखावे भर से कश्मीर में द्वंद्व को खत्म किया जा सकता है? नहीं, कभी नहीं. हिंदुस्तान और पाकिस्तान की जम्हूरी संस्थाओं, नेताओं, संसदों, न्याय व्यवस्था, मीडिया और बुद्धिजीवियों को ईमानदार होने की जरूरत है.
संसद में हुए हमले में 9 सुरक्षाकर्मी मारे गए. उनके परिवार वालों को आप क्या कहना चाहेंगे?
यकीन मानिए कि इस हमले में जिन लोगों ने भी अपनों को खोया है, उनके दर्द को मैं महसूस करता हूं. लेकिन मुझे इस बात का गम भी है कि उन लोगों को गुमराह किया जा रहा है कि मुझ जैसे बेकसूर को फांसी पर लटका देने से उन्हें राहत मिलेगी. इन लोगों को राष्ट्रवाद की एक गलत अवधारणा के तहत पूरी तरह गुमराह कर दिया गया है. मैं उनसे अपील करता हूं कि इस गलतफहमी से ऊपर उठ कर चीजों को देखें.
आप अपनी सबसे बड़ी सफलता किसे मानते हैं?
मेरी सबसे बड़ी सफलता है कि मेरे मामले में नाइंसाफी के खिलाफ कैंपेन ने एसटीएफ के खूनी इतिहास को सबके सामने ला दिया. मुझे खुशी है कि आम लोगों पर होने वाले सुरक्षा बलों के जुल्मों पर आज लोग बात कर रहे हैं, एन्काउंटर किलिंग पर बात कर रहे हैं, लापता कर दिए गए लोगों पर बात कर रहे हैं, टॉर्चर और यातनाशिविरों पर बात कर रहे हैं. यह वह सच्चाई है जिसमें एक कश्मीरी सांस लेता है. लोगों को कुछ पता नहीं कि कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बल क्या कर रहे हैं.
बेगुनाह होने के बावजूद भी अगर लोग मुझे मार देते हैं तो भी ऐसा इसलिए होगा क्योंकि लोग सच का सामना नहीं कर सकते. एक कश्मीरी को बिना वकील के मार देने के सवाल का जवाब इनके पास नहीं है.
(कान के पर्दे फाड़ देने वाला घंटी का शोर. मेरे बगल में बैठे लोग जल्दी जल्दी बातें करने लगे. मैंने अफजल से आखिरी सवाल पूछा.)
आपको कैसे याद किया जाना चाहिए?
(कुछ देर सोचने के बाद) अफजल, मोहम्मद अफजल के नाम से. मैं कश्मीरियों के लिए अफजल हूं और हिंदुस्तानियों के लिए भी अफजल हूं. लेकिन दोनों के लिए मैं अलग अलग अफजल हूं. अपने बारे में मैं कश्मीरियों के फैसले को मानूंगा. इसलिए नहीं कि वे लोग मेरे अपने हैं बल्कि इसलिए भी कि वे लोग उस हकीकत से वाकिफ हैं जिसका सामना मुझे करना पड़ा. और कश्मीरियों को एक इतिहास या घटना की गलत बयानबाजी से गुमराह नहीं किया जा सकता.
अफजल के इन आखिरी अल्फाजों ने मुझे उलझन में डाल दिया लेकिन जब मैंने उनके शब्दों को अपने जेहन में दुबारा दोहराया तो मैं समझने लगा कि वह क्या कह रहे थे. यह कश्मीरियों की असली कहानी के सामने आने से पहले का वक्त था. आम भारतीयों के लिए कश्मीर की जानकारी का स्रोत या तो स्कूल में पढ़ाई जाने वाली किताबे हैं या मीडिया से मिलने वाली रिपोर्ट. एक कश्मीरी से कश्मीर का इतिहास और वहां की घटनाओं के बारे में जानना अधिकांश भारतीयों के लिए बड़ा झटका है. मैंने इस झटके को तब महसूस किया जब मैंने “अफजल की जुबानी कश्मीर की कहानी” सुनी.
दो घंटियां और बजीं और मेरी मुलाकात खत्म हो गई. लेकिन लोग अभी भी बातें किए जा रहे थे. माइक्रोफोन बंद कर दिए गए. स्पीकर से आने वाली आवाज खामोश हो गई. लेकिन कानों में जोर देकर और होंठों को पढ़कर अब भी बात की जा सकती थी. गार्ड चक्कर लगाने लगे और लोगों को जाने के लिए कहने लगे. जब लोग नहीं माने तो बत्ती बुझा दी गई. अंधेरे ने मुलाकाती कमरे को अपने आगोश में ले लिया.
तिहाड़ जेल परिसर के जेल नंबर 3 से होकर मुख्य सड़क तक लोग झुंड बना कर चल रहे थे. कोई मां, बीवी और बेटी थी तो कोई भाई, बहन और बीवी. कुछ दोस्त थे, भाई थे या जानने वाले थे. लेकिन इन समूहों में एक बात समान थी. सभी के पास एक खाली झोला था जिनमें मलाई कोफ्ते, शाही पनीर और मिक्सड वेज के दाग लगे थे. एक दूसरी बात भी इन लोगों को आपस में जोड़ रही थी. जाड़े के सस्ते लिबास और मामूली जूते-चप्पल पहने हुए ये लोग गेट नंबर 3 के बाहर बस नंबर 588 का इंतजार कर रहे थे. तिलक नगर और जवाहरलाल नेहरू के बीच चलने वाली इस बस से शायद ये लोग धौलाकुंआ जाने वाले थे. ये हमारे देश के गरीब लोग थे.
(कारवां में 2 फरवरी 2013 को प्रकाशित इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)