चुन्नू प्रसाद करीब 50 वर्ष के होंगे. वह छह फीट से थोड़ा कम हैं लेकिन बहुत पतले-दुबले हैं. मंगलवार 19 जुलाई को जब वह अपने दादा की लगभग सवा मीटर लंबी तलवार उठा कर घर से निकले, तो लगा कहीं वह खुद ही उसके बोझ तले दब न जाएं. मगर नहीं. चुन्नू पुराने खिलाडी हैं.
30 साल पहले चुन्नू जुलूसों में जब तलवार भांजते थे तो उनका हुनर देखने तमाशबीनों की भीड़ लग जाती थी. मंगलवार को भी ऐसा ही मौका था. बिहार शरीफ शहर के नेशनल हाइवे 33 पर जुलूस अभी सब्जी मंडी के पास पहुंचा ही था कि चुन्नू ने तलवार भांजना शुरू कर दिया. भीड़ अचानक तितर-बितर हो गई. कुछ लोग उन्हें आश्चर्य से देखने लगे. लोग उत्साहित कम और चौंके हुए ज्यादा थे. आखिर कौन अब जुलूसों में तलवारें भांजता है? मगर चुन्नू अपनी धुन में थे. लगभग पांच मिनट तलवार भांजने के बाद उन्होंने अदृश्य दिशा में सिर झुका कर अभिवादन किया. मगर भीड़ ने न ताली बजाई न उन्हें कंधे पर बिठाया. चुन्नू ने खुद को जुलूस का हिस्सा जताने के लिए आज सिर पर भगवा गमछा भी बांधा था. आगे जुलूस में, चुन्नू ने दो और कोशिशें कीं, मगर भीड़ पर फिर भी कोई असर नहीं हुआ.
जुलूस में शामिल सारे नौजवान डीजे की धुन पर हाथों में झंडे, डंडा और तलवार लिए बस नाच रहे थे. चुन्नू का हुनर अब शायद पुराना हो चूका है. कुछ लड़के बाइक में तीन-तीन सवार होकर, हिंसात्मक नारा लगाते, कभी बाइक इधर दौड़ाते, तो कभी उधर. मंगलवार का यह जुलूस एक बहुत ही पुराने स्थानीय बाबा, मनीराम, की समाधी पर उनकी बरसी के मौके पर निकाला जा रहा था. हिंदुस्तान अखबार ने अपने एक आर्टिकल में बाबा मनीराम के, कुछ पुजारियों के हवाले से, उनके शहर में मौजूदगी की तिथि 13वीं सदी के मध्य में बताई है. हालांकि वह किस कालखंड में हुए और उनका व्यक्तित्व क्या था, इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं है. सिवाए स्थानीय किंवदंतियों के. क्योंकि यह शहर मेरी जन्मभूमि है, मैं भी इन किंवदंतियों का हिस्सा हूं. मनीराम की समाधी स्थल, जुलूस की जगह से कुछ एक किलोमीटर पूर्व की तरफ है. समाधी स्थल पर हर साल सावन महीने की शुरुआत या आषाढ़ के आखिर में मेले लगते हैं. करीब 25 साल पहले तक इस समाधी स्थल पर शहर के कई इलाकों से लोग इस महीने चढ़ावा चढ़ाने जाते थे. वे जुलूस निकाल कर, धूम-धाम से बाबा के मंदिर की तरफ बढ़ते थे. मगर 1998 के हिंदू-मुसलमान दंगों के बाद प्रशासन ने सभी धार्मिक जुलूसों का रास्ता शहरी इलाकों से बदल कर नेशनल हाइवे की तरफ से कर दिया. उसके बाद से जुलूसों में काफी कमी आ गई. लगभग दो दशकों तक बाबा मनीराम का मेला कब आता और कब चला जाता, पता ही नहीं चलता था. यह भी सच था कि 1998 के बाद बिहार शरीफ में दंगों की आवृति कम हो गई. कहें तो एक भी शहर व्यापी दंगा 1998 के बाद नहीं हुआ है.
मगर पिछले पांच सालों से यह जुलूस एक अलग स्वरूप में फिर से शुरू किया गया. शुरू करने वाले कोई और नहीं बल्कि केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का सहयोगी संगठन विश्व हिंदू परिषद (विहिप) है. विहिप और बीजेपी दोनों की मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) है, जिसके सदस्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी हैं. बाबा मनीराम के जुलूस के लिए पैसों और लॉजिस्टिक अब विहिप प्रदान करती है, जबकि इसे मैनपावर (श्रमशक्ति) परिषद की युवा शाखा, बजरंग दल, मुहैय्या कराता है. जुलूस का रूट अब भी वही है, मगर मेला आने से पहले अब शहर के हर बड़े चौराहे, गली कूचे और बिजली के खंबों पर बड़े-बड़े पोस्टर्स, बिलबोर्ड्स और भगवा झंडे लगा दिए जाते हैं. जो इसकी घोषणा कई सप्ताह पहले से कर देते हैं. अब इसे बाबा मनीराम का जुलूस भी नहीं कहते बल्कि "शोभा यात्रा" कहा जाता है.
पहले जुलूस स्थानीय लोगों के परस्पर सहयोग से निकाला जाता था. जबकि अब शोभा यात्रा एक प्राइवेट डीजे पार्टी जैसा है जिसका मकसद बहुजन हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति नफरत जगाना है. इसमें शामिल ज्यादातर आरएसएस से ही जुड़े कार्यकर्ता होते हैं. ये कार्यकर्ता संघ की शाखाओं से होते हैं. यह ज्ञात हो कि संघ पूरे भारत में करीब 70000 शाखाएं चलाता है जहां नौजवानों को शारीरिक ट्रेनिंग दिए जाने के साथ उनमें दक्षिणपंथी विचारधारा को भी विकसित करता है. इस शोभा यात्रा में लोग पहले की तरह बाबा की शान में लाठियां और तलवारें नहीं भांजते, बल्कि सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले गानों की धुन पर डीजे बजा कर नाचते जाते हैं. बीच-बीच में बजरंग दल के कार्यकर्ता "अभी तो केवल झांकी है, काशी मथुरा बाकी है"- नारा जो 1990 के दशक में बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए दिया जाता था- चिल्लाते जाते हैं. बाबा मनीराम के मेले और जुलूस का भगवाकरण शहर की आध्यात्मिक चेतना को बदल रहा है. इसके बदले स्वरूप को समझना जरूरी है. ये विश्व हिंदू परिषद द्वारा स्थानीय सांस्कृतिक विरासतों के ब्राह्मणवाद में विनियोजन (अप्रोप्रिएशन) की भी कहानी है.
बिहार शरीफ, बिहार राज्य के नालंदा जिले का प्रशासनिक कार्यालय है. यह शहर 5वीं सदी के प्राचीन विश्वविद्यालय, नालंदा विश्वविद्यालय, से कुछ 25 किलोमीटर पर स्थित है और 2500 साल पुरानी मगध साम्राज्य की राजधानी राजगृह (राजगीर) से भी उतनी ही दूरी पर है. ऐसे में इस शहर की बुद्धिस्ट विरासत को ध्यान में रखना होगा. इस आध्यात्मिक विरासत की वजह से लोगों में स्थानीय गुरुओं के प्रति आस्था बिना धार्मिक और जातीय भेदभाव के रही है. बाबा मनीराम के समाधी स्थल पर 90वें के दशक में मुस्लमान भी जा सकते थे. जैसे शहर के दूसरे कोने पर स्थित हजरत मखदूम बाबा की मजार पर अब भी हिंदू और मुसलमान दोनों ही जाया करते हैं. मनीराम का समाधी स्थल पंचाने नदी के आस-पास हुआ करता था. मगर यह नदी यहां दशकों पहले सूख गई और अब बिहार शरीफ से राजगीर जाने के रस्ते में ही विलुप्त हो जाती है. मनीराम के समाधी स्थल के चारों तरफ मैदान है जिसमें सामूहिक शादी-ब्याह का आयोजन किया जाता है. इन मैदानों में धर्मशाला जैसी सरंचना भी है तो अक्सर शादी-ब्याहों में आनेवाले लोग यहां रुक भी जाते हैं. पास ही एक पुराना तालाब भी है जिसमें बिहार के लोकप्रिय त्योहार छठ पूजा का अर्घ दिया जाता है. कहते हैं पहले यह अर्घ पंचाने नदी में दिया जाता था. छठ पूजा में अर्घ देना मतलब भक्तजनों का तालाब के पानी में उतर कर उगते सूरज और डूबते सूरज को चढ़ावा चढ़ाना होता है.
कहते हैं बाबा मनीराम एक पहलवान थे और आसपास के मैदानों में, जो कभी आखाड़े हुआ करते थे, कुश्तियां करते थे. बाबा मनीराम के मंदिर में उनकी और उनके चार चेलों की भी समाधि है. खास बात यह है कि यहां लंगोट चढ़ावे के रूप में चढ़ाया जाता है. बिहार शरीफ की साझा विरासत है कि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के त्योहारों में शरीक होते हैं. शहरी इलाकों से जुलूस बंद होने से पहले लंगोटा जुलूसों में मुसलमान भी लाठी भांजा करते थे. इसी तरह मुहर्रम के जुलुस में हिंदू भी लाठियां खेलते थे. मनीराम का जुलूस कभी भी किसी धर्म विशेष का जुलूस नहीं था. मगर अब इसके बदले स्वरूप में बजरंग दल सिर्फ हिंदुओं को शोभा यात्रा में आमंत्रित करता है. मनीराम का मंदिर भी 1990 के दशक तक सभी धर्म और जातिओं के लिए खुला था. इसमें लोहे का कोई द्वार नहीं होता था. लकड़ी का एक दरवाजा था जो कभी भी बंद नहीं होता था. तब हम बच्चे मनीराम के परिसर और मंदिर के अंदर भी किसी कोने में घूम फिर सकते थे. यहां कोई ब्राह्मण पुजारी नहीं होता था. लोग चढ़ावा भी स्वयं ही चढ़ाते थे.
लेकिन अब सब कुछ बदल गया है. मनीराम के सिर्फ जुलूस का ही भगवाकरण नहीं बल्कि मंदिर का भी भगवाकरण हो गया है. अब इसे एक न्यास चलाती है जिसका एक अध्यक्ष होता है और मंदिर में एक ब्राह्मण पुजारी भी होता है. लोहे के बड़े-बड़े गेट लग चुके हैं और अब मंदिर में प्रवेश पुजारियों के समय पर निर्भर करता है. मनीराम के मंदिर में कोई हिंदू भगवान की मूर्ति नहीं होती थी क्योंकि यह एक समाधी स्थल है. मगर अब यहां राम, सीता और गणेश की मूर्तियां भी स्थापित कर दी गई हैं. विश्व हिंदू परिषद यहां समय-समय पर अपनी गोष्टियां आयोजित करता रहता है. मनीराम के जुलूस की तरह विश्व हिंदू परिषद अब इस शहर में राम नवमी की शोभा यात्रा भी निकालता है जो अपने स्तर में बहुत विशाल होती है. इस साल अप्रैल में बजरंग दल के एक स्थानीय कार्यकर्ता ने राम नवमी की शोभा यात्रा से पहले मुझे बताया था कि लोगों में बांटने के लिए 300 से ज्यादा तलवारें आई थीं. कार्यकर्ता ने कहा था "इस बार काफी पैसा आया है".
19 जुलाई की शोभा यात्रा विश्व हिंदू परिषद के लिए प्रफुल्ल कुमार ने आयोजित की थी. कुमार एक सिविल इंजीनियर हैं परंतु पेशे से व्यवसायी हैं. वह आने वाले बिहार शरीफ नगर निगम के चुनावों में मेयर पद के प्रत्याशी भी हैं. जनवरी में एक अध्यादेश के द्वारा बिहार सरकार ने नगर निगम चुनाव के कानून को बदलते हुए मेयर और उप-मेयर के चुनावों को जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन कर दिया था. अभी तक मेयर और उप-मेयर का चुनाव चुने हुए पार्षद करते थे. प्रफुल्ल के इंटरव्यू, भाषणों और उनके फेसबुक प्रोफाइल के विश्लेषण से नहीं लगता की वह वैचारिक रूप से दक्षिणपंथी हैं या आरएसएस से जुड़े हुए हैं. इसलिए उनका विहिप की धार्मिक रैली को आयोजित करना आने वाले निगम चुनावों में समर्थन जुटाने का प्रयास हो सकता है. राजनीतिक मजबूरियों की वजह से कुमार का बजरंग दल जैसे विघटनकारी संगठन का साथ लेना शहर में दल के बढ़ते प्रभुत्व को दिखाता है. प्रफुल्ल शोभा यात्रा के दौरान डीजे वाले ट्रक के पीछे अपनी खुली कार में बैठे रहे. उनकी कार गेंदे के फूल से सजी थी. उन्होंने कोई भड़काऊ भाषण तो नहीं दिया मगर बजरंग दल के लोगों को ऐसा करने से रोका भी नहीं. यात्रा के दौरान बजरंग दल के अध्यक्ष कुंदन कुमार ने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा, "अभी तो हम लोग सिर्फ दिखा रहे हैं, अभी तो झांकी है, काशी मथुरा". "बाकी है" भीड़ से जवाब आया. यह सिलसिला थोड़ी-थोड़ी देर में रिपीट होता था.
शोभा यात्रा में बजरंग दल ने 108 फीट लंबे लंगोट, जो वे चढ़ावे के लिए ले जा रहे थे, की प्रदर्शनी भी की. इसे कुछ नौजवानों ने अपने माथे के ऊपर दोनों हाथों से उठाया थे, जैसे कई बार बड़े शहरों में लोग तिरंगा यात्रा निकालते हैं. ये नौजवान सदस्य पास के एक गांव, दीपनगर, के एक प्राइवेट शारीरिक ट्रेनिंग सेंटर, एस बी ब्रदर्स, के छात्र थे. उन्होंने यूनिफार्म पहन रखी थी. बिहार के कई शहरों में इस तरह के ट्रेनिंग सेंटर्स पिछले कुछ सालों में खुल गए हैं. अकेले बिहार शरीफ के आसपास करीब 19 ट्रेनिंग सेंटर्स हैं. इन सेंटर्स को पूर्व सैनिक या पूर्व पुलिस कर्मचारी चलाते हैं. इन संस्थानों में नौजवानो को विभिन्न सरकारी पुलिस सेवा और सेना में भर्ती होने के लिए शारीरिक परीक्षा की तैयारी कराई जाती है. एस बी ब्रदर्स को भी संजीव कुमार नाम के एक पूर्व सैनिक चलाते हैं. यात्रा के दौरान माइक पर बजरंग दल के एक सदस्य ने एस बी ब्रदर्स को यात्रा की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने के लिए धन्यवाद किया. दल ने यह भी कहा कि एस बी ब्रदर्स से वे जब भी मदद मांगते हैं वह उन्हें मुहैय्या कराते हैं. ब्रदर्स के छात्र ने बाद में सेंटर्स के ऑफिसियल यूट्यूब चैनल पर अपने शामिल होने के वीडियो अपलोड करते हुआ लिखा की वे वहां यात्रिओं को सुरक्षा प्रदान करने गए थे. दल के इस जुलूस में बीजेपी के भी कार्यकर्ता और नेता थे. शोभा यात्रा एक तरह से हिंदूवादी कट्टरपंथियों, राजनितिक नेताओं और प्राइवेट सुरक्षा ठेकेदारों के द्वारा आयोजित एक राजनीतिक और सामाजिक वैमनस्य से प्रेरित यात्रा थी. इसमें न स्थानीय समुदाय का सहयोग था, न उनके द्वारा इकट्ठा किए चंदों से बनाई विभिन्न कलाकृतियां.
शोभा यात्रा से एक दिन पहले बजरंग दल ने प्रेस वार्ता की थी. जिला संयोजक गौरव कुमार ने कहा था, "बजरंग दल सभी नगरवासियों को निवेदन करता है की शोभा यात्रा में आकर सनातन धर्म की मान सम्मान और बीते दिनों धर्म की आड़ में जो हुआ उसके विरुद्ध एकजुटता दिखा कर अपने धर्म और लंगोटा शोभा यात्रा को भव्य बनाएं". कुमार का संदर्भ "बीते दिनों" से 28 जून को राजस्थान के उदयपुर शहर में दो मुस्लिम युवकों द्वारा एक हिंदू टेलर की निर्मम हत्या की घटना से था. कुमार चाहते थे कि शोभा यात्रा को बिहार शरीफ के हिंदू एक अवसर की तरह लें जिसमें वे इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ अपनी भावना व्यक्त कर सकें. उसी प्रेस वार्ता में बजरंग दल के नालंदा जिले के बजरंग दल के अध्यक्ष कुंदन कुमार ने भी कहा की "इस्लामिक कट्टरपंथी जिस तरह हिंदुओं को टारगेट कर रहें हैं" उसके खिलाफ हिंदू अपनी एकता दिखाएं. कन्हैया लाल की हत्या के बाद विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने शहर के टाउन हॉल से "इस्लामिक कट्टरपंथ" के खिलाफ एक दिवसीय धरना दिया था. धरने के बाद उन्होंने जिला प्रशासन को एक ज्ञापन भी दिया. जिला प्रशासन से उनकी कई मांगों में एक मांग थी कि मस्जिद से निकले नमाजिओं और मदरसों के शिक्षकों की भारत सरकार की आतंकवाद से लड़ने वाली विशेष शाखा, एनआईए, से जांच करवाई जाए. यह एक बेतुकी मांग थी जिसका कन्हैया लाल की घटना से कोई संबंध नहीं था. मनीराम की अपनी प्रेस वार्ता में बजरंग दल इन्हीं मुद्दों पर हिंदुओं का समर्थन चाहता था. एक प्रकार से बजरंग दल मनीराम को एक प्लेटफार्म की तरह इस्तेमाल कर, अपने संगठन के वैचारिक एजेंडे, जो हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाना है, को बढ़ावा दे रहा था.
चूंकि बाबा मनीराम का कोई लिखित प्रमाण नहीं है, विहिप के लिए आसान हो जाता है लोगों को गुमराह करना. चुन्नू जैसे लोग जो पेशे से इलेक्ट्रीशियन हैं उन्हें मुसलमानों से कोई दुश्मनी नहीं है. वे तो पुराने दिनों को याद करके यात्रा में शामिल होते हैं. विहिप ने लंगोटा मेला जैसी पुरानी विरासत को पुनर्जीवित कर चुन्नू के दिल में ऐसी इज्जत पा ली है कि वह बजरंग दल की बातों का विरोध भी नहीं करते.
चुन्नू की तरह मुन्नू हलवाई भी उस जुलूस में शामिल थे. मुन्नू चना-भूंजा की फेरी लगाते हैं. उनके लिए जुलूस विहिप के बड़े नेताओं से मिलने का प्रत्यक्ष अवसर था. नेता छोड़िए, चना बेचने वाले को एक आम शहरी भी इज्जत नहीं देता. मगर उस मेले में वह विहिप के नेताओं, जो एक बड़ी भीड़ का संचालन कर रहे थे, को पास जाकर मिल सकते थे, अपनी पहचान उन्हें बता सकते थे. एक ठेलेवाले को अगर बजरंग दल की पहचान मिल जाए तो शायद उनसे कोई बदतमीजी न करे. मुन्नू उस दिन भीड़ में ढूंढ़ते हुए एक पजामा कुर्ता पहने जवान आदमी को प्रणाम कर आए. मैंने पूछा “कौन था वह?” मुन्नू ने बताया कि वह बजरंग दल का अध्यक्ष कुंदन है. मैंने उनसे कहा, “वह गलत समझ रहे हैं वह कुंदन नहीं है.” मुन्नू मेरे मोहल्ले के ही हैं. मैं उनके सामने बड़ा हुआ हूं इसलिए वह मुझे बच्चा मानते हैं, चाहे मेरा काम कुछ भी हो. उन्होंने मुझसे कहा, "वही है, तुम्हे नहीं पता. उसके कपड़े देखो.” मुन्नू और चुन्नू दोनों ही बजरंग दल के शोभा यात्रा में खुद को अनफिट पाते हैं, मगर वे फिर भी यात्रा के साथ चलते हैं क्योंकि लंगोटा मेला उनकी जिंदगी का हिस्सा है.