तेलंगाना आंदोलन के बेवफा केसीआर का चुनावी गणित

के. चंद्रशेखर राव के लिए खुश होने की वजह है. चुनावपूर्व सर्वे तेलंगाना विधानसभा चुनाव में उनके जीतने की बात कर रहे हैं. लेकिन राज्य को उनके शासन से उम्मीद नहीं है. महेश कुमार/एपी
02 November, 2018

तेलंगाना के पहले मुख्यमंत्री कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव ने इस साल सितंबर के शुरू में राज्य विधान सभा को कार्यकाल पूरा होने के आठ महीने पहले भंग कर दिया और दिसंबर में चुनावों की घोषणा कर डाली. उन्होंने इसकी वजह तेलंगाना की उस “नाजुक राजनीति” को बताया जो सरकार पर विपक्ष के हमलों से बन गई है. लेकिन भाषा की मिठास भी उनकी बातों की कड़वाहट को छिपा न सकी. तेलंगाना का अगला विधानसभा चुनाव 2019 के आम चुनाव के साथ होना था. राव, जिन्हें केसीआर के नाम से अधिक जाना जाता है- ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि आम चुनावों के वक्त राज्य-गर्व की उनकी राजनीति का कांग्रेस और बीजेपी की राष्ट्रीय महत्वकांक्षाओं के सामने टिक पाना मुश्किल है.

विधानसभा चुनाव को पहले करा कर केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) अपनी ऊर्जा को दो मोर्चों में बंटने से बच गई और वह एक वक्त में एक लड़ाई करने की स्थिति में है. सबसे पहले टीआरएस का मुकाबला राज्य में उसकी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस है. कांग्रेस के शासन में ही आंध्र प्रदेश को विभाजित कर तेलंगाना राज्य का गठन हुआ था इसलिए इस पार्टी के प्रति जनता में सहानुभूति है. इसके बाद वह लोक सभा चुनावों में बीजेपी और कांग्रेस पार्टी को चुनौती देगी. वह जानती है कि अच्छी सीटें हासिल करने से केन्द्र में सरकार तय करने में उनकी भूमिका रहेगी.

पहली लड़ाई के बारे में, मध्यावधि चुनावों की घोषणा करते हुए एक प्रेसवार्ता में केसीआर ने कहा, “मेरे सर्वे के अनुसार हमारे आसपास भी कोई नहीं है”. जब उनसे सवाल किया गया कि क्या वह दो चुनाव साथ लड़ने का खतरा उठाना नहीं चाहते तो उनका कहना था, “मेरा नाम केसीआर है. क्या मैं किसी से डरता हूं.” उनका यह आत्मविश्वास अकारण नहीं है. सर्वे में अनुमान है कि टीआरएस को आसानी से बहुमत मिलने वाला है. लेकिन जिस राज्य पर उनका शासन कायम होने की संभावना है उसे उनके शासन से उम्मीद नहीं है.

केसीआर के विधानसभा भंग करने के एक सप्ताह बाद, तेलंगाना के एक छोटे कस्बे मिरयालगुडा में पेरूमल्ला प्रणय की हत्या उस वक्त कर दी गई जब वो अपनी पत्नी अमृता वर्षिणी के साथ अस्पताल से घर लौट रहे थे. वर्षिणी गर्भवती थीं और दोनों प्रसव-पूर्व चेकअप के लिए अस्पताल आए थे. प्रणय एक दलित इसाई थे और वर्षिणी वैश्य जाति की हैं. दोनों ने वर्षिणी के पिता की मर्जी के खिलाफ विवाह किया था. वर्षिणी के पिता टी. मारुति राव रसूखदार रियल स्टेट व्यवसायी हैं. प्रणय के ससुर ने प्रणय की हत्या के लिए हत्यारे को एक करोड़ रुपए की सुपारी दी थी.

यह हत्या सीसीटीवी में कैद है और आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के लोगों में हफ्तों तक इस पर चर्चा होती रही. बहुतों ने पिता के कृत्य का बचाव किया और युवती पर मर्यादा लांघने का आरोप लगाया. 500 से अधिक वैश्यों ने पिता के समर्थन में रैली निकाली और जेल जाकर उनसे मुलाकात की. केसीआर चुप रहे और लोगों ने उन पर जातिवादी और दलित विरोधी होने का आरोप लगाया. उनकी उदासीनता ने ऐसे बहुतों को हैरान कर दिया जिन्होंने तेलंगाना आंदोलन का सर्मथन किया था. इस आंदोलन के दम पर केसीआर सत्ता में आए थे. आंदोलनकारियों को उम्मीद थी कि तेलंगाना सामाजिक प्रगति का नमूना राज्य बनेगा.

तेलंगाना की लगभग 90 प्रतिशत आबादी धार्मिक अल्पसंख्यक, अन्य पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति है. पारंपरिक रूप से रेड्डी और कम्मा जैसी जातियां इन समूहों का उत्पीड़न करती रही हैं और तेलंगाना आंदोलन को इन जातियों के नेल्लु, निधुलु, नियमकालु (जल, संसाधनों और नियुक्तियां) पर रहे कब्जे को तोड़ना था ताकि दमित जनता को लोकतांत्रिक सत्ता में न्यायपूर्ण हिस्सा मिल सके.

केसीआर प्रभावशाली वेलम्मा जाति से आते हैं. उनका राजनीतिक उदय आसान नहीं था. लेकिन आंदोलन उनका ऋणी है क्योंकि उन्होंने पृथक राज्य की संभावना को उस वक्त जीवित किया जब माओवादियों के नेतृत्व में पृथकतावादी आंदोलन को हिंसा के जरिए दबा दिया गया था. और उन्होंने वही किया जो टीआरएस को आंदोलन की पार्टी दिखाने के लिए किया जाना चाहिए था. तेलंगाना के गठन से पहले टीआरएस ने एक दलित को मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया, जो उन्होंने कभी पूरा नहीं किया. इस आंदोलन का हरावल, तीन राजनीतिक दलों और दो दर्जन से अधिक संगठनों वाले तेलंगाना संयुक्त कार्रवाई समिति ने अनेकों चुनावों में टीआरएस का समर्थन किया. समिति ने 2014 के चुनावों में भी टीआरएस का साथ दिया जिसकी वजह से केसीआर मुख्यमंत्री बन पाए.

एक बार सत्ता में आने के बाद केसीआर ने उन सभी नागरिक-समाज समूहों को कुचल दिया जो उनका विरोध कर सकते थे. प्रसिद्ध बुद्धिजीवी जी हरगोपाल ने मुझे बताया, “सिविल लिबर्टीज के मामले में यह सरकार सबसे बेकार सरकार है.” “विरोध और प्रतिरोध के सभी रूपों को दबा दिया गया है.” दशकों से समाजसेवा के काम में सक्रिय हरगोपाल को “पुलिस ने कभी छुआ भी नहीं था” लेकिन टीआरएस सरकार में “ऐसा हुआ जब शांतिपूर्ण शिक्षा बचाओ यात्रा में पुलिस ने जोर जबरदस्ती की और हमारे कई साथियों को हिरासत में ले लिया गया.”

ये लोग केसीआर की शिक्षा नीतियों का विरोध कर रहे थे. हालांकि केसीआर ने केजी से पीजी- बालबाड़ी से स्नातकोत्तर तक- मुफ्त शिक्षा का वादा किया था लेकिन उनकी सरकार ने शिक्षा बजट को कम कर दिया. राज्य के बजट में शिक्षा का प्रतिशत 8.2 है- यह कम से कम 18 अन्य राज्यों के शिक्षा बजट का आधा है. तेलंगाना में सबसे अधिक नुक्सान उच्च शिक्षा का हुआ है. यह प्रदर्शन हैदराबाद के धरना चौक में हुआ था जहां तेलंगाना आंदोलन का जन्म हुआ था और वह परिपक्व हुआ था. तेलंगाना सरकार ने इस चौक में प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगा दिया है और प्रदर्शनों के लिए शहर से दूर एक जगह तय कर दी है.

2016 में जब हैदराबाद विश्विद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या की उस वक्त भी केसीआर ने खामोशी अख्तियार कर ली. हैदराबाद के अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सत्यनारायण ने मुझे बताया कि इस विवाद का मुख्य निशाना बीजेपी थी लेकिन इस घटना की ''मुख्य वजह'' तेलंगाना सरकार है. हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति अप्पा राव पोडिले पर एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम के तहत मामला दर्ज होने के बावजूद भी उन्हें किसी ने नहीं छुआ और अल्पअवधि की छुट्टी के बाद वह वापस कुलपति बना दिए गए. पोडिले के स्थान पर पुलिस ने रोहित वेमुला के साथ अन्याय करने वालों के खिलाफ आंदोलन कर रहे छात्रों और शिक्षकों को गिरफ्तार किया. सत्यनारायण का कहना है, “सच्चाई तो यह है कि केसीआर के कारण ही बीजेपी यह दावा कर पाई कि रोहित वेमुला दलित नहीं हैं.” सत्यनारायण कहते हैं, “मुख्य तौर उनकी सरकार इस सबके पीछे है.”

केसीआर सरकार ने रोजगार निर्माण के मामले में भी निराश किया है. तेलंगाना आंदोलन का केन्द्रीय विषय था कि बाहर से आने वाले लोग यहां के लोगों का रोजगार छीन रहे हैं. इस मांग को युवाओं ने समर्थन दिया और राज्य के बनने से रोजगार मिलने की उम्मीद जागी. यह नहीं हुआ. नवंबर 2014 में सरकार ने कहा था कि एक लाख से अधिक सरकारी नौकरियां रिक्त हैं लेकिन सरकार ने अपना यह वादा नहीं निभाया. केसीआर के सहयोगी ने, जिन्हें मीडिया से बात करने की मनाही है, नाम का उल्लेख न करने की शर्त पर मुझसे कहा, “युवा नाराज है.”

इसी बीच सत्ता ने केसीआर की बुराइयों को बढ़ा दिया है. उनकी बुराइयों में एक है भाई-भतीजावाद. उनका बेटा और एक भतीजा राज्य कैबिनेट में मंत्री हैं, बेटी लोक सभा सांसद है और दूसरा भतीजा राज्य सभा का सदस्य. उनकी दूसरी बुराई है धार्मिकता. उन्होंने राज्यकोष के 5 करोड़ रुपए से गहने बना कर तेलंगाना के गठन की प्रार्थना पूरी होने पर तिरुपति के वेंकेटश्वर मंदिर को दान कर दिए. वास्तु और ज्योतिष के लिए उनका निजी विशेषज्ञ सरकारी सलाहकार के रूप में नियुक्त है. खबरों के मुताबिक उन्होंने अपना और चंद निजी प्रायोजकों का 7 करोड़ रुपया तेलंगाना की समृद्धि के लिए किए गए 5 दिनों के यज्ञ के लिए 1500 पंडितों को जुटाने में खर्च कर दिए. चिन्ना जीयर नामक भिक्षु सरकार के सभी कार्यक्रमों में उपस्थित रहते हैं और जब केसीआर ने अपने नए आधिकारिक आवास का उद्घाटन किया था तो उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया था.

पत्रकार और तेलंगाना राज्य विधान परिषद के पूर्व सदस्य के नागेश्वर ने बताया, “केसीआर सरकार ने तेलंगाना आंदोलन, खासकर तेलंगाना संयुक्त कार्रवाई समिति को कमजोर बना दिया है. इसके अधिकांश नेताओं को सरकारी पदों में रख लिया गया है.” वो आगे कहते हैं, “अब सरकार ही आंदोलन है.” सरकार के बाहर के प्रभावशाली नेताओं पर बंदिशें लगा दी गईं हैं.

तेलंगाना संयुक्त कार्रवाई समिति के संयोजक और तेलंगाना आंदोलन के मुख्य विचारक एम कोदंडराम को फरवरी 2017 की एक रात उस समय गिरफ्तार कर लिया गया जब वो सरकारी नियुक्तियों को भरने में सरकार की देरी के खिलाफ रैली की तैयारी कर रहे थे. तेलंगाना आंदोलन का गढ़ माने जाने वाले उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्रों को जब रैली में जाने से रोका गया तो संदीप चमार नाम के विद्यार्थी ने खुद को आग लगा ली. ये जबरदस्त रूप से प्रतीकात्मक था क्योंकि आत्मदाह करना तेलंगाना आंदोलन के इतिहास का मुख्य भाग रहा है. चमार ने मीडिया को बताया, “तेलंगाना आंदोलन के वक्त छात्रों ने सबसे अधिक अत्याचार सहा था और अब राज्य के पास हमारी चिंता करने का वक्त नहीं है.” “हमारी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है और अब हमें अपना विरोध जताने भी नहीं दिया जा रहा है.”

कोदंडराम और तेलंगाना संयुक्त कार्रवाई समिति ने इस साल मार्च में तेलंगाना आंदोलन के चरम में आयोजित प्रसिद्ध मिलियन मार्च 2011 (लाखों लोगों का मार्च) की स्मृति में एक और रैली की तैयारी की. सैकड़ों कार्यकर्ताओं को हिरास्त में ले लिया गया और कोदंडराम को गिरफ्तार कर लिया गया. अप्रैल में उन्होंने तेलंगाना जन समिति नाम से अपनी पार्टी बना ली.

पार्टी के गठन के अवसर पर कोदंडराम ने कहा, “ये वो तेलंगाना राज्य नहीं है जिसके लिए सैकड़ों लोगों ने कुर्बानी दी और लाखों लोग सड़कों पर उतरे थे.” सत्ता “एक परिवार के चंद लोगों के हाथों में सीमित हो गई है और आज भी सरकार उन्हीं पुराने ठेकेदारों और बड़े व्यवसायियों के नियंत्रण में है जिनके हाथों में वह अविभाजित आंध्र प्रदेश के समय में थी.” शिकायतों की सूची में है- प्रदर्शनों को कुचलना, उपज की कम कीमत के कारण किसानों की आत्महत्या, नौकरियों के वादे को पूरा न करना और “जब दलित और अन्य वंचित तबका सत्ताधारी दल से सवाल करता है तो उसे दबाना.”

पेरुमल्ला प्रणय की हत्या खासतौर पर भारत के इस सबसे युवा राज्य में दोबारा तेजी से पसरते रूढ़िवाद को दिखाता है. हैदराबाद के अंतर जातीय विवाह संघ के अनुसार तेलंगाना राज्य के गठन से लेकर अब तक अंतर जातीय विवाह से संबंधित 19 हत्याएं हुई हैं. सत्यनारायण का कहना है, “तेलंगाना में हमेशा से ही जातीय उत्पीड़न रहा है लेकिन इस क्षेत्र में माओवादी आंदोलन का एक लंबा इतिहास है जिसके डर से दलितों का खुलेआम कत्लेआम नहीं होता था. लोगों के अंदर जवाबी कार्रवाई का भय रहता था.” लेकिन केसीआर के शासन में उनकी वेलम्मा और अन्य ऊंची जाति के लोग बेखौफ हो गए हैं. दलित मुख्यमंत्री और दलितों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की बातों को छोड़ ही दें, दलितों की हत्या की घटनाएं आम हो गई हैं. केसीआर अगड़ी जाति के संगठनों को मोबलाइज कर रहे हैं जिससे भूस्वामियों के भीतर का भय खत्म हो गया है.”

समाजशास्त्री और लेखक कांचा इलैया शेपर्ड ने केसीआर के शासन में “सामंतवाद की पुनरावृति” के पैटर्न की बात कही है. दशकों तक जारी माओवादी और साम्यवादी गतिविधियों ने राज्य में व्याप्त सामंतवाद को कुछ हद तक खत्म कर दिया था. तेलंगाना जन एवं समाजिक संगठन मंच के नेता शेपर्ड ने मुझे बताया, “कोई भी क्षेत्रीय आंदोलन क्षेत्रीय भावनाओं से आंदोलन बनता है जिसके भीतर सामाजिक बदलाव और बदलाव के लिए लोकतांत्रिक एजेंडे का विचार नहीं होता. ऐसे वातावरण में सामंतवादी ताकतें प्रभुत्वशाली हो जाती हैं. केसीआर इस प्रक्रिया को प्रतिबिंबित करते हैं.”

राज्य में व्याप्त निराशा को दूर करने के लिए केसीआर का हथियार है— लोकप्रिय कल्याणकारी योजनाएं. इन योजनाओं को मतदाता समूहों को रणनीतिक रूप से लक्षित कर बनाया गया है, जैसे बीड़ी मजदूर, बुनकर, ताड़ी उतारने वाले, महिलाएं और वरिष्ठ नागरिक. इन योजनाओं को टीआरएस के जनआधार को फैलाने के उद्देश्य से तैयार किया गया है. ऐसे में भी सामंतवादी तत्व घुसपैठ कर ही लेते हैं. उदाहरण के लिए प्रत्येक एकड़ की जोत पर किसानों को चार हजार रुपए देने वाली रयथू बंधू योजना सिर्फ भू—स्वामियों के लिए है. तेलंगाना की किसान आबादी का दो तिहाई या उससे अधिक हिस्सा असामियों का है लेकिन इन्हें इस योजना से कोई लाभ नहीं मिलता.

केसीआर के सहयोगी का कहना है, “केसीआर सिंगापुर मॉडल का पालन कर रहे हैं. वो सोचते हैं कि जो जनता चाहती है उसे वह देने से कोई समस्या नहीं रहेगी.” उस सहयोगी का कहना है, “इस मॉडल का दूसरा भाग- विरोध का कड़ाई के साथ दमन- हमारे लिए पचा पाना मुश्किल है.” “वो कुछ ज्यादा ही यह कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि बस सम्पन्न वर्ग और उग्र वामपंथी लोग ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहते हैं.”

दिसंबर के चुनावों में टीआरएस का चुनावी गणित इस बात पर निर्भर करेगा कि राज्य भर में फैले विरोध को विपक्ष कैसे मैनेज करता है. लेकिन वोटिंग के पहले टीआरएस विरोधी मोबलाइजेशन व्यापक स्वरूप लेगा ऐसी संभावना सीमित है. पहली बात तो यह है कि विपक्ष बिखरा और कमजोर है. केसीआर के खिलाफ खड़ा करने के लिए कांग्रेस के पास कोई बड़ा नेता नहीं है और आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद तेलुगु देशम पार्टी कमजोर हो गई है. इस पार्टी ने विभाजन का विरोध किया था. तेलंगाना जन समिति और तेलंगाना जन एवं सामाजिक संगठन मंच अभी नए हैं और असरदार बनने के लिए इन्हें अभी कुछ और वक्त लगेगा. दूसरी बात है कि टीआरएस किसी के साथ भी गठबंधन करने को तैयार है. यह पार्टी धर्मनिरपेक्षतावादी होने का दावा करती है लेकिन इसने ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन के साथ रणनीतिक संबंध बनाए है जो एक मुस्लिम पार्टी है और हैदराबाद में मजबूत है. 2019 के लोक सभा चुनावों के बाद हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी बीजेपी के साथ तालमेल की अफवाहें भी हैं. केसीआर ने ‘चोर से कहे चोरी कर, शाह से कहे जागता रह’ की कहावत वाली पार्टी बनाई है और इस पार्टी का एक ही लक्ष्य है- सत्ता.

जी हरगोपाल कहते है, “सामजिक आंदोलनों से समाज में गुणात्मक परिवर्तन आता है लेकिन तेलंगाना के मामले में यह सिद्धांत गलत साबित हुआ.”