नितिन गडकरी : एक असफल बीजेपी अध्यक्ष

बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद गडकरी ने अपनी नरम छवि और बाहरी आदमी की अपनी पहचान को बनाए रखा. मनप्रीत रोमना/ एएफपी/ गैटी इमेजिस
12 October, 2019

हाल तक बीजेपी में नरेन्द्र मोदी का विकल्प माने जाने वाले नितिन गडकरी आजकल अलग-थलग नजर आ रहे हैं. गडकरी को ‘संघ का लाडला’ माना जाता है और संघ ने उनके प्रति अपने भरोसे को कई बार व्यक्त भी किया है. लेकिन हाल के दिनों में महाराष्ट्र की राजनीति में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस हावी हैं. कारवां के ताजा अंक में प्रकाशित फडणवीस की प्रोफाइल के अनुसार, गडकरी के करीबियों को फडणवीस ने काफी हद तक किनारे कर दिया है. पार्टी में गडकरी के कमजोर होने के पीछे, पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनके लिए फैसलों का भी हाथ है. अपने कार्यकाल में गडकरी को मोदी से कई मामलों में टकराना पड़ा था. संघ के एक और चहेते प्रचारक संजय जोशी के मामले में गडकरी को मोदी के सामने घुटने टेकने पड़े थे.

नीचे पेश है कारवां के स्टाफ राइटर प्रवीण दोंती की 2018 की गडकरी की प्रोफाइल “नितिन गडकरी : संघ का दुलारा” का अंश. जिसमें बतौर बीजेपी अध्यक्ष गडकरी कार्यकाल का ब्यौरा है.

सन 2000 में संघ के पहले गैर-ब्राह्मण सरसंघचालक राजेन्द्र सिंह ने संगठन का नेतृत्व के एस सुदर्शन को सौंपा. हालांकि वाजपेयी खुद भी संघ की पैदाइश थे, गठबंधन सरकार के चलते उनके द्वारा उठाए गए कुछ कदम संघ के गले नहीं उतरे. सुदर्शन के नेतृत्व वाले संघ में, आलोचना अपने शिखर पर पहुंच गई और संघ ने बीजेपी पर लगाम कसने की ठान ली. जब तक वाजपेयी और उनके डिप्टी आडवाणी सत्ता में रहे सुदर्शन कुछ नहीं कर पाए. लेकिन जब 2004 के आम चुनावों में बीजेपी की हार हुई तो उनके हाथ मौका लग गया.

2005 में एक टीवी साक्षत्कार के दौरान सुदर्शन ने कहा कि वाजपेयी और आडवाणी “को अब हट जाना चाहिए और उदित होते नए नेतृत्व को मार्गदर्शन देने का काम करना चाहिए.” आडवाणी द्वारा पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को एक धर्मनिरपेक्ष शख्सियत बताने के बाद तो संघ ने ऐसा बखेड़ा खड़ा किया कि उन्हें बीजेपी के नेतृत्व से ही हाथ धोना पड़ा. संघ के वफादार दब्बू राजनाथ सिंह ने आडवाणी की जगह ली और संघ अब पार्टी की छोटी से छोटी चीज पर भी नजर रखने का काम करने लगी. कई और बातों के अलावा, बीजेपी ने अपने संविधान में संशोधन किया ताकि संघ प्रचारकों को पार्टी के हर स्तर पर तैनात किया जा सके.

2009 के आम चुनावों से ठीक दो महीने पहले, सुदर्शन के स्थान पर मराठी ब्राह्मण मोहन भागवत ने सरसंघचालक की कमान संभाली. यह एक युगांतरकारी बदलाव था. हालांकि बीजेपी अपनी पहले की कार्यनीति पर कायम रही. आडवाणी अब भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे और संघ के पार्टी में दखल ने अंदरूनी झगड़ों को हवा देनी जारी रखी. पार्टी और इसकी जननी संस्था के बीच संबंध रूखे बने रहे.

चुनावों में बीजेपी 2004 की निराशाजनक संख्या से भी कम सीटें जीत कर ला सकी और सत्ता एक बार फिर कांग्रेस के हाथों में आ गई. पार्टी के अंदर संकट और गहरा गया. संघ की नजरों में बीजेपी अध्यक्ष के अलावा आडवाणी का शक्ति का वैकल्पिक केंद्र बने रहना, पार्टी के कामकाज में व्यवधान पहुंचा रहा था. उनके चेले अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू को, सामूहिक रूप से दिल्ली-4 कहे जाने वाले समस्या के हिस्से के रूप में देखा जाने लगा.

बीजेपी अभी नए नेतृत्व की पशोपश में ही लगी थी कि अगस्त 2009 में भागवत ने एक साक्षात्कार के दौरान पार्टी में अंदरूनी लड़ाई और गुटबाजी के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की. भागवत का साक्षात्कार लेने वाले अर्नब गोस्वामी ने बातचीत का रुख पलटते हुए मामले को पार्टी के अगले नेता के चुनाव की तरफ मोड़ दिया. गोस्वामी ने पूछा, “ऐसी अटकलें हैं कि बीजेपी के पास चार विकल्प हैं – अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज और नरेन्द्र मोदी. “क्या इनके अलावा कोई पांचवा, छठा या सातवां विकल्प भी है?” भागवत का जवाब था कि यह फैसला पार्टी पर निर्भर है. उन्होंने कहा, “बीजेपी को इन चारों से परे भी देखना चाहिए.”

नवंबर आते-आते गद्दी के लिए संघ की पसंद के रूप में गडकरी का नाम भी लिया जाने लगा. संघ के नेताओं के साथ ताल्लुकात रखने वाले और गडकरी के नागपुर के कारोबारी मित्र दिलीप देवधर ने मुझे बताया कि तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी “पहली पसंद थे लेकिन वह अपने राज्य में 2012 के विधान सभा चुनावों से पहले केंद्र में नहीं आना चाहते थे.” तब बात गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर और गडकरी तक आ पहुंची. ये दोनों मराठी ब्राह्मण हैं.

संघ के मुखपत्र, तरुण भारत के पूर्व संपादक सुधीर पाठक ने बताया कि वह आडवाणी ही थे जिन्होंने गडकरी का नाम सुझाया था और संघ ने खुशी से कबूल कर लिया. देवधर ने बताया, “आडवाणी को लगा गडकरी उनके नियंत्रण में रहेंगे क्योंकि उन्होंने ही उन्हें राज्य पार्टी का अध्यक्ष बनाया था.” दिसंबर 2009 में गडकरी 52 साल की उम्र में बीजेपी के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष बन गए.

कुछ सप्ताह बाद ही पार्टी ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के साथ मिलकर विभाजनकारी गठबंधन कर लिया. विधान सभा चुनावों ने जेएमएम, बीजेपी और कांग्रेस को ऐसे मुहाने पर छोड़ दिया था जहां तीनों ही मिलीजुली सरकार बनाने के लिए एक-दूसरे का साथ चाहते थे. जेएमएम और बीजेपी ने साथ आकर राज्य को अपने नियंत्रण में सुरक्षित कर लिया था. लेकिन कई बीजेपी नेताओं को लगा इससे पार्टी के नाम पर धब्बा लगा है क्योंकि जेएमएम के नेता शिबू शोरेन पर गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप थे. उस वक्त की मीडिया रिपोर्टों ने इस फैसले का ठीकरा पूरी तरह से गडकरी के सिर फोड़ दिया लेकिन यह उनके अकेले का किया-धरा नहीं था. जैसा कि बाद मेंकारवां ने छापा, संघ इस बात पर अड़ा हुआ था कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनने से हर हाल में रोकना है क्योंकि उसे डर था कि इससे ईसाई धर्मांतरण को बढ़ावा मिलेगा. गडकरी ने तो सिर्फ सांगठनिक आदेश का पालन किया था, बावजूद इसके कि पार्टी के अंदर इस फैसले का विरोध था.

पाठक ने बताया कि गडकरी को लेकर कुछ शंकाएं थीं, खासकर उनकी चुनावी काबलियत और विपक्षी पार्टियों के साथ उनकी करीबी को लेकर. “लेकिन मोहन जी ने उन्हें काम करते देखा है,” उन्होंने जोड़ा, “वह बहुत खुले और साफगो इंसान हैं. वह सब के लिए मौजूद रहते हैं. वह यहां नागपुर में पले बढ़े हैं और संघ ने उन्हें करीब से देखा है. उनका अपना अलग अंदाज है. भिड़ जाता है, आगे पीछे नहीं देखता.” संघ के वरिष्ठ एम.जी वैद्य ने तरुण भारत में लिखा, “गडकरी सही पसंद हैं. उनमें संगठन बनाने की क्षमता है.” (वैद्य खुद एक मराठी ब्राह्मण हैं और उन्होंने ही सुदर्शन की सरसंघचालकी में भागवत का नाम संघ के महासचिव के लिए सुझाया था. “तथ्य को स्वीकारने में संकोच है,” सुजाता आनंदन ने अपनी किताब में लिखा, “लेकिन संघ का शीर्षस्थ नेतृत्व, इस बात को लेकर परेशानी में है कि उत्तर भारतीयों और गैर-ब्राह्मणों द्वारा बीजेपी को हथिया लिया गया है.”

बीजेपी ने अपने नए अध्यक्ष का प्रोफाइल जारी किया जिसमे उनकी छवि एक संयत व्यक्ति के रूप में दिखाई गई और उनकी कई उपलब्धियां गिनवाई. उन्हें “एक स्पष्ट संप्रेषक” बताया गया, “जो लाखों युवाओं को मंत्रमुग्ध” कर सकता था. जबकि साथ यह भी जोड़ा गया कि “उनके किसी भाषण या अपील में भावनाएं भड़काने वाली राजनीति का एक शब्द भी इस्तेमाल नहीं होता.” गडकरी दिखने में एक छोटे शहर के व्यापारी जैसे लगते हैं. उन्होंने वही बेपरवाह और बेफिक्र अंदाज अपनाया, जिस अंदाज को आमूमन बीजेपी के अध्यक्षों से जोड़ कर देखा नहीं जाता. उनकी अध्यक्षता की घोषणा वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस में वह खुश दिखे. वह चारों तरफ घूम-घूम कर पार्टी बुजुर्गों के पैर छू रहे थे और उन्हें गले लगा रहे थे. उन्होंने बहुत छोटा, नामार्के का भाषण दिया, जिसने दिल्ली की जुबान हिंदी में उनकी वाक कला की तो पोल खोल कर रख दी. यह एक बुरा संकेत था. “मैंने पिछले पांच सालों में दिल्ली में रात नहीं गुजारी है,” खुद को बाहर से आया दिखाने के लिए उन्होंने कहा, “मैं सुबह आता था और शाम को लौट जाता था. मैं पहली बार आज यहां रात में रुकूंगा.” उन्होंने अपना भाषण पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ इस शपथ को लेकर समाप्त किया: “मैं वचन देता हूं कि मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जिससे आपका सिर शर्मिंदगी से नीचा हो.”

पाठक ने बताया, “पतलून-कमीज पहनने वाले, गडकरी पहले बीजेपी अध्यक्ष थे.” “एक आम आदमी यही परिधान पहनता है. वह उनके साथ घुलमिल जाना चाहते थे. पार्टी उस वक्त नव-अमीरों की तरफ मुखातिब हो रही थी.”

गडकरी का सांगठनिक अंदाज, बीजेपी के अधिवेशन के दौरान 2010 में इंदौर में नजर आया, जहां सभी नेताओं और प्रतिनिधियों को एक साथ टेंट में ठहराया गया था. पाठक ने इस बदलाव का महत्व समझाया, “जनसंघ के दिनों में नेता पार्टी दफ्तर या कार्यकर्ताओं के साथ रुकते थे,” उन्होंने कहा, “लेकिन इस पांच-सितारा संस्कृति ने उन्हें जनता से काट दिया था.” गडकरी ने एक गाने का दौर चलाने पर जोर दिया और जब उन्हें गाने के लिए कहा गया तो उन्होंने बड़े बेसुरे ढंग से एक पुराना हिंदी गाना सुनाया. उस वक्त आउटलुक ने लिखा था, “तब तक भारत में अधिकतर लोगों को नहीं पता था कि वह कौन हैं और कैसे दिखते हैं लेकिन उस गाने ने उनके लिए जादू का काम किया. वह छोटे शहर से आए हुए एक अहानिकारक साधारण इंसान जैसे दिखते थे, जिसमें कोई मिथ्याभिमान नहीं था.”

“आज पार्टी में समस्याएं, जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता की वजह से नहीं बल्कि उनकी वजह से है जिनको बहुत फायदा पहुंचा है,” गडकरी ने अपने भाषण में लोगों से कहा. उन्होंने चमचागिरी के खिलाफ भी बोला और कहा कि अगर वरिष्ठ नेता सम्मान हासिल करना चाहते हैं तो उन्हें यह सम्मान अर्जित करना होगा.

बाद में जब 2010 में, गडकरी ने नागपुर में अपने बड़े बेटे की शादी की तो उनके मिथ्याभिमानी न होने की छवि भी खंडित हो गई. बीजेपी और साथ ही संघ में भी लोगों की भवें तन गईं. शहर ने इस स्तर पर इतनी शानोशौकत पहले कभी नहीं देखी थी. शादी से पहले प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के हवाले से खबर छपी, “नागपुर के सभी 136 वार्डों के बीजेपी मुखियाओं को कहा गया है कि वे हर वार्ड में कम से कम 1000 कार्ड बांटें. अकेले नागपुर में ही बंटने के लिए 1.36 लाख कार्ड लोगों तक पहुंचाए गए. बचे हुए 76000 कार्ड नागपुर के बाहर के शहरों में भेजे गए.” (गडकरी ने अपने छोटे बेटे की भव्य शादी 2012 में करवाई. दिल्ली में आयोजित इस रिसेप्शन में कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी शिरकत की और फिर 2016 में भी उन्होंने अपनी बेटी की भव्य शादी की.)

अगस्त 2011 में, गडकरी ने एकत्रित उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेताओं को बताया कि वह संघ के सम्मानीय नेता, संजय जोशी को राज्य के विधान सभा चुनावों, जो अभी आठ महीने दूर थे, के लिए संयोजक नियुक्त कर रहे हैं. नरेन्द्र मोदी के कटु प्रतिद्वंद्वी, जोशी 2005 में निकाले जाने से पहले बीजेपी के प्रमुख सदस्य हुआ करते थे, जिन्हें अब पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य चुन लिया गया था. संघ की तरफ से गडकरी, दो नेताओं की आपसी रंजिश में गहरे तक उतर चुके थे. कथित तौर पर गडकरी ने, इस बात की जरूरत महसूस नहीं की कि मोदी को उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिए उतरना चाहिए. यह सार्वभौमिक रूप से प्रचलित फैसला नहीं था. बहुजन समाज पार्टी के व्यापक रूप से भ्रष्ट समझे जाने वाले चार नेताओं को पार्टी में शामिल किया जाना भी आम फैसला नहीं था.

मार्च 2012, में यह मनमुटाव और गहरा गया जब गडकरी ने बीजेपी के वरिष्ठ नेता एस.एस. अहलुवालिया की जगह, खाली राज्यसभा सीट के लिए लंदनवासी कारोबारी, अंशुमन मिश्रा के नाम की पेशकश की. मिश्रा, गडकरी के अभिन्न मित्रों में से थे जो गडकरी की अध्यक्षता के दौरान पार्टी के वास्तविक खजांची का काम करते रहे थे. कई भाजपाइयों ने इस कदम का विरोध किया और अंत में पार्टी ने चुनावों में कथित खरीदारी की कोशिशों के चलते वोटिंग रद्द होने के बाद, अहलुवालिया को ही नामांकित किया. इसके बाद, आहत मिश्रा ने बीजेपी नेताओं पर खूब निशाना साधा. उनके बीच-बचाव में गडकरी को बीच में कूदना पड़ा और आखिरकार मिश्रा को माफी मांगनी पड़ी. उन्हें इस शर्मनाक असफलता की भारी कीमत भी चुकानी पड़ी. “अरुण जेटली और अन्य वरिष्ठ नेता इस बात से कतई खुश नहीं थे कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनकी राय नहीं ली जाती,” गडकरी के एक साथी ने मुझे बताया. “वहीं से गडकरी का पतन होना शुरू हो गया.”

उत्तर प्रदेश चुनाव अप्रैल-मई 2012 में संपन्न हुए और बीजेपी को इसमें करारी हार का सामना करना पड़ा. पार्टी के अंदर गडकरी की साख और गिर गई. मई के अंत में मोदी ने धमकी दी कि यदि संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से नहीं हटाया गया तो वे मुंबई में होने वाली बीजेपी की राष्ट्रीय बैठक का बहिष्कार करेंगे. उस वक्त पत्रकार शीला भट्ट ने, इस टकराव के जाति आयामों की तरफ इशारा किया. “मोदी को इस मराठी ब्राह्मण जोशी में हमेशा एक षडयंत्रकारी नजर आता था और जोशी, मोदी को विशुद्ध तानाशाह मानते थे, एक ऐसा शख्स जो एक लोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी को चलाने के नाकाबिल है,” उन्होंने लिखा. “जोशी और गडकरी नागपुर से आते हैं और दोनों ब्राह्मण हैं. जैसाकि अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार पूर्व मंत्री हरेन पंडया का इस्तेमाल मोदी के खिलाफ किया था. मोदी, गडकरी द्वारा इस्तेमाल में लाए जा रहे जोशी को उसी भूमिका में देखते हैं. ओबीसी मोदी, वाजपेयी-सरीखी ब्राह्मणवादी खूबियों वाले जोशी और यहां तक कि संघ नेतृत्व से भी संघर्ष कर रहे हैं”

गडकरी को घुटने टेकने पड़े और जोशी ने इस्तीफा दे दिया. द टेलीग्राफ के मुताबिक, “गडकरी को मजबूर करके और इसके निहितार्थ संघ को अपने साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए मनवाकर, मोदी ने न केवल पार्टी के मुख्यमंत्रियों के बीच अपनी महत्ता साबित कर दी थी, बल्कि खुद के लिए ऊंचे पायदान पर अपनी जगह भी सुरक्षित कर ली थी.”