खाद्य सुरक्षा और आधार की अनिवार्यता पर ओडिशा से कांग्रेस पार्टी के एकमात्र सांसद से बातचीत

सौजन्य : सप्तगिरी उलाका

इस बार संसदीय चुनावों में ओडिशा में बीजू जनता दल ने 12, बीजेपी ने 8 और कांग्रेस ने मात्र 1 सीट पर जीत दर्ज की. ओडिशा की कोरापुट सीट से चुनाव जीतकर संसद पहुंचने वाले सप्तागिरी उलाका कांग्रेस के एकमात्र सांसद हैं. यह सीट आदिवासी बहुल है जो कालाहांखडी-बालंगीर-कोरापुट क्षेत्र में आती है. इस क्षेत्र की 70 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है. इसलिए यहां खाद्य सुरक्षा, शिक्षा और विकास जैसे मुद्दे बेहद जरूरी हो जाते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता अबिनाश दास चौधरी और श्वेता दास ने उलाका से उपरोक्त विषयों के साथ आधार की अनिवार्यता और भूख से होने वाली मौतों पर बात की.

अबिनाश दास चौधरी और श्वेता दास- कोरापुट जिला आजादी के बाद से ही कांग्रेस का गढ़ रहा है लेकिन पिछले 10 सालों से यहां बीजेडी का वर्चस्व रहा. इस बार आपने पूर्व सांसद की पत्नी और बीजेडी नेता कौशल्या हिकाका और बीजेपी के जयराम पंगी को हराकर चुनाव जीता है. आपके चुनाव अभियान का केंद्रीय मुद्दा क्या था?

सप्तगिरी उलाका- कोरापुट कांग्रेस का गढ़ इसलिए था क्योंकि यहां पार्टी के कई दिग्गज नेता हुए हैं. मेरे पिता रामचंद्र उलाका, नवरंगपुर विधानसभा सीट से 9 बार विधायक रहे हबीबउल्ला खान, जयपुर निर्वाचन क्षेत्र के 6 बार के विधायक रघुनाथ पटनायक और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ गिरिधर गमांग ने कोरापुट जिले में काम किया है.

2009 और 2014 में हम लोग इसलिए हारे थे क्योंकि टिकटों का वितरण ठीक से नहीं हुआ था. 2015 में डॉक्टर गमांग रे के बीजेपी में चले जाने के बाद यहां नेतृत्व खाली हो गया. मैंने निर्वाचन क्षेत्र में घूम-घूम कर कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया और उन्हें समझाया. मैं अमेरिका से इंफोसिस की नौकरी छोड़ कर कोरापुट आ गया. मेरी मां ने पार्टी से जुड़ने में मेरी मदद की. 2019 के चुनावों के लिए टिकट वितरण में जनता की आकांक्षा का ध्यान रखा गया. कार्यकर्ताओं की मांग थी कि मैं चुनाव लड़ूं और मुझे टिकट दिया गया. इसलिए हमारा संदेश जनता तक पहुंचा और जनता ने हमें वोट दिया. उन्होंने मुझ पर विश्वास किया न सिर्फ इसलिए कि मैं रामचंद्र उलाका का बेटा हूं बल्कि इसलिए कि मैं शिक्षित हूं और जनता की सेवा करने यहां आया हूं.

चुनाव प्रचार में हमने बहुत पैसा खर्च नहीं किया. हम लोगों से मिले और थोड़ा बहुत सोशल मीडिया में प्रचार किया. हमने समझाने की कोशिश की कि राफेल करार में भ्रष्टाचार जैसे राष्ट्रीय मुद्दे किस तरह जनता से सीधे जुड़ें हैं और यदि यह करार हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को दिया जाता तो रोजगार के अवसर अधिक मिलते. जनता ने पार्टी के “न्याय” कार्यक्रम का भी गर्मजोशी से स्वागत किया. राज्य में तेलुगु भाषी व्यापारी समुदाय है. उसके सामने हमने जीएसटी से पैदा होने वाली समस्याओं को रखा. नोटबंदी को भुला दिया गया था लेकिन हमने लोगों को इसकी याद दिलाई, इसलिए तमाम वर्गो ने हमें वोट दिया.

अबिनाश और श्वेता- आपने 3616 वोटों से चुनाव जीता जबकि कांग्रेस पार्टी राज्य की अन्य सभी सीटों पर पराजित हो गई. इस जीत के बाद आपकी प्राथमिकताएं क्या-क्या होंगी?

उलाका- मैं राज्य से पार्टी का एकमात्र सांसद हूं इसलिए बहुत से लोग सहानुभूति का भाव रखते हैं लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं. कुल मिलाकर हम 52 सांसद हैं जो बीजू जनता दल से बहुत बड़ी संख्या है जिसके मात्र 12 सांसद हैं. यह मजबूत विपक्ष बनने का बहुत अच्छा अवसर है, खासकर ऐसे समय में जब सरकार दूसरे पक्ष की आवाज सुनना नहीं चाहती. मैं महत्वपूर्ण मुद्दे संसद में उठाने का प्रयास करुंगा जैसे चिटफंड घोटाला, गुमुदमाला में हुई गोलाबारी (यह गोलीबारी 2016 में उड़ीसा के कंधमाल जिले में हुई थी.) पुलिस की गोलीबारी में 5 आदिवासी मारे गए थे. मैं सरकार पर जवाब देने का जोर डालूंगा.

अबिनाश और श्वेता- केबीके क्षेत्र (कालाहांखडी-बालंगीर-कोरापुट) में कोष की कमी है. 1995 के बाद केबीके क्षेत्र में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए केंद्र सरकार ने हर साल कोष उपलब्ध कराया है. 2015 में मोदी सरकार ने इस कोष पर पूरी तरह से रोक लगा दी. इसके अलावा वर्तमान सरकार ने पिछड़ा वर्ग अनुदान कोष भी रोक दिया है.

उलाका- मोदी सरकार केवल केबीके क्षेत्रों में ही ऐसा नहीं कर रही है. केंद्र सरकार ने केबीके की सहायता के लिए जारी पुरानी योजनाओं में से अधिकांश योजनाओं को रोक दिया है. राज्य सरकार को बीजू केबीके योजना के तहत अतिरिक्त कोष उपलब्ध कराना चाहिए. राज्य सरकार इतनी बड़ी आर्थिक परियोजनाओं को करने के लिए हमेशा सक्षम नहीं होती. जिस तरह से केंद्र सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार योजना गारंटी कानून को कमजोर किया है वह भी दिखाता है कि सरकार देश की ग्रामीण जनता के प्रति कितनी अनुदार है.

कोरापुट में सांसद निधि कोष का पूरी तरह से उपयोग नहीं किया गया. पूर्व सांसदों ने इस निधि का प्रयोग कुछ खास इलाकों में ही किया और ऐसे खंडो को, जहां कभी प्रगति नहीं हुई, छोड़ दिया गया. हमारे क्षेत्र के बीजेडी सांसदों को पता ही नहीं है कि वे इस कोष का बेहतर प्रयोग कैसे कर सकते हैं. जन स्वास्थ्य, स्वच्छता, पर्यटन, खेल अकादमी एवं अन्य अवसरों को नजरअंदाज कर दिया गया है.

अबिनाश और श्वेता- कालाहांडी जिले के लांजीगढ़ में खनन क्षेत्र से जुड़ी वेदांता रिफायनरी पर आदिवासियों के अधिकारों के उल्लंघन के कई आरोप लगे हैं. वेदांता को सुरक्षा देने वाले ओडिशा औद्योगिक सुरक्षा बल द्वारा दानी बत्रा की हत्या आदिवासी उत्पीड़न का एक भयानक उदाहरण है. खबरों के मुताबिक रिफाइनरी से निकलने वाला लाल मिट्टी का प्रदूषण आसपास के जल स्रोतों में घुल गया है. इससे कोरापुट में पर्यावरण असंतुलन पैदा हो सकता है. आपके निर्वाचन क्षेत्र के डोंगरिया कोंध लोग इन उल्लंघनों से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं. ऐसे मामलों पर आपका क्या कहना है?

उलाका- मैं उद्योग विरोधी नहीं हूं. मैं आदिवासी समुदाय से आता हूं इसलिए मैं मानता हूं कि हमारी संस्कृति और मूल्यों की रक्षा की जानी चाहिए, उनका सम्मान किया जाना चाहिए. लेकिन विकास भी जरूरी है. विकास की प्रक्रिया समावेशी होनी चाहिए जो आदिवासी जनजीवन का सम्मान करती हो. कल को यदि हमें पता चल जाए कि नवीन पटनायक के घर के नीचे खनिज का बड़ा भंडार है तो क्या आप यूं ही उन्हें विस्थापित कर देंगे? भारतीय संविधान जो अधिकार पटनायक को देता है वही अधिकार नियमगिरि के आदिवासियों को भी देता है. आदिवासियों का जीवन प्रकृति के साथ घुला-मिला होता है. उनके स्थान और उनकी संस्कृति का हर हाल में सम्मान किया जाना चाहिए.

फिलहाल राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने औद्योगिक ताकतों से हाथ मिला लिया है ताकि वे इस प्रक्रिया को धता बता सकें. यदि वेदांता विस्तार करना चाहती है तो उसे उत्खनन लीज, पर्यावरण पर पड़ने वाले असर और पुनर्वास के संयंत्र जैसी आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन करना होगा. यह भी जरूरी है कि यह काम ग्राम सभाओं की सहमति से हो.

अबिनाश और श्वेता- 1980 के दशक में जहरीले एंथ्रेक्स से हुई मौतों और कोरापुट जिले के सिमलीगुड़ा खंड में बेघर वृद्ध महिला की मौत जैसे मामलों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में राज्य की विफलता प्रकट होती है. बीजेडी और कांग्रेस इस संकट के लिए एक दूसरे पर उंगली उठाती हैं जबकि सर्वोच्च अदालत ने अपने अंतरिम फैसले में कहा है कि इसकी जिम्मेदारी मुख्य सचिवों और राज्यों के प्रशासकों पर है. आपका इस बारे में क्या कहना है?

उलाका- हमें इस बात के लिए शर्म आनी चाहिए कि आज के समय में भूख से मौतें हो रही हैं. निश्चित तौर पर इसकी जिम्मेदारी कलेक्टरों और जिला प्रशासन पर है. साथ ही, राजनीतिक दलों के नेताओं को भी असफलता को स्वीकार कर ऐसी घटनाओं को दोबारा न होने देने के लिए अधिकारियों के साथ मिल कर काम करना चाहिए. ऐसे मामलों में दंभी हो कर जिम्मेदारी से बचने का कोई मतलब नहीं है. खाद्य सुरक्षा कानून के तहत खाद्य सामग्री में छूट प्राप्त करना जनता का अधिकार है लेकिन यहां भी कमजोरियां होती हैं. भूख से मौत से संबंधित कोई शिकायत मुझे नहीं मिली है लेकिन मैं एक निष्पक्ष मूल्यांकन करने का इच्छुक हूं. हमें कारणों की जांच करनी चाहिए- क्या कोई दलाल है जो आपूर्ति को बीच में गायब कर रहा है? या लोगों की पहुंच सामग्री तक नहीं हो पा रही है?

अबिनाश और श्वेता- राज्य और केंद्र सरकार ने बार-बार भूख से होने वाली मौतों से संबंधित मामलों को खारिज किया है. साक्ष्यों के बावजूद बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने दावा किया है कि भारत में भूख से कोई मौत नहीं हुई है. उन्होंने यह भी कहा है कि जो लोग यह मामला उठाते हैं वह देश को बदनाम कर रहे हैं. आप इस बारे में क्या कहते हैं?

उलाका- यह मामला उठाना राष्ट्र विरोधी नहीं है. मुझे यह लगता है कि कल्याणकारी योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने में भ्रष्टाचार होता है. उदाहरण के लिए गरीबी रेखा से नीचे वाले राशन कार्ड का इस्तेमाल वह लोग करते हैं जो इस सूची में नहीं आते. यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस पर ध्यान दें और जनता और उनको मिलने वाले लाभों के बीच सेतु की भूमिका निभाएं. सांसदों और विधायकों को जनता का सही प्रतिनिधि बनने के लिए उनसे जुड़े रहना चाहिए. यदि जनता की पहुंच सांसदों और विधायकों तक होगी तो यह शिकायत निवारण में आसान होगा.

अबिनाश और श्वेता- आधार को अनिवार्य किए जाने से खाद्य असुरक्षा बढ़ गई है. 2017-18 में भूख से जुड़ी मौतों के 42 मामले सामने आए थे जिनमें से 25 आधार से संबंधित थे. खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में आधार की भूमिका के बारे में आपके क्या विचार हैं?

उलाका- मैं कांग्रेस की ओर से यहां कुछ नहीं कह सकता लेकिन मैं एक इंजीनियर हूं और मुझे तकनीक पर विश्वास है. मैं आधार के खिलाफ पूरी तरह से नहीं हूं लेकिन सार्वजनिक वितरण व्यवस्था में यह अनिवार्य नहीं होना चाहिए. मैंने देखा है कि बहुत से पिछड़े गांव में लोगों को आधार कार्ड प्राप्त हुए हैं और इसमें प्रशासन की अच्छी भूमिका रही है.

मेरा विश्वास है कि आधार से जुड़े बहुत से मामले हैं. इनके समाधान के लिए प्रभावकारी प्रावधान होने चाहिए. हमें इन मामलों पर विचार करना चाहिए तब जाकर जनता तकनीक को स्वीकार करेगी और वह तकनीक को विकास के लिए अवरोध नहीं समझेगी. लेकिन यदि उनके पास आधार है तो उन्हें सुविधाएं हासिल करने के लिए आधार कार्ड को जोड़ने में सक्षम बनाया जाना चाहिए.

अबिनाश और श्वेता- मोदी ने कहा है कि आधार से बड़ी बचत हुई है और तंत्र में सुधार आया है. आधार के बारे में आपके क्या विचार हैं?

उलाका- निश्चित तौर पर ऐसा हुआ है. आधार कांग्रेस की देन है. कांग्रेस सदस्य नंदन नीलेकणि ने इसे लागू करने में भूमिका निभाई है. लेकिन देश के पैमाने पर हमें आधारभूत संरचना का विकास करना होगा और जनता को समझते हुए इस अवधारणा को स्थिर बनाने के लिए समय देना होगा. हमें जल्दबाजी में यह नहीं कहना चाहिए कि “आधार नहीं, तो चावल नहीं”. हमें सरकार के साथ काम करना होगा ताकि लोग रह न जाएं. टेलीफोन या खाद्य छूट लेने के लिए आधार को जरूरी बनाना गरीबों के प्रति राज्य के घमंड को दर्शाता है.

अबिनाश और श्वेता- राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने बेअसर आंगनवाड़ी के लिए एक दूसरे पर दोषारोपण किया है. इसके अलावा मिड डे मील की खराब गुणवत्ता और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और हेल्परों की काम की हालत खराब है. इस पर आपके विचार क्या हैं?

उलाका- मिड डे मील को लेकर शिकायतें हैं लेकिन समस्या के बावजूद ऐसे कई केंद्र हैं जिन्होंने अच्छा काम किया है. हमें संयंत्र की कड़ी समीक्षा करनी चाहिए. समस्या यह है कि राज्य और केंद्र सरकार आपस में बात नहीं करते और अधिकारी अपने ही तरीके से काम करते हैं. मान लीजिए यदि मैं इसे हल करना चाहता हूं तो सबसे पहले मैं पूछंगा कि केंद्र और राज्य सरकार से कितना पैसा आया. फिर मैं इस पैसे के इस्तेमाल की जांच करूंगा. अपनी चर्चा को मैं प्रकाशित करूंगा ताकि पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके और इस बात का रिकॉर्ड रखा जा सके.

हम मानते हैं कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और हेल्परों को राज्य सरकार का स्थाई कर्मचारी माना जाना चाहिए और उनकी तनख्वाह बढ़ानी चाहिए. कर्मचारियों को ठेके पर रखने की व्यवस्था का अंत होना चाहिए. उनके पास, विधवाओं के लिए 2000 रुपए और अन्य के लिए 1500 रुपए की पेंशन जैसे सुरक्षा प्रावधान होने चाहिए.

अबिनाश और श्वेता- अप्रैल 2018 में कांग्रेस के मंत्री श्रीकांत जेना ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को पत्र लिखकर मांग की थी कि राज्य में मुख्यमंत्री और दो उपमुख्यमंत्री के पद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय के विधायकों को दिए जाने चाहिए. उनका अनुमान था कि राज्य की 92 प्रतिशत जनता इन्हीं समुदाय से आती है. इसके बाद उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधि के लिए पार्टी से निकाल दिया गया. क्या आपको लगता है कि कांग्रेस सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में अफल रही है?

उलाका- कांग्रेस पार्टी का यह मूल्यांकन सही नहीं है. मेरे पिता जेबी पटनायक कई बार कैबिनेट में रहे. डॉक्टर गिरिधर गमांग उड़ीसा के मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष एंव केंद्रीय मंत्री रहे. हेमानंद बिस्वाल भी मुख्यमंत्री रहे. यह सभी आदिवासी थे. आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि प्रदीप मांझी पार्टी में शक्तिशाली आदिवासी नेता हैं. वे पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं.

ऐसा नहीं है कि कायस्थ जाति के पटनायक ही हमेशा सत्ता में रहे हैं. यह सच है कि जेबी पटनायक सबसे लंबे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री रहे लेकिन ये नेता भी शक्तिशाली थे. कांग्रेस पार्टी में हमेशा ही जमीन से जुड़े नेता रहे हैं और इसके आदिवासी नेताओं का जुड़ाव जनता से बना रहा है. लेकिन हम आदिवासियों को मजबूत नेताओं की दरकार है. हमें पार्टी और सरकार में अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करनी चाहिए.

जेना जो मामला उठा रहे थे वह यह था कि दो पटनायकों ने राज्य पर शासन किया है इसलिए गैर पटनायक को मुख्यमंत्री बनाना चाहिए. हमारी पार्टी का मानना था कि निर्वाचित विधायक जिस नेता को चुनेंगे वह मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार होगा. हम चुनाव परिणाम से पहले उम्मीदवार घोषित नहीं करना चाहते थे. इसका यह मतलब नहीं है कि हाशिए के समुदाय का कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री नहीं बन सकता या किसी महिला के मुख्यमंत्री बनने का चांस नहीं है.

अबिनाश और श्वेता- इस साल के चुनावों से पहले उड़ीसा महिला शाखा की अध्यक्ष सुमित्रा जेना ने इस्तीफा दे दिया था. 2 महिला उम्मीदवारों को टिकट न दिए जाने का विरोध करने पर उन पर कुछ उपद्रवियों ने हमला किया था.

उलाका- श्रीकांत जेना पर अनुशासनात्मक कार्रवाई और सुमित्रा जेना का इस्तीफा देना, दोनों अलग-अलग मामले हैं और इससे पार्टी के कामकाज के तरीके पर उंगली नहीं उठाई जा सकती. सुमित्रा जेना एक निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहती थीं लेकिन जीत की संभावना को लेकर विवाद था. उन्होंने अपनी मर्जी से इस्तीफा दिया था. हमारी पार्टी में कई महिला नेता हैं. उड़ीसा की एक मात्र महिला मुख्यमंत्री हमारी पार्टी से ही थीं.

अबिनाश और श्वेता- क्या आपको लगता है कि वंशवाद के चलते उड़ीसा में राजनीतिक सत्ता कुछ लोगों तक सीमित हो गई है. आपका राजनीति में आना भी आपके पिता के कारण ही है.

उलाका- जो सवाल आप पूछ रहे हैं उसके दो पक्ष हैं. डायनेस्टी (वंशवाद या परिवारवाद) और लीगेसी (विरासत). परिवारवाद तब माना जाएगा जब आप किसी के बेटा या बेटी होने के कारण कोई महत्वपूर्ण पद हासिल करते हैं जबकि आप इसके योग्य नहीं होते. मेरे मामले में ऐसा है कि मैंने चुनाव जीता है. तो यह परिवारवाद कैसे हुआ? एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जनता ने मुझे चुना है. हां यह सही है कि मेरे जैसे लोगों के लिए टिकट मिलना आसान होता है लेकिन फिर भी पिछले चुनाव में मुझे टिकट नहीं मिला था.

जैसे डॉक्टर की संतान डॉक्टर बन सकती है उसी तरह एक नेता की संतान भी नेता बन सकती है. हम लोगों को ऐसा माहौल मिलता है जिसमें अपने माता- पिता के साथ काम करते हुए हम उस काम के महत्व को समझते हैं और इसे महत्व देते हैं. एक तरह से यह मेरी लीगेसी है जिसे मैं आगे ले जा रहा हूं. यह मेरे पिता की लीगेसी है. मैंने अपने पिता से समावेशी राजनीति का पाठ सीखा है. मेरे पिता एक पार्टी, एक पद पर विश्वास करते थे और इसीलिए अपने पिता की मृत्यु के बाद ही मैंने राजनीति में प्रवेश किया.

अबिनाश और श्वेता- उड़ीसा सहित देशभर में कांग्रेस ने बहुत खराब प्रदर्शन किया. 2014 में उड़ीसा में पार्टी का मत प्रतिशत 26.38 प्रतिशत था जो अब 13.67 प्रतिशत रह गया है. आप इस बार के चुनावों के परिणामों को कैसे देखते हैं? इस स्थिति में आप कैसे सुधार ला सकते है?

उलाका- यह कोई उचित मूल्यांकन नहीं है. कांग्रेस पार्टी अभी जिंदा है. क्या बता सकते हैं कि मैं कांग्रेस पार्टी के प्रति क्यों आकर्षित हूं? क्योंकि बीजेपी का संदेश और उसका प्रचार इस देश के लिए सही नहीं है. कांग्रेस के खिलाफ 2014 में व्यापक दुष्प्रचार किया गया था और हम हार गए थे. ईमानदारी से कहूं तो 2019 में हमारे पास बीजेपी के बराबर संसाधन नहीं थे.

उड़ीसा में केवल 21 संसदीय सीटें हैं लेकिन यहां चार चरणों में मतदान कराए गए. यदि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में एक ही दिन में चुनाव हो सकता है तो उड़ीसा में क्यों नहीं? यह सिर्फ उड़ीसा में मोदी को चुनाव प्रचार का मौका देने के लिए किया गया था कि वे प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में खुद प्रचार कर सकें. बीजेपी ने बड़ी रैलियां की, खासकर मोदी ने. उनके पास जितना धन है उसका मुकाबला करना असंभव है. यदि चुनाव एक चरण में होता तो हम कुछ कर सकते थे. इसके अलावा जो लोग बीजेपी को हराना चाहते थे उन लोगों ने बीजेडी को वोट दिया. इससे कांग्रेस को नुकसान हुआ और उसका मत प्रतिशत नीचे आ गया.

मैं राष्ट्रीय स्थिति पर ज्यादा टिप्पणी नहीं करूंगा. मैं बस उड़ीसा पर अपनी बात रखना चाहता हूं. हम मानते हैं कि हमने कुछ गड़बड़ी की है. पार्टी के भीतर टिकट वितरण को लेकर समस्या थी. जब किसी उम्मीदवार को यह पता नहीं होता कि वह चुनाव लड़ने वाला है या नहीं तो ऐसे में लोगों से उसके जुड़ने पर असर पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप उचित प्रचार नहीं हो पाता.

(कारवां अंग्रेजी में प्रकाशित इस साक्षत्कार को संपादित और संशोधित किया गया है.)