"सवाल करोगे तो देशद्रोही कहे जाओगे," भीमा कोरेगांव मामले पर बोले मानवाधिकार कार्यकर्ता स्टैन स्वामी

ग्लैडसन डुंगडुंग
05 September, 2018

28 अगस्त को पुणे पुलिस ने देश भर के 9 प्रतिष्ठित मानवाधिकार कार्यकर्ता और समाजसेवियों के घर पर छापेमारी की. ट्रेड यूनियन नेता और वकील सुधा भारद्वाज, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता वेरनॉन गोंजाल्विस और अरुण फरेरा, वकील सुसन अब्राहम और माओवादी विचारक और लेखक वरवरा राव, लेखक और प्रोफेसर आनंद तेलतुमडे, पत्रकार क्रांति टेकुला और कैथलिक पादरी स्टैन स्वामी के घर पुलिस ने छापेमारी की. इनमें से पांच लोगों को उसी दिन गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, जैसे सख्त कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. इस कानून में जमानत की मनाही है. फिलहाल, सर्वोच्च अदालत के दखल के बाद गिरफ्तार लोगों को नजरबंद रखा गया है.

31 अगस्त को महाराष्ट्र के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक परमबीर सिंह ने प्रेसवार्ता कर इन लोगों के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई का ब्यौरा दिया. परमबीर सिंह ने बताया कि 6जून को जिन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था उनके पास से बरामद सामग्री में हजारों की संख्या में पासवर्ड सुरक्षित संदेश और साहित्य मिला है जिनके आधार पर 28अगस्त की गिरफ्तारियां की गई हैं. सिंह ने यह दावा भी किया कि गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ता प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के खुले सदस्य हैं, इन लोगों ने सरकार के तख्तापलट की साजिश की, प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रची, और पुणे के भीमा कोरेगांव नगर में जनवरी में हुई हिंसा के लिए लोगों को भड़काया.

इस साल 8 जनवरी के दिन पुणे के एक व्यवसायी तुषार दामगुडे की एफआईआर के आधार पर ये छापेमारी और गिरफ्तारियां की गईं. 1 जनवरी को पुणे की रहनेवाली अनीता सांवले ने एक एफआईआर कर हिंदुत्ववादी नेता मिलंद एकबोटे और संभाजी भिंडे को हिंसा का जिम्मेदार बताया था. अपनी प्रेसवार्ता में परमबीर सिंह ने 1 जनवरी की एफआईआर से संबंधित किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया.

हालांकि स्टैन स्वामी को गिरफ्तार नहीं किया गया है लेकिन सिंह का कहना था कि जिनके यहां भी छापेमारी की गई है वे लोग संदिग्ध हैं और उन पर नजर रखी जा रही है और जांच की जा रही है. 81 वर्षीय स्वामी झारखण्ड के रांची शहर में बगईचा परिसर में एक कमरे के मकान में रहते हैं. यह एक सामाजिक शोध और प्रशिक्षण केन्द्र है जिसकी स्थापना 2006 में हुई थी. स्‍वामी निरंतर बगईचा के काम के बारे में झारखंड के आदिवासी और ग्रामीण समुदायों को जानकारी देते हैं. एक फोन साक्षात्कार में पत्रकार चित्रांगदा चौधरी ने पुलिस कार्रवाई और पिछले कई दशकों से झारखण्ड के आदिवासी क्षेत्रों में उनके कामकाज के बारे में स्वामी से बातचीत की. स्वामी ने कहा कि, ‘‘हम लोग आदिवासी मामालों को लेकर सीधे अदालत के सामने सरकार का मुकाबला करते हैं.’ स्वामी कहते हैं, ‘‘हम सवाल पूछते हैं इसलिए सताए जा रहे हैं.‘‘

चित्रांगदा चौधरी : महाराष्ट्र पुलिस के एडीजी परमबीर सिंह ने अपनी प्रेसवार्ता में आपका नाम लिया और बरामद साम्रगी में मिले एक खत का हवाला दिया जिसे कथित तौर पर वकील सुधा भारद्वाज ने किसी माओवादी ‘कामरेड प्रकाश’ को लिखा था. सिंह का कहना है कि उस खत में सुधा भारद्वाज दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और मुम्बई के टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS) के छात्रों को प्रकाश के निर्देश पर सुदूर ग्रामीण इलाकों में भेजने के लिए आपसे पैसों की मांग कर रही थीं. लेकिन आपने इस संबंध में कोई आश्वासन नहीं दिया. (भारद्वाज ने ऐसे किसी भी पत्र के लिखे जाने से इनकार किया है). इस आरोप पर आपका क्या कहना है?

स्टैन स्वामी : मैं साफ तौर पर कहना चाहता हूं कि सुधा ने मुझसे कभी भी पैसों की मांग नहीं की और मैं इस बात से भी इनकार करता हूं कि मैंने कभी सुधा को पैसे दिए हैं. यह एकदम गलत आरोप है. हमेशा से ही मेरी प्राथमिक चिंता आदिवासी और दलितों के संवैधानिक अधिकारों को लेकर रही है. जब आप ऐसे मामले उठाते हैं तो आपको ऐसे आरोपों का समाना करना पड़ता है. झारखण्ड और आसपास के राज्यों में और देश भर में ऐसा माहौल है कि यदि कोई सवाल पूछता है, तथ्यों की पड़ताल करता है तो वह विकास विरोधी कहलाता है. अगर कोई सरकार का विरोधी है तो वह देशद्रोही है. आज इस समझदारी पर काम हो रहा है.

चित्रांगदा चौधरी : आप सभी लोगों पर पुलिस का बड़ा आरोप यह है कि आप लोग कानूनी रूप से स्थापित सरकार के खिलाफ काम कर रहे हैं.

स्टैन स्‍वामी: हम लोग जो काम करते हैं वह सरकार के कामकाज के खिलाफ है. ऐसे समाज में जहां पांच फीसदी लोगों के पास देश की अधिकांश संपदा है वहां हम लोग बराबरी की वकालत करते हैं. अगर सरकार के कामकाज से गैर बराबरी पैदा होती है तो हम लोग उसका विरोध करते हैं. हम लोग जादूगर नहीं हैं और न कोई शॉर्टकट लेते हैं. इस मामले में मैं बस अपने काम को स्पष्ट कर सकता हूं और पुलिस के मनगढ़ंत आरोपों को खारिज करता हूं.

चित्रांगदा चौधरी : छापेमारी की सुबह क्या हुआ था? पुलिस ने आपके खिलाफ मामले के बारे में आपको क्या बताया?

स्टैन स्वामी : सुबह तकरीबन छः बजे थे. मैं अभी सो कर उठा ही था कि बगईचा के मेरे कमरे में 25-30 लोगों ने दस्तक दी. उन लोगों ने कहा कि मेरे कमरे की तलाशी लेंगे. मैंने उनसे सर्च वॅारेण्ट दिखाने को कहा. उन लोगों ने मराठी में लिखा एक खत मुझे थमा दिया जो मेरी समझ के बाहर था. मैंने उनसे अंग्रेजी या हिन्दी में कुछ दिखाने को कहा लेकिन उनके पास कुछ नहीं था. मेरे कमरे में दाखिल हो कर उन लोगों ने मेरी चीजों की जांच की. वे लोग मेरा लैपटॅाप, मोबाइल फोन, टैबलेट, और इलयाराजा और ए.आर. रहमान के संगीत वाले मेरे कैसेट भी ले गए जिन्हे मैं सुबह-सुबह सुनता हूं. जब्त करने के बाद उन लोगों ने मराठी में लिखे पंचनामे में मुझे हस्ताक्षर करने को कहा लेकिन मैंने ऐसे किसी भी कागज पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया जिसे मैं नहीं समझ सकता. उस वक्त तक मेरे बहुत से साथी और दो वकील भी आ गए थे. पुलिस ने आश्वासन दिया कि मुझे हिन्दी अनुवाद दिया जाएगा जो मुझे कल मिला.

चित्रांगदा चौधरी : पुलिस ने आपको बताया कि आपके खिलाफ मामला क्या है?

स्टैन स्वामी: उन्होने सिर्फ यही बताया कि मेरा नाम भीमा कोरेगांव मामले से संबंधित एफआईआर में है. (स्वामी का नाम एफआईआर में नहीं है) इसके अलावा उन लोगों ने मुझे कुछ नहीं बताया. सर्च वॅारेण्ट मराठी भाषा में था जिस भाषा को मैं नहीं समझता. चीजों को ले जाने के अलावा उन लोगों ने कोई जांच नहीं की और न मुझसे पूछताछ की.

चित्रांगदा चौधरी : तब से लेकर अब तक क्या-क्या हुआ? क्या पुलिस ने आप पर पाबंदी लगाई है?

स्टैन स्वामी: मुझ पर पाबंदी तो नहीं है लकिन मेरी छवि को नुकसान पहुंचा है. स्थानीय मीडिया बहुत पूर्वाग्रही है और उसे खरीदा जा सकता है. यहां के कई अखबारों की सुर्खियों में था कि “स्टैन स्वामी पर प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश का आरोप’’, “स्टैन स्वामी के आवास और ऑफिस पर छापा’’. किसी को समझ नहीं आ रहा था कि मुझ पर आरोप क्या हैं. कुछ दोस्तों और शुभचिंतकों ने मुझे सलाह दी कि मैं बगईचा छोड़ कर कहीं और चला जाऊं. लेकिन मैंने दृढ़ता से इनकार कर दिया. मैंने सामान समेटा और एक जोड़ी कपड़े रख लिए और कह दिया कि मैं कहीं नहीं जाउॅंगा. अगर पुलिस आती है तो मैं गिरफ्तार होने और खुद को सही साबित करने के लिए तैयार हूं. इसलिए मैंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से अपील की है कि वह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियों की जांच करे और हम पर लगाए गए आरोपों का स्वतंत्र मूल्यांकन कर हम पर किए जा रहे शक को मिटाए.

चित्रांगदा चौधरी : जुलाई में भी झारखण्ड की खूंटी जिला पुलिस ने आप और 19 अन्य लोगों पर देशद्रोह और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया था. (भारतीय दण्ड संहिता की उन विशेष धाराओं के तहत जिनका संबंध असंतोष बढ़ाना, राज्य के खिलाफ जंग और साइबर अपराध से है)

स्टैन स्वामी : हां, सरकार के लिए पत्थलगड़ी में चल रहा आंदोलन अपराध है. और जो लोग आंदोलन का समर्थन करते हैं वे अपराधी हैं. (पत्थलगड़ी आंदोलन झारखण्ड और ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में स्वशासन की मांग करता है). मेरा मानना है कि संविधान को लागू करने में राज्य की विफलता के कारण आदिवासी ग्रामसभा और पत्थलगड़ी के माध्यम से स्वशासन का दावा कर रहे हैं. आदिवासियों के इस दावे का जवाब बंदूक और गोलियां नहीं हैं बल्कि वार्ता के जरिए उनकी शिकायतों को समझना है. मैंने फेसबुक में पत्थलगड़ी के बारे में एक पोस्ट लिखी और मुझ पर एफआईआर दर्ज कर दी गई. एफआईआर के जवाब में मैंने मैं देशद्रोही हूं लिखा. उस लेख में मैंने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि आदिवासियों का उत्पीड़न और उन पर होने वाला अत्याचार सहनशीलता की सीमा लांघ गया है. अब हम लोग इस मामले को खत्म करवाने के लिए झारखण्ड उच्च न्यायालय में अपील करने वाले हैं. इस मामले में केस बनाने के लिए पुलिस ने हम लोगों पर सूचना प्रोद्योगकि कानून की धारा 66ए लगाई है (जिसका संबंध इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आक्रामक संदेश भेजना है). इस धारा को सर्वोच्च अदालत ने पहले से ही खारिज कर दिया है. मैंने इस संबंध में अधिवक्ता प्रशांत भूषण से भी सलाह ली है. उनका कहना है कि इस एफआईआर के आधार पर पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर सकती.

चित्रांगदा चौधरी : आपने आदिवासी मामलों पर दशकों से झारखण्ड में काम किया है. इस संगठन की बुनियाद कैसे पड़ी?

स्टैन स्वामी : मैं तमिलनाडू के त्रिची से हूं. जब मैं कॉलेज में पढ़ रहा था तभी मैंने जान लिया था कि मुझे अपना जीवन जनता की सेवा में लगाना है. मैंने खुद से पूछा कि मेरी सबसे ज्यादा जरूरत कहां है और जान गया कि मैं मध्य भारत में काम करूंगा. यहां के आदिवासी खनिज से भरपूर जमीन पर रहते हैं. बाहर के लोग खनिज को निकाल कर अमीर हो रहे हैं जबकि आदिवासियों को कुछ नहीं मिल रहा. पादरी बनने के लिए मुझे लंबा प्रशिक्षण लेना पड़ा लेकिन यहां आकर काम करने की ख्वाहिश हमेशा मन में थी. 1971 में फिलीपींस से समाजशास्त्र में एमए की पढ़ाई पूरी कर लौटने पर मैंने अपने वरिष्ठों से आदिवासियों से संबंधित मामलों को समझने के लिए यहां आने की अनुमति मांगी. मैं दो साल तक पश्चिम सिंहभूम में रहा और वहां अर्थ-सामाजिक स्थिति पर शोध किया और जाना कि जब आदिवासी अपना माल बाजार ले कर जाते हैं तो वहां कैसे उनका भयानक शोषण होता है. उन दो सालों ने मेरी आंखें खोल दीं और मैंने आदिवासियों के समता, सामुदायिकता और मिलजुल कर निर्णय लेने जैसे मूल्यों को जाना. मैं बेंगलुरु की समाजिक संस्था लौट आया और 15 वर्षो तक यहां रहा. इन 15 में से दस साल मैं इस संस्था के निदेशक के पद पर रहा. वहां का कार्यकाल पूरा होने के बाद मैंने झारखण्ड लौटने का निर्णय किया ताकि जान सकूं कि क्‍या मेरा शोध और विशेषज्ञता आदिवासियों के काम आ सकती है. मैंने पश्चिम सिंहभूम के चायबासा में ग्रासरूट संगठनजोहर को फिर से शुरू करने में मदद की. वर्ष 2000 के आसपास जब नए राज्य के रूप में झारखण्ड का गठन हो रहा था तो हम में से कई लोगों ने नए राज्य की राजधानी रांची में बगईचा शुरू करने के बारे में सोचा. हमने सोचा कि यह आदिवासी युवकों का प्रशिक्षण केन्द्र होगा जो वंचित लोगों के अधिकारों के बारे में शोध और कार्य करेगा और उन्हें शिक्षित करेगा. प्रसिद्ध बुद्धिजीवी डॅा रामदयाल मुण्डे, सामाजिक कार्यकर्ता जेवियर डिआस, और मेरे पादरी मित्रों के साथ काम करते हुए 2006 में मैंने बगईचा की स्थापना की. तब से लेकर आज तक मैं यहीं हूं.

चित्रांगदा चौधरी : बगईचा के काम के चलते कई बार आपका सामना सरकार से हुआ है?

स्टैन स्वामी: हमारा सरकार से दो व्यापक विषयों पर मतभेद है. हम लोग संवैधानिक और कानूनी मामलों को उठाते हैं और आदिवासियों के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बारे में जागरुक करते हैं और इन फैसलों को लागू करवाने का प्रयास करते हैं. लेकिन सभी सरकारें अनुसूचित जनजातियों के कल्याण से जुड़ी संविधान की पांचवी अनुसूची का उल्लंघन करती हैं.

पेसा कानून (पंचायतों का अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार कानून, 1996) को पारित हुए 22 साल हो गए लेकिन सरकार ने अब तक इसके नियम नहीं बनाए हैं. (अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को पारंपरिक ग्रामसभा के जरिए स्वशासन का अधिकार देने के लिए पेसा कानून को पारित किया गया था).

वन अधिकार कानून ठीक से लागू नहीं हैं. वन अधिकार के 16 लाख से अधिक दावों को निरस्त कर दिया गया है और बहुत सीमित इलाकों में इन्हे स्वीकार किया गया है. खनिज बहुल इलाकों में आदिवासियों के अधिकारों को स्थापित करने वाले सर्वोच्च अदालत के निर्णयों की अवहेलना की जाती है. निजी कम्पनियां आदिवासी इलाकों से लोगों को बेदखल कर रही हैं और लोग प्रतिरोध कर रहे हैं. लेकिन राजनीतिक पार्टियां लोगों का साथ नहीं देतीं. ये दल कॉरपोरेट का साथ देते हैं जो चुनाव में इनकी मदद करते हैं. राज्य में अभी तक भुखमरी से मौतें हो रही हैं और मरने वालों में ज्यादातर आदिवासी और दलित हैं. हम लोग ये मामले उठाते हैं. इसके अलावा हम अदालतों में सरकार से लड़ते हैं. हमने इस मामले में शोध किया और मामले की तीव्र सुनवाई के लिए इस साल के शुरू में झारखण्ड उच्च न्यायालय में अपील की. अदालत में सरकार को जवाब देना है. मामला अटका पड़ा है और सरकार आधे-अधूरे तथ्‍य पेश कर रही है. माओवादियों के फर्जी आत्मसमर्पण के मामले को लेकर हम लोग राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग गए और सुरक्षाबल, माओवादियों और उनसे अलग हुए समूहों द्वारा एनकाउंटर के मामले को उठाया. हम लोग ऐसे मामलों में सवाल उठाते हैं इसलिए हमें परेशान किया जा रहा है.

चित्रांगदा चौधरी : पिछले कई सालों से इन इलाकों के आदिवासियों, उनके अधिकारों के लिए काम करने वाले लोगों के लिए घेराबंदी जैसे हालात हैं?

स्टैन स्वामी: जी हां, पुलिस की छापामारी पहली बार नहीं हुई है. तीन साल पहले सुबह के अखबारों में छपा था कि “स्टैन स्वामी माओवादियों को शरण देता है”. तब मैंने इस बारे में वक्तव्य जारी किया और कहा कि हम लोग एक पंजीकृत संस्था और जवाबदेह हैं. मैं एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से मिला और उनके जूनियर की शिकायत की जिसने मीडिया में हमारे बारे में ऐसा कहा था. पुलिस अधिकारी ने माना कि गलती हुई है. लेकिन जो नुकसान बगईचा को हुआ उस पर किसी की जवाबदेहिता नहीं बनी और न ही उस जूनियर अधिकारी के व्यवहार की पड़ताल की गई. पिछले साल गृह मंत्रालय ने कहा कि विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन (जो झारखण्ड के भूमि अधिकारा और विस्थापन विरोधी आंदोलनों का व्यापक गठबंधन है) माओवादियों का फ्रंट है. मैंने एक वक्तव्य जारी कर कहा कि यह व्यापक आधार वाला जन आंदोलन है और विरोध करना हमारा संवैधानिक अधिकार है. इस गठबंधन ने कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया लेकिन राज्य की हिंसा का शिकार जरूर हुआ है. फिर पिछले महीने हम 20 लोगों पर देशद्रोह का आरोप लगाकर एफआईआर दर्ज कर दी गई और अब ये छापेमारी.

चित्रांगदा चौधरी : जो आज हो रहा है उस में कोई नई बात देखते या अनुभव करते हैं?

स्टैन स्वामी : हालात बदतर हुए हैं. कांग्रेस के शासनकाल में भी आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल किया जाता था और मुझ जैसे लोगों पर मुकदमें लगाए जाते थे. लेकिन आज चीजें साफतौर पर अधिक आक्रामक हैं. बीजेपी को लग रहा है कि अगला चुनाव उसके लिए आसान नहीं होगा तो ये लोग बेचैन हो गए हैं और उन लोगों को, जो तथ्‍यों को सामने ला रहे हैं, जनता की सेवा कर रहे हैं, उन्हें संगठित कर रहे हैं, जैसे-तैसे रास्ते से हटाना चाहते हैं.


Chitrangada Choudhury is an independent journalist and researcher, working on issues of indigenous and rural communities, land and forest rights, and resource justice. She is on Twitter @ChitrangadaC