ईद-उल-फि़तर के दो दिन बाद की घटना है. हापुड़ के पिलखुआ निवासी मोहम्मद कासिम (50) के पास 18 जून को एक फोन आता है. उसके तुरंत बाद वे घर से निकल जाते हैं. सुबह दस साढ़े दस बजे के बीच की बात होगी. अपने बेटे महताब को वे कह कर जाते हैं कि वापसी में एक बकरा या भैंसा लेकर आएंगे. उन्होंने बेटे को फोन करने वाले का नाम तो नहीं बताया लेकिन इतना कहा कि सात किलोमीटर दूर बझेड़ा खुर्द गांव में मवेशियों की खरीद पर एक बढि़या सौदा पट गया है. महताब ने मान लिया कि फोन करने वाला पिता का कोई परिचित ही रहा होगा.
उस दिन शाम चार बजे के आसपास महताब बताते हैं कि उन्हें एक पड़ोसी का फोन आया. उसने बताया कि कासिम पिलखुआ कोतवाली में हैं. महताब कहता है, ''थाने गए, थाने में नहीं मिले. फिर अस्पताल गए, वहां पर उनकी लाश थी. शरीर पर निशान थे डंडे के, चक्कू के, दरांती के.''
कासिम कसाई का काम करते थे. बकरे और भैंसे का गोश्त बेचते थे. दिल्ली से पूरब की ओर कोई 70 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग 9 पर उनका घर पड़ता है. मैं 21 जून को वहां पहुंचा. वे पिलखुआ में एक दोमंजिला मकान के भीतर किराये के एक कमरे में परिवार के साथ रहते थे. बाहर दो बकरे बंधे हुए थे. छह बच्चों में महताब (20) सबसे बड़ा है. वह ठेले पर फल बेचता है.
कासिम के घर से निकलने के बाद क्या हुआ था, इस पर काफी जानकारी बाहर आ चुकी है. मवेशी खरीदने के लिए जब वह नियत जगह पर पहुंचा तो भीड़ ने उनके ऊपर हमला किया, बेतरह पीटा और जान से मार दिया. एक वीडियो काफी प्रसारित हुआ है जिसमें कासिम को बझेड़ा खुर्द गांव के एक सूखे खेत में पड़ा दिखाया गया है. उन्हें घेर कर कुछ लोग खड़े हैं जो पीट रहे हैं. बाद में मुझे गांव के लोगों से जानकारी मिली कि वे बझेड़ा खुर्द के राजपूत थे. वीडियो में सुना जा सकता है कि हमलावर कासिम को ''बहनचोद'' और ''सूअर'' कह रहे थे. कासिम दर्द से कराह रहे थे. वे नीमबेहोशी में थे और उनके बाहिनी एड़ी के पास का मांस उखड़ा हुआ था. फिर अचानक वे पलट जाते हैं. वहां खड़े लोगों को यह बात करते सुना जा सकता है कासिम को पीने के लिए पानी दिया जाए या नहीं, जिंदा छोड़ा जाए या नहीं. ऐसा लगता है कि वीडियो पुलिसवाले की मौजूदगी में शूट किया गया है. भीड़ में से एक आवाज़ पास में मौजूद किसी पुलिसवाले का जिक्र करते सुनी जा सकती है. आवाज़ आती है, ''पुलिसवाले को गाय मिली... ये पुलिसवाले खड़े हैं न.''
एक और व्यक्ति पर हमला हुआ था- मोहम्मद समीउद्दीन, जो पास के गांव मादापुर के रहने वाले हैं और कथित तौर पर कासिम की मदद को आए थे. उन्हें बुरी तरह पीटा गया. वे फिलहाल हापुड़ शहर के देवनंदिनी अस्पताल के आइसीयू में भर्ती हैं.
कासिम के परिवारवालों ने मुझे बताया कि राजपूतों को शक था कि वे गोकशी में शामिल हैं इसीलिए उनके ऊपर हमला हुआ. कासिम के छोटे भाई सलीम कहते हैं, ''हिंदुओं ने उन्हें पकड़ कर इस शक में मार डाला कि वे गोकशी की कोशिश कर रहे थे.'' परिवार के लोगों का कहना है कि इस आरोप में कुछ भी सच नहीं है. सलीम पूछते हैं, ''खेत में खून कहां दिख रहा है? जिस औज़ार से उन्होंने कथित रूप से गोकशी की वह कहां है? मेरे भाई को इसलिए मारा गया क्योंकि वे मुसलमान थे... और क्या वजह हो सकती है मारने की?"
मैंने पिलखुआ के 20 से ज्यादा बाशिंदों से बात की. इनमें वे भी थे जिनका कासिम के परिवार से कोई परिचय नहीं था. उन्होंने घटना का ब्यौरा बिल्कुल वैसे ही एक तरह से दिया जैसा उन्होंने सुन रखा था. उनके मुताबिक कासिम मवेशी खरीदने बझेड़ा गया था जहां हिंदुओं ने गोकशी के शक में उसे घेरकर पीटा और जान से मार डाला. इन सभी का कहना था कि जिस खेत में हमला हुआ वहां समीउद्दीन मौजूद थे और उन्होंने बीच-बचाव करने की कोशिश की. इन निवासियों ने कहा कि उन्हें इस घटना की सूचना मादापुर गांव के लोगों से मिली थी जहां का समीउद्दीन निवासी है. इनका मानना था कि यह घटना मुसलमानों के खिलाफ जानबूझ कर किया गया अपराध है और किसी बड़ी साजि़श का हिस्सा है. कासिम के साले मोहम्मद इरफ़ान ने कहा, ''ये सोचते हैं हकूमत हमारी है. योगी ने कह दिया गाय हमारी माता है, गाय को कोई न काटे, कोई न छेड़े, काटने वाले को उमर कैद. उन्होंने देख लिया कि अब इससे बढि़या कोई नीति नहीं है. मुसलमानों को मारो, काटो और गाय रख दो.''
हमलावर जहां के रहने वाले हैं, वहां बझेड़ा में कई लोगों ने मुझे बताया कि उन्होने सुन रखा था कि कासिम और समीउद्दीन मौका-ए-वारदात के करीब स्थित एक मंदिर के पीछे वाले खेत में गाय और बछड़ा काटने जा रहे थे. कई निवासियों ने बताया कि इस कथित योजना से राजपूत भड़क गए और उन्होंने हमला कर दिया जिससे एक की जान चली गई.
घटना के संबंध में दर्ज प्राथमिकी एक अलग ही कहानी कहती है- वैसे तो सारे बयानात गोकशी का जि़क्र करते हैं लेकिन एफआइआर का दावा है कि यह एक सड़क हादसा था. बझेड़ा गांव पिलखुआ कोतवाली के अंतर्गत आता है. वहां के पुलिसकर्मियों ने 25 अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ मामला दर्ज किया है. एफआइआर आइपीसी की धारा 147, 148, 307 और 302 के तहत दर्ज की गई है जिसमें क्रमश: दंगा करने, जानलेवा हथियार से दंगा करने, हत्या के प्रयास और हत्या के लिए दंड का प्रावधान है. पुलिस ने दो राजपूतों को गिरफ्तार किया है- युधिष्ठिर सिसोदिया और राकेश सिसोदिया. मैंने घटना की डायरी एंट्री देखी. डयरी एंट्री में पुलिस प्रक्रिया के अंतर्गत सबसे पहला रिकॉर्ड लिखा होता है जिस पर एफआइआर आधारित होती है. मामले से जुड़े कई पुलिस अधिकारियों से मैंने बात भी की. उससे यह साफ़ हो गया कि पुलिस इस तथ्य को छुपाने की कोशिश में लगी है कि कासिम और समीउद्दीन के ऊपर गोकशी में लिप्त होने के संदेह के आधार पर हमला किया गया था.
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बझेड़ा, मादापुर गांवों सहित पिलखुआ कस्बा 2012 तक प्रशासनिक रूप से गाजियाबाद जिले की हापुड तहसील के अंतर्गत आता था. इसके बाद हापुड़ को जिला बना दिया गया. यहां 2011 की जनगणना के मुताबिक तहसील की आबादी में हिंदू 68 फीसदी हैं और मुसलमान 31 फीसदी. पिलखुआ, बझेड़ा खुर्द और मादापुर धौलाना विधानसभा क्षेत्र में आते हैं जहां से विधायक बहुजन समाज पार्टी के नेता असलम चौधरी हैं. धौलाना का ज्यादातर हिस्सा गाजियाबाद जिले में पड़ता है. जिले की छह विधानसभाओं में यह इकलौती सीट है जिस पर 2017 के विधानसभा चुनाव मे बसपा की जीत हुई थी. बाकी पांच पर बीजेपी के प्रत्याशी जीते थे. चौधरी ने बीजेपी के रमेश चंद्र तोमर को हराया था जो धौलाना से चार बार के सांसद रहे. कासिम के पड़ोसी जलालुद्दीन के अनुसार तोमर की हार से बझेड़ा के राजपूत आक्रोशित थे. वे बोले, “इसके लिए वो मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं ”
पिलखुआ के लोगों ने हमले के पीछे की जो वजह बताई थी, बझेड़ा के लोगों ने उसका प्रतिवाद नहीं किया. कई ने एकदम सपाट जवाब मुझे दिया कि कथित गोहत्यारों को पीटने के लिए हमलावर एकत्रित हुए थे. मैं राकेश के घर गया, जिसे गिरफ्तार किया गया था. राकेश की बेटी जो बीसेक साल की रही होगी, उसने मुझे अपना नाम बताने से इनकार कर दिया. उसका दावा था कि उसके पिता जब मौके पर पहुंचे तब तक कुछ जवान लड़के कासिम को पीट चुके थे. उसने दावा किया कि तब तक समीउद्दीन वहां से निकल कर भाग चुका था.
राकेश के घर में मेरे रहते कई औरतें और बच्चे जुट गए. उनका कहना था कि वे मौके पर मौजूद नहीं थे. इनमें से किसी पर भी हत्या से कोई फ़र्क पड़ता नहीं दिखा: इनके मुताबिक हमलावरों ने कुछ भी गलत नहीं किया. राकेश की बेटी ने कहा, ''अच्छा खासा बैठ के गया गाड़ी में, इतना भी नहीं मारा कि मर जाएगा. इलाज के दौरान मरा है.''
वॉट्सएप पर प्रसारित हुए हमले से जुड़े एक और वीडियो में एक मुच्छड़ आदमी कासिम से उसका पता पूछता दिख रहा है. सलीम और इरफ़ान ने इस व्यक्ति की पहचान बझेड़ा के किरणपाल सिंह के रूप में की. मैं किरणपाल के घर भी गया. उसकी बेटी ललिता ने माना कि वीडियो में दिख रहा शख्स उसका पिता ही है लेकिन कहा कि वे कासिम से केवल उसका पता पूछ रहे थे. उसे पीटने में उनका कोई हाथ नहीं था. ललिता और दो अन्य महिलाओं ने यह भी माना कि गोकशी के संदेह के चलते ही बझेड़ा के राजपूतों ने उकसावे में दो मुसलमानों के ऊपर हमला किया.
किरणपाल और राकेश के परिवारों ने मुझे दैनिक अमर उजाला में 19 जून को छपी खबर की प्रति दिखाई. खबर के साथ एक गाय और एक बछड़े की तस्वीर है जिसके नीचे फोटो विवरण छपा है: ''घटनास्थल से बरामद गोवंश''. फोटो में दो पुलिसवाले भी नज़र आ रहे हैं. दिलचस्प यह है कि ख़बर में कहीं भी गाय या बछड़े का कोई जि़क्र नहीं है.
ललिता ने बताया कि पुलिस ने मौके से एक गाय और एक बछड़ा बरामद किया था जिन्हें बझेड़ा के ही एक बाशिंदे के घर पर रखा गया है. उसने इस व्यक्ति को अपने घर बुला लिया. उसने अपना नाम बताने से इनकार किया. कोई 40 साल के इस व्यक्ति ने मुझे बताया कि पुलिस घटना की रात ही मवेशियों को उसके पास से लेकर चली गई और उसके बाद से किसी ने भी उन्हें नहीं देखा है.
एफआइआर में उन दावों का कहीं ज़िक्र नहीं आता जिसका बयान मदापुर बछेरा और पिलखुवा के लोगो ने मुझे सुनाया, न ही विडियो में हो रही घटनाक्रम का कोई जिक्र है. पुलिस की जांच का भी यह हिस्सा नहीं बन पाया है. हमले से जुड़े जितने लोगों से भी मैं मिला, उनमें एक ने भी ऐसा नहीं कहा कि इसका सड़क हादसे से कोई लेना-देना था. इतना ही नहीं, इस मामले में अहम साक्ष्य या तो नष्ट कर दिए गए या फिर उन्हें हटा दिया गया जान पड़ता है.
इस दौरे पर मैंने घटना की डायरी एंट्री हासिल की. सभी पुलिस थानों में एक डायरी एंट्री करना अनिवार्य होता है जब किसी घटना से संबंधित पहली शिकायत या फोनकॉल प्राप्त की जाती है. इसी एंट्री के आधार पर पुलिस प्राथमिक जांच की शुरुआत करती है और तय करती है कि अपराध संज्ञेय है या नहीं. इस एंट्री में किसी सड़क हादसे का कोई जि़क्र नहीं है. ''घटना का कारण'' श्रेणी के अंतर्गत लिखा है: ''अज्ञात अभिगणों द्वारा एक राय होकर लाठी डंडों से लैस होकर वादी के भाई समीउद्दीन व उसके दोस्त कासिम के साथ मारपीट करना. जिससे वादी के भाई समीउद्दीन का गंभीर रूप से घायल होकर जाना तथा दोस्त कासिम का दौराने उपचार मौत हो जाना.''
एफआइआर में दर्ज विवरण, जिस पर समीउद्दीन के भाई यासीन के दस्तखत हैं, बिलकुल अलग है. इसमें यासीन का निम्न बयान दर्ज है: ''मेरे भाई समीउद्दीन, जब वे कासिम के साथ मादापुर से धौलाना वाया बझेड़ा खुर्द जा रहे थे, एक मोटरसाइकिल ने टक्कर मार दी. उन्होंने विरोध किया तो मोटरसाइकिल वाले ने 25-30 लोगों को बुला लिया... जिन्होंने इन्हें डंडे से पीटा.''
मुझे मिली जानकारी से यह विवरण मेल नहीं खाता है. यासीन से मेरी मुलाकात देवीनंदन अस्पताल में हुई जहा समीउद्दीन का इलाज चल रहा है. उन्होंने मुझे बताया कि एफआइआर उन्होंने नहीं लिखवाई और दस्तखत भी नहीं किया क्योंकि पड़ोस के गांव हिंडालपुर के एक राजपूत दिनेश परमार ने उसे ऐसा करने से मना कियया था और खुद एफआइआर लिखी थी, जो समीउद्दीन का जानने वाला है.
मैंने परमार से फोन पर बात की. उसने मुझे बताया कि सर्किल अफसर पवन कुमार ने खुद बोलकर उसे एफआइआर लिखने का दबाव बनाया. (सर्किल अफसर डीएसपी के समकक्ष होता है. अधिकतर सर्किल अफसर अपने प्रखण्ड में तीन थानों के प्रभारी होते हैं.) परमार ने कहा, ''मैंने उनसे कहा कि ये गलत है. मैंने उनसे पूछा कि आखिर वो- समीउद्दीन- मादापुर के जंगल से होकर गर्मी की दोपहर में धौलाना क्यों जाएगा. उन्होंने मुझसे कहा कि लिखे को लेकर चिंता न करे क्योंकि वैसे भी मामले की जांच उन्हें ही करनी है.''
परमार के मुताबिक समीउद्दीन अपने खेत में ज्वार लाने गया था- जहां बाद में हत्या हुई. पहले से कुछ गायें खेत में मौजूद थीं. वहीं समीउद्दीन की मुलाकात कासिम से हुई जो वहां से गुजर रहा था. दोनों बीड़ी पीने बैठ गए. परमार का कहना था कि हसन नाम का एक युवक समीउद्दीन के साथ था.
परमार ने मुझे बताया, ''इन्हें कुछ लोगों ने देख लिया और इस बात को फैला दिया कि वे वहां गाय काटने आए हैं.'' परमार के मुताबिक हसन वहां से निकल लिया और हिंडालपुर पहुंचा जहां उसने परमार के घर में शरण ली. उसने बताया कि हसन ने खुद उसे यह घटनाक्रम बताया था. मैंने हसन से फोन पर बात की. उसने माना कि वह समीउद्दीन के साथ हमले के दिन मौजूद था. इसके आगे बताने से उसने मना कर दिया.
बझेड़ा में मैं उस खेत पर गया जहां हमलावरों ने तीनों व्यक्तियों को देखा था. यह जुती हुई ज़मीन है कोई 600 वर्गगज की जिस पर कोई फसल नहीं है. अगल-बगल दसियों खाली और फसली खेत हैं. कम से कम एक किलोमीटर के दायरे में कोई मकान नहीं है. उस जगह से मंदिर आधा किलोमीटर से ज्यादा दूर है. वीडियो में जिस जगह कासिम को गिरते हुए दिखाया गया है वह भी कम से कम एक किलोमीटर इस खेत से दूर है जिसका मतलब यह बनता है कि या तो भीड़ ने उसको दौड़ाया था या यहां उठाकर ले आई थी. यह खेत भी खुला और सपाट था. यह कल्पना करना ही अव्यावहारिक है कि गाय काटने के लिए कोई इस खेत को चुनेगा क्योंकि वहां खड़ा कोई भी व्यक्ति मीलों दूर से नज़र आता है. मैंने जब बझेड़ा गांव के लोगों के सामने यह बात रखी, बहुतों ने दावा किया कि हमले के दिन खेत ज्वार की फसल खड़ी थी. ज्वार की फसल ऊंची होती है उनका दावा था कि पुलिस ने उसी रात खेत को सपाट कर दिया था.
बझेड़ा में कोई भी यह नहीं समझा सका कि कासिम उस जगह पर कैसे पहुंचा. पिलखुआ में हालांकि कुछ लोगों का कहना था कि वे मानते हैं कि कासिम को एक बाइक से बांधकर घसीटते हुए राजपूत खेतों तक ले गए.
पुलिस ने इन विवरणों की जांच नहीं की है. मैं जिस दिन बझेड़ा पहुंचा, मामले के जांच अधिकारी और एसएचओ अश्विनी कुमार, सर्किल अफसर पवन कुमार और एसडीओ हनुमान प्रसाद मौर्य बझेड़ा के एक स्कूल में गांववालों के साथ बैठक कर रहे थे. कुमार ने बताया कि यह ''शांति सभा'' थी. इसमें गए सभी लोग हिंदू थे और पिलखुआ का कोई निवासी मौजूद नहीं था. कुमार ने मुझे मीटिंग को कवर करने से मना किया और वहां से दूर रहने को कहा. मैंने जब जाने से इनकार किया तो दो सुरक्षाकर्मी मुझे लेकर बाहर गए.
बैठक के बाद मैंने कुमार से पूछा कि वहां क्या चर्चा हुई. उन्होंने बताया कि बझेड़ा के कुछ लोग गिरफ्तारी के डर से गांव छोड़कर भाग गए हैं. कुमार बोले, ''ज्यादा डरने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि हम किसी भी निर्दोष को नहीं छुएंगे.'' मैंने कुमार से पूछा कि कासिम को गोहत्या के संदेह में मारा गया या फिर एफआइआर के मुताबिक सड़क हादसे में उसकी मौत हुई. कुमार ने जवाब दिया, ''हमने कोई गाय बरामद नहीं की.'' इसके आगे उन्होंने नहीं बताया. मैंने जब अमर उजाला में छपी तस्वीर के बारे में पूछा तो वे बोले, ''मौके पर जाइए, आपको हर जगह गाय दिखाई देगी. कोई अगर फोटो खींच लेता है तो हम क्या कह सकते हैं?"
मैंने कुमार से पूछा कि क्या वे घटना को नफ़रत के कारण किए गए अपराध की श्रेणी में रखते हैं तो उनका जवाब था- ''नहीं''.
कासिम के भाई सलीम ने मुझे बताया कि पुलिस ने कासिम का मोबाइल फोन उसके परिवार को नहीं लौटाया है. जांच अधिकारियों ने हालांकि हमले के चलते खून में सनी बनियान और पैंट परिवार को दे दिए. सलीम के मुताबिक पुलिस का दावा था कि उसे कोई मोबाइल फोन नहीं मिला.
इस बारे में मेरे सवालों पर पुलिसवालों के जवाब विरोधाभासी निकले- पवन कुमार ने मुझे बताया कि मोबाइल फोन परिवार को लौटा दिया गया है जबकि जांच अधिकारी अश्विनी कुमार ने कासिम के पास से बरामद चीज़ों और मौका-ए-वारदात का विवरण देने से इनकार कर दिया. उन्होंने बस इतना कहा कि सभी बरामद वस्तुएं जांच का हिस्सा हैं.
पवन कुमार ने मुझे यह भी बताया कि बरामद कपड़ों को अब भी परीक्षण के लिए फॉरेन्सिक विभाग को भेजा जाना बाकी है. वे यह स्पष्ट नहीं कर सके कि कौन से कपड़े उन्होंने बरामद किए हैं और फॉरेन्सिक के पास क्या भेजा जाना है. कासिम के बेटे महताब ने कहा कि परिवार ने पुलिस के लौटाए कपड़े लाश के साथ ही दफ़न कर दिए हैं- इसका मतलब यह है कि साक्ष्य नष्ट हो चुके हैं.
जांच का एक और चिंताजनक आयाम यह है कि कासिम के परिवार की ओर से कोई एफआइआर नहीं ली गई. दलील यह थी कि एक ही मामले में दो एफआइआर नहीं हो सकती. इकलौती एफआइआर यासीन के नाम से दर्ज है. पवन कुमार ने बताया कि इस मामले में कासिम के परिजनों को गवाह बनाया गया है.
यह पूछे जाने पर कि क्या कासिम के परिवार के बयान हो चुके, कुमार ने मेरे सवाल को टाल दिया. उन्होंने कहा कि ''दफ़न किए जाने के बाद से'' ही वे परिवार के संपर्क में हैं. जब मैंने और ज़ोर दिया तो उन्होंने माना कि कोई भी लिखित बयान अभी कासिम के परिवार से नहीं लिया गया है.
घटना की एक तस्वीर वायरल हुई थी जिसमें कुछ युवाओं को कासिम को उलटा टांग कर ले जाते दिखाया गया है. इस तस्वीर पर ऑनलाइन आक्रोश काफी पैदा हुआ चूंकि कई ने इसे पुलिस की मिलीभगत का सबूत माना. उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक कार्यालय से 1 जून का एक माफीनामा ट्विटर पर जारी किया गया: ''हम घटना के लिए माफी मांगते हैं. तस्वीर में दिख रहे तीनों पुलिसवालों को लाइन हाजिर कर दिया गया है और जांच के आदेश दे दिए गए हैं.''
तस्वीर में दिख रहे तीन पुलिसवालों में एक अश्वनी कुमार हैं. कासिम को टांग कर ले जाने वालों के बारे में अश्विनी की टिप्पणी थी ''आम पब्लिक'', जो कासिम को पुलिस वैन तक ले जाने में पुलिस की मदद कर रही थी. मैंने जब इस बात पर ध्यान दिया कि तस्वीर में दिख रहे लोग कासिम की मदद करने के बजाय उसे प्रताडि़त कर रहे थे और यह बात कही, तो अश्विनी ने कहा, ''उसका वजन एक किवंटल के करीब था और ज्यादा लोग उसे ले जाने के लिए चाहिए थे.'' मैं जब 21 जून को इलाके में पहुंचा तो पाया कि ट्विटर पर डीजीपी के दावे से उलट अश्विनी तब भी पिलखुआ कोतवाली के प्रभारी बने हुए थे. वे सीओ और एसडीओ के साथ शांति बैठक ले रहे थे और मुझसे उन्होंने जांच अधिकारी की हैसियत से ही बात की.
इस खबर के छपने तक कासिम का परिवार पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आने का इंतज़ार कर रहा था. मृतक के परिवार ने जिस किरणपाल सिंह की पहचान की थी उसे न तो गिरफ्तार किया गया है और न ही हिरासत में लिया गया है. इसी तरह वीडियो में पहचाने गए बाकी व्यक्तियों के साथ भी है. पुलिस के अनुसार हसन का बयान 22 जून तक नहीं लिया जा सका था, बावजूद इसके कि वह फोन पर आसानी से उपलब्ध था और मेरी बात हुई थी.
पिलखुआ की जनता के बीच लोकप्रिय अधिवक्ता और बसपा नेता कुंवर अय्यूब अली के मुताबिक चूंकि पहली एफआइआर में ''सांप्रदायिक हत्या'' और ''गोकशी'' का कोई जि़क्र नहीं है, लिहाजा ''शुरू से लेकर अंत तक जांच की दिशा ही अलग रहेगी.''
धौलाना से विधायक असलम चौधरी ने घटना का दोष योगी सरकार के ऊपर मढ़ते हुए मुझसे कहा कि कुछ हिंदुओं के बीच एक धारणा है कि वे कुछ भी कर के बच जाएंगे. वे बोले, ''वे जिसे चाहते हैं उसे जान से मार देते हैं.''
जनता दल के एक सांसद वीरेंद्र कुमार ने 20 दिसंबर 2017 को केंद्र सरकार से राज्यसभा में पूछा था कि ''क्या सरकार के पास भीड़ द्वारा हत्या को रोकने के लिए एक कड़ा कानून लाने का कोई प्रस्ताव है''. गृह राज्यमंत्री हंसराज गंगाराम अहीर ने जवाब दिया था, ''ऐसा कोई भी प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है.''
अनुवाद -अभिषेक श्रीवास्तव