पिछले दिनों अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की एक संपादकीय ने दबे स्वर में भारतीय न्यायपालिका के व्यव्हार की आलोचना की. "इन एससीज नेम" (सर्वोच्य न्यायालय के नाम पर) शीर्षक से छपी इस संपादकीय में लिखा गया कि, "भारतीय सर्वोच्य न्यायलय को इस बात पर चिंतन करना होगा कि क्या इसकी भूमिका और रुतबा, जो संवैधानिक प्रक्रिया और मूल्यों के अभिरक्षक के रूप में है, इस तरह का हो गोया वह न्याय के लिए उसका दरवाजा खटखटाने वाले हिंसा से पीड़ित लोगों पर ही अपनी नाराजगी दिखाए.”
एक्सप्रेस संपादकों ने यह टिप्पणी 2002 की गुजरात हिंसा पीड़िता जाकिया जाफरी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में लिखा था. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने जाफरी की अपील को खारिज करते हुए कहा था कि 2002 में हुए गुजरात दंगे किसी साजिश का हिस्सा नहीं थे और न इसमें सरकार का कोई भी उच्च पदाधिकारी, जिनमें उस वक्त राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित 63 लोगों के नाम शामिल थे, संलिप्त पाए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट यहीं नहीं रुकी, उसने कहा कि जिन लोगों ने गुजरात दंगों को एक साजिश बताने की कोशिश की उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. कोर्ट का फैसला आने के दूसरे दिन ही गुजरात की पुलिस ने मुकदमे की दूसरे नंबर की अपीलकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया. जाफरी के पति एहसान जाफरी को, जो एक सांसद थे, हिंदू दंगाइयों ने उनके निवास स्थान गुलबर्गा सोसाइटी में जला कर मार दिया था. आधिकारिक रूप से गुजरात दंगो में 790 मुस्लमान और 254 हिंदू मारे गए थे.
2014 में बीजेपी के नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद उच्च और उच्चतम न्यायपालिका की विश्वसनीता पर कई बार सवाल खड़े हुए हैं. हालांकि भारतीय मीडिया, जिसमें सवर्ण पत्रकारों का दबदबा शुरू से रहा है, बहुत विरले ही भारतीय न्यायव्यवस्था की आलोचना करता है, या करता भी है तो बहुत दबे स्वरों में. यहां सवर्ण पत्रकारों के प्रभाव का उल्लेख इसलिए जरूरी है क्योंकि न्यायपालिका के ज्यादातर विपरीत फैसलों का असर इस समुदाय पर नहीं, बल्कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अलपसंख्यकों पर पड़ता है, जो कुल मिल कर देश की आबादी के लगभग एक तिहाई हैं. पिछली दफा भी दिसंबर 2019 में उच्च न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह तब लगा था जब दिल्ली के न्यायधीशों ने नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे अल्पसंख्यक छात्रों पर हुए दिल्ली पुलिस के हमले के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था. फैसला आते ही, पूरे कोर्ट परिसर में, कई वकीलों ने न्यायधीशों के खिलाफ "शेम शेम" [शर्म करो] का नारा लगाना शुरू कर दिया था. उसी साल, करीब छह महीने पहले, जब उच्चतम न्यायलय ने बाबरी मस्जिद को ढहाने और उसकी जगह राम मंदिर के निर्माण का फैसला दिया था तब भी अल्पसंख्यकों का विश्वास न्यायपालिका पर कमजोर होने की बात कानून के जानकारों ने दोहराई थी. यह बात मुझे नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे कई अल्पसंख्यक प्रदर्शनकारियों ने भी खुद कही थी.
दुर्भाग्य से भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग में न्यायपालिका की यदा-कदा आलोचना भी सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय या मोदी सरकार की राजनीति के संदर्भ तक सीमित रहती है. ऐसी आलोचनाओं के लेंस अक्सर आर्थिक होते है. इन विश्लेषणों में बताया जाता है कि कोई जज सिर्फ इसलिए पक्षपात करते हैं क्योंकि उसमें उन्हें आर्थिक फायदा होता है. मिसाल के तौर पर, पूर्व मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई के बारे में कहा गया था कि उन्होंने हिंदुओं के पक्ष में बाबरी मस्जिद का फैसला सरकार से अपने लिए राज्य सभा की सदयस्ता प्राप्त करने के एवज में दिया था. हालांकि गोगोई ने बाद में एक इंटरव्यू में इस बात से इनकार किया.
इस तरह के विश्लेषण न्यायपालिका के पक्षपाती चरित्र का मूल कारण, जो कुछ खास ऊंची समृद्ध जातियों की पकड़ है, को नजरअंदाज करता है. इस तरह का विश्लेषण कभी भी न्यायधीशों की जाति, वर्ग और उनकी आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को उनके फैसलों के पीछे की वजह नहीं मानता है. बाबजूद इसके कि भारत के सबसे ज्यादा शोषित वर्ग, अनुसूचित जाति और जनजातियों, ने लगातार भारतीय न्यायपालिका के जातिवादी स्वाभाव को उजागर किया है. यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि भारतीय न्यायपालिका का पक्षपाती होना कोई अपवाद नहीं है. दुनिया के सबसे लोकप्रिय जनतंत्र, संयुक्त राज्य अमेरिका, में विश्विद्यालयों और बार एसोसिएशन्स द्वारा न्यायपालिका में रंगभेद आधारित पक्षपात का मौजूद होना एक मानी हुई बात है. वहां के विश्वविद्यालय, बार और मीडिया में इन विषयों पर शोध और चर्चाएं लगातार होती हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि वहां की न्यायव्यवस्था में किसी भी तरह के शोषितों के खिलाफ पूर्वाग्रह की चर्चा खुल कर होती है जबकि हमारे देश में उसे अनदेखा कर दिया जाता है.
मैं दो सरकारी दस्तावेज के आधार पर यह बहस स्थापित करूंगा कि भारतीय न्यायधीश अपने न्यायिक निर्णयों में अपने जातिगत पूर्वाग्रहों से प्रभावित होते हैं. ये दस्तावेज यह भी बताते हैं कि उनका यही पूर्वाग्रह उन्हें शोषित वर्ग विरोधी बनाता है. ये दस्तावेज हैं : 1) 30 सदस्यीय संसदीय समिति की रिपोर्ट जिसका शीर्षक था "अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व, उच्च और उच्चतम न्यायलय के संदर्भ में”, जो 2000 और 2001 में सदन के पटल पर रखी गई थी, और 2) भारतीय अनुसूचित जाति आयोग की स्पेशल रिपोर्ट, जिसका शीर्षक था : "रिजर्वेशन इन जुडिशरी" [न्यायपालिका में आरक्षण], जिसे आयोग ने फरवरी 2013 में राष्ट्रपति को सौंपा था और जो फिर दिसंबर 2014 में सदन पटल पर रखी गई थी. ये दो रिपोर्टें भारत के उच्च और उच्चतम न्यायलयों के न्यायधीशों के जातिवादी पूर्वाग्रह को स्वीकारती हैं. ये दोनों ही रिपोर्टें भारतीय न्यायपालिका में न्यायधीशों की बहाली में विविधता लाने पर जोर देती हैं और इसे इसकी पक्षपाती स्वाभाव से बचाने का उपाय भी मानती हैं. इसके आलावा पूर्व में तीन लॉ कमीशनों की रिपोर्ट और दो अन्य संसदीय समिति की रिपोर्ट, जो क्रमश 2004 और 2007 में सदन में रखी गई थीं, भारतीय न्यायपालिका में अनुसूचित जाति, जनजाति और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण की सिफारिश करती हैं. हालांकि लॉ कमीशन की रिपोर्टें न्यायपालिका के पक्षपात के ऊपर कोई टिप्पणी नहीं करती हैं.
ये दस्तावेज, क्योंकि नरेन्द्र मोदी की सरकार में आने से पहले के हैं, इस भ्रम को तोड़ते हैं कि भारतीय न्यायपालिकाएं 2014 से पहले निर्विवाद थीं. तब और अब में न्यायपालिकाओं के पक्षपातपूर्ण रवैए में डिग्री का फर्क हो सकता है मगर ये पूर्वाग्रह न्यायधीशों में दशकों से मौजूद हैं, ऐसा दस्तावेज स्थापित करते हैं.
मेरे ऊपर की घटनाओं के जिक्र से लगता है कि न्यायपालिका 2014 के बाद सिर्फ अल्पसंख्यकों के खिलाफ पक्षपाती रही हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. ये वे उदहारण थे जिनकी चर्चा प्रोग्रेसिव मीडिया में जोर शोर से हुई. इस दरम्यान कोर्ट ने कई फैसलें दलितों और आदिवासियों के खिलाफ भी लिए जिनकी चर्चा कम या बिल्कुल भी नही हुई. मिसाल के तौर पर, फरवरी 2020 में, जब कोविड-19 को महामारी घोषित किया जा चुका था, सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है. ऐसा फैसला उसने बाबजूद इसके दिया कि संविधान की धारा 16 (4) में साफ तौर पर अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षण का उल्लेख है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद संसद की सभा में जोरदार बहस हुई. बहुजन सांसदों ने कहा कि न्यायधीश ऐसे फैसले अपने जातिवादी पूर्वाग्रहों के कारण देते हैं. उस वक्त के मंत्री रामविलास पासवान ने सदन को भरोसा दिलाया था कि वह सरकार से बात करके इस फैसले को बदलने का कानून संसद में लाएंगे. हालांकि सरकार ने यह कानून कभी नहीं लाया.
उसी साल अप्रैल में, जब पूरे देश में कोविड लॉकडाउन था, सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक बेंच ने आदिवासी विद्यालयों में आदिवासी शिक्षकों के लिए 100 फीसदी आरक्षण को खत्म कर दिया. इन फैसलों का भारतीय मीडिया में कोई विश्लेषण नहीं हुआ. इन फैसलों के खिलाफ इन वर्गों ने आवाज भी उठाई मगर उनके प्रदर्शनों को मीडिया में जगह नहीं मिली. ऐसे दर्जनों उदहारण हैं जब 2014 के बाद उच्चतर कोर्टों के न्यायधीशों ने दलित और आदिवासियों के हकों के परस्पर विरोधी फैसले दिए हैं. मगर इस लेख का विषय यह नहीं है कि किसकी सरकार के दौरान न्यायधीशों का जातीय या सांप्रदायिक पूर्वाग्रह सबसे ज्यादा दिखा. बल्कि मुद्दा यह है कि इस पूर्वाग्रह की जड़ में क्या है?
2013 में राष्ट्रपति को सौंपी अपनी रिपोर्ट में अनुसूचित जाति आयोग ने लिखा कि, "लगभग 67 फीसदी (उच्च और उच्चतम न्यायधीशों की) नियुक्तियां न्यायपालिकाओं में प्रैक्टिस कर रहे वकीलों में से की जाती हैं. पिछले छह दशकों में की गई ऐसी नियुक्तियों के विश्लेषण से पता चलता है कि ये नियुक्तियां कुछ खास परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जो समाज के कुछेक समृद्ध वर्गों में हैं, जो देश की आबादी का 1 फीसदी भी नहीं है. (नियुक्ति की) यह वंशागत पद्धति, जो मंदिर के पुजारी और गांव के प्रधान चुनने की पद्धति के समान है, शुरुआत से ही उच्च और उच्चतम न्यायालयों के न्यायधीशों के परिवार और उनके परिचित के करियर का बड़ी सावधानीपूर्वक पोषण कर रही है". रिपोर्ट में आगे उल्लेख है कि, "कार्यपालिका और न्यायपालिका में कार्यरत लोगों के परिवार और उनके परिचितों को उनके पेशे में आते ही उनकी नियुक्ति पीएसयू (पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग) के कानून पदाधिकारी और कानून सलाहकार के पद पर कर दिए जाते हैं. उसके तुरंत बाद ही उनको हाई कोर्ट में जज नियुक्त कर दिया जाता है, तब भी जब उन्होंने वकालत की कोई प्रैक्टिस नहीं की हो".
आयोग की खोज की प्रासंगिकता अब भी बिल्कुल उतनी है अगर हम आज की परिस्थिति पर नजर डालें. मई 2019 में लखनऊ और इलाहाबाद के बार एसोसिएशन के वकीलों ने केंद्रीय कानून मंत्रालय को खत लिख कर कहा कि सुप्रीम कोर्ट की 33 वकीलों की सिफारिशों को तुरंत खारिज किया जाए. ये सिफारिशें देश के सबसे बड़े हाई कोर्ट, इलाहाबाद कोर्ट, में जजों की नियुक्ति के लिए की गई थी. बार एसोसिएशन के वकीलों का आरोप था कि सिफारिश किए गए वकील सुप्रीम कोर्ट के कार्यरत या पूर्व जजों के सगे संबंधी हैं. फिर 2020 में वकीलों की एक संस्था ने राजस्थान हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति में भी परिवारवाद का आरोप लगाया. मतलब कि आयोग को जिस तरह का परिवारवाद पिछले 60 वर्षों में जजों की नियुक्तियों में दिखा वह 2020 में भी बदस्तूर जारी था.
आयोग की रिपोर्ट न्यायपालिका में इस तरह नियुक्त हुए जजों की बहुलता और उनके प्रभाव को न्यायपालिका में मौजूद जातिगत पूर्वाग्रह के लिए जिम्मेदार मानती है. आयोग ने लिखा था कि, "दुर्भाग्यवश उच्चतर न्यायपालिका का संयोजन (कंपोजिशन) दिखाता है कि जजों की नियुक्ति समाज के उसी वर्ग से की जा रही है जो परंपरागत रूप से सामाजिक दुर्भावनाओं से ग्रसित है. ज्यादातर मुकदमों में, इन जजों के अपने सामाजिक और वर्गीय निहित स्वार्थ उन्हें उनके निर्णयों में अपनी बौद्धिक ईमानदारी और सत्यनिष्ठा को मुखरता से इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं देती है."
इससे पहले की कोई पाठक आयोग की ही निष्पक्षता पर सवाल उठा कर उनकी रिपोर्ट पर शंका जताए, यह याद दिलाना जरूरी है कि राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग एक संवैधानिक संस्था है, जिसके निर्माण की परिकल्पना संविधान में निहित है. इसका मतलब यह है कि इसकी परिकल्पना संविधान बनाने वाले कानूनविदों ने संविधान सभा में पूरी चर्चा के बाद किया होगा. मतलब इसके निर्माण में सवर्ण कानूनविदों और सवर्ण जनप्रतिनिधियों का भी हाथ है. यह संस्था उतनी ही प्रमुख है जितनी भारत के अन्य संवैधानिक संस्थाएं जैसे, ऑडिटर जनरल का ऑफिस. यह संस्था अनुसूचित जाति से जुड़ी संवैधानिक सुरक्षाओं के लागू होने में कार्यपालिका द्वारा किसी कोताही को सीधे भारत के राष्ट्रपति को रिपोर्ट कर सकती है.
रिपोर्ट के अनुसार, 2011 में "पूरे देश में 21 हाई कोर्टों में कार्यरत कुल 850 मुख्य न्यायधीशों में सिर्फ 24 (2.8 प्रतिशत) अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के हैं. इन 21 हाई कोर्ट में से 14 में अनुसूचित जाति और जनजाति का कोई भी जज नहीं है. इसी तरह से सर्वोच्च न्यायलय में, जिसकी जजों की क्षमता 31 है, अनुसूचित जाति या जनजाति का एक भी जज नहीं है." आयोग ने लिखा कि 1950 से 2011 तक अनुसूचित जाति के सिर्फ चार सदस्य ही जज बने हैं. आयोग ने सन 2000 तक की 30 सदस्यीय संसदीय समिति के आंकड़ों का भी जिक्र किया. चूंकि संसदीय समिति की अध्यक्षता आदिवासी सांसद करिया मुंडा कर रहे थे, तो समिति की रिपोर्ट को करिया मुंडा रिपोर्ट भी कहा जाता है. इस रिपोर्ट के अनुसार, “जनवरी 1993 तक की स्थिति के मुताबिक, देश के 18 हाई कोर्ट में से 12 में एक भी अनुसूचित जाति का जज नहीं पाया गया. 14 हाई कोर्ट में अनुसूचित जनजाति का एक भी जज नहीं था. मई 1998 में मिले आंकड़ों के अनुसार, देश के 481 मुख्या न्यायधीशों में सिर्फ 15 जज अनुसूचित जाति और 5 अनुसूचित जनजाति के थे. सुप्रीम कोर्ट के परिप्रेक्ष में, जो हाई कोर्ट के लिए रोल मॉडल होना चाहिए था, यह आंकड़ा जीरो है." दोनों रिपोर्ट के आंकड़ें देखने से समझ आता है कि 1993 से लेकर 2011 तक उच्चतर न्यायलयों में अनुसूचित जाति और जनजाति के नियुक्ति 2-3 फीसदी तक ही सीमित रही. मतलब कि उच्चतर न्यायलयों ने जजों की अपनी नियुक्ति की प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं किया था. मोदी सरकार के आने के बाद इन संस्थाओं ने ऐसे किसी विषय पर कोई रिपोर्ट अभी तक नहीं बनाई है.
करिया मुंडा समिति ने लिखा था, “हमारी न्यायपालिका की वर्तमान सरंचना जाहिर तौर पर देश के पिछड़े वर्ग के लिए न ही सहानुभूति रखती है और न तो बिना किसी पूर्वाग्रह के काम करती है. देश की नौकरशाही भी तीव्र गति से कोर्ट के दलित विरोधी फैसलों को लागू करती है.” लगभग एक दशक बाद, अनुसूचित आयोग ने भी न्यायपालिका के प्रति अपनी रिपोर्ट में ऐसे ही शब्दों में चिंता जताई थी कि, “अभी तक न्यायपालिका समाज के शोषित वर्ग के लिए न तो संवेदनशील है और न ही तटस्थ".
समझना जरूरी होगा कि आखिर उच्च और उच्चतम न्यायालाओं ने इतनी उद्यमता के साथ अपनी नियुक्ति प्रक्रिया को समाज के केवल कुछ वर्गों तक सीमित कैसे रखा है. उच्च और उच्चतम न्यायपालिका देश की संवैधानिक संस्थाएं हैं और भारत की संघ प्रणाली का तीसरा सबसे बड़ा हिस्सा हैं. भारतीय संघ के दो अंग, कार्यपालिका और विधायिका, संविधान की धारा 15(4) और 16(4), जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के वर्गों के प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण की व्यवस्था है, का अक्षरसः पालन करते हैं. सिर्फ देश की न्यायपालिका ही ऐसी है जिसने संविधान बनने से लेकर आज तक संविधान की दोनों धाराओं को अपने यहां लागू नहीं किया है. संघ के दोनों अंगों ने कई बार कोशिश की कि न्यायपालिका अपनी व्यवस्था में शोषितों के लिए आरक्षण लागू करे मगर न्यायधीशों ने न्याय प्रणाली की स्वतंत्रता का बहाना बना कर ऐसी कोशिशों को नाकाम कर दिया. करिया मुंडा समिति की सिफारिशों के मुताबिक, यूपीए सरकार ने जजों के नियुक्ति, स्थानांतरण और उनके प्रमोशन के लिए एक राष्ट्रीय जुडिशिएल कमीशन की परिकल्पना की थी, जिसके मेंबर भारत के मुख्य न्यायधीश, उनके दो सहकर्मी जज, कानून मंत्री और दो प्रख्यात व्यक्ति होने थे. प्रख्यात व्यक्तियों का चयन एक समिति करती जिसके मेंबर प्रधानमंत्री, संसद में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायधीश करते. पिछली सरकार यह बिल पास नहीं करा पाई. मगर नरेन्द्र मोदी की सरकार ने सत्ता में आते ही 2014 में संसद में यह बिल पारित करा लिया. कानून के लागू होते ही सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने अगले ही साल इस कानून को रद्द कर दिया. इस तरह एक बार फिर जजों की नियुक्ति का विशेषाधिकार सुप्रीम कोर्ट के हाथ चला गया.
वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के जजों का चयन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश और उनके चार सीनियर सहयोगी जज, जिसे कॉलेजियम कहते है, मिल कर करते हैं. उनके नाम फिर सरकार को भेजे जाते हैं जिसे सरकार अपनी मुहर लगा कर राष्ट्रपति को भेजती है, जो उनकी नियुक्ति करते हैं. हाई कोर्ट के न्यायधीशों का चयन भी एक कॉलेजियम करती है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश के अलावा उनके दो सहयोगी जज होते हैं. फिर इन नामों को राज्य सरकारें अपनी मुहर लगा कर राज्यपाल को भेजती हैं, जो फिर भारत सरकार और फिर राष्ट्रपति को भेजे जाते हैं. हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति कॉलेजियम द्वारा चयनित उम्मीदवारों से करते हैं. कॉलेजियम की व्यवस्था संसद में किसी कानून के द्वारा नहीं बनाई गई है और न संविधान में ऐसी किसी इकाई का उलेख है. कॉलेजियम सिस्टम को सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने समय-समय पर अपने ही फैसलों से मान्यता दी है.
अनुसूचित जाति आयोग ने अपने रिपोर्ट में लिखा था कि, “कॉलेजियम एक गैर संवैधानिक प्राधिकरण है. जिसका अविष्कार जस्टिस जे. एस. वर्मा और उनके सहयोगी जजों ने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए किया था. इसकी संविधान में कोई परिकल्पना नहीं है और न ही संविधान बनाने वाले पितामहों ने इसके बारे कभी सोचा था.” आयोग कॉलेजियम व्यवस्था को न्यायपालिका में अन्तर्निहित जातिगत पूर्वाग्रह के लिए जिम्मेदारी मानता है. आयोग की रिपोर्ट उल्लेखित करती है कि, "सुप्रीम कोर्ट अपने द्वारा बनाए खुद के दिशानिर्देश का इस्तेमाल अपने पसंद के जजों को नियुक्त करने में करता है. इसलिए यह व्यवस्था कई मेरिटोरियस उम्मीदवारों के दावों को खारिज करती है. कॉलेजियम के सदस्यों की कार्यप्रणाली में न कोई जवाबदेही है, न पारदर्शिता". आयोग के अनुसार न्यायपालिका जब तक शोषित वर्गों को न्यायप्रणाली में जगह नहीं देगी, तब तक इनके मुद्दे न्यायपालिका नहीं समझ सकते. "न्यायपालिका में ऐसे सदस्य जरूर होने चाहिए जिन्हें पिछड़े वर्ग के लोगों की दिक्कतों का प्रत्यक्ष अनुभव हो और उनके मुद्दों में निजी दिलचस्पी हो ताकि वे उन्हें न्याय प्रबंधन से सुलझा सकें," आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था.
आयोग और लॉ कमीशन की तीनों रिपोर्टों ने यह सिफारिश की थी कि जिला न्यायधीशों की नियुक्ति आईएएस ऑफिसर्स की नियुक्ति की तर्ज पर एक ऑल इंडिया जुडिशल सर्विस के जरिए की जाए जिसे संचालित यूनियन जुडिशल कमीशन, जिसे यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन की तर्ज पर बनाया जाए. मगर 2015 में सर्वोच्य न्यायलय द्वारा नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कमीशन को निरस्त किए जाने के बाद ऑल इंडिया जुडिशल सर्विस भी कभी बन नहीं पाई. जिला न्यायधीशों की नियुक्तियां राज्य के राज्यपाल हाई कोर्ट के न्यायधीश की सलाह पर करते हैं. इसमें भी कोई पारदर्शिता नहीं है. ऑल इंडिया जुडिशल सर्विस की सिफारिश करिया मुंडा की रिपोर्ट भी करती है. कमाल की बात यह है कि करिया मुंडा संसदीय समिति की सदस्यों में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी थे जो उस वक्त राज्य सभा के सदस्य थे.
न्याय प्रणाली में विद्यमान जातिगत पूर्वाग्रह, जिसे समृद्ध जातियां और वर्ग सिंचित करते हैं, का असर शोषितों के मुद्दों पर अक्सर बुरा होता है. करिया मुंडा समिति की रिपोर्ट में लिखा था, "अभी तक के न्यायिक आदेश, जो समाज के शोषित वर्ग, जैसे अनुसूचित जाति और जनजाति, के अधिकारों और हितों के संदर्भ में दिए गएं हैं, एक भ्रामक मिश्रण पैदा करते हैं, जो सुलझाती कम है लेकिन बिगाड़ती ज्यादा है." इसी तरह, अनुसूचित जाति आयोग ने भी उलेख किया था कि, "(न्यायिक) निर्णय जो शोषितों के लिए अफरमेटिव एक्शन (शोषित वर्ग को मुख्यधारा में लाने का संवैधानिक जतन) के पक्ष में दिए जाते हैं उनकी आयु बहुत कम होती है. ऐसे फैसलों को तुरंत ही छोटी कोर्ट या छोटी बेंच के कोर्ट बदल देते हैं जो कई बार स्टेरी डीसाइसिस सिद्धांत के खिलाफ होता है." स्टेरी डीसाइसिस कानून में वह सिद्धांत होता है जिसके अनुसार अगर किसी कोर्ट ने किसी नियम के तहत कोई फैसला दिया है तो उसी तथ्य के आधार पर किसी दूसरी कोर्ट में वह फैसला बदला नहीं जाना चाहिए.
संसदीय समिति और अनुसूचित जाति आयोग, दोनों ही, अपने इस अवलोकन में 1990 के दशक में आए सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले, जिसे मंडल केस के नाम से भी जाना जाता है, का जिक्र करते हैं. यह केस था : अगस्त 1990 में केंद्र की वी. पी. सिंह की सरकार ने सामाजिक और शैक्षिणिक रूप से पिछड़े (ओबीसी) वर्गों के लोगों के लिए जब आरक्षण की व्यवस्था की तो ऊंची जाति के छात्रों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. नवंबर 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए पूरी आरक्षण नीति पर ही ऐसी शर्तें लगा दी कि किसी भी सरकार के लिए आरक्षण लागू करना व्यावहारिक रूप से असंभव हो गया. इन शर्तों को काटने के लिए भारतीय संसद को संविधान में तीन संशोधन करने पड़े. सुप्रीम कोर्ट यहीं नहीं रुकी थी, उसने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रमोशन में आरक्षण पर भी रोक लगा दी, जिसे संवैधानिक संसोधन से बाद में ठीक कर लिया गया. मगर इस मुकदमे में अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण का कोई लेना देना नहीं था. आयोग ने इस फैसले का अवलोकन करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा कि, “कानूनविद, खासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग, आज तक नहीं समझ पाए की आखिर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रमोशन में आरक्षण का क्या संबंध था था इंदिरा साहनी की याचिका से जबकि मुद्दा तो ओबीसी आरक्षण का था." इंदिरा साहनी इस केस में याचिकाकर्ता थी.
आयोग ने इस केस के अलावा जस्टिस कर्णन और छत्तीसगढ़ के 17 जिला न्यायधीशों के मामले को भी उल्लेखित किया. जस्टिस सी. ए. कर्णन ने राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग को 2011 में शिकायत की थी कि ऊंची जाति के जज उन्हें परेशान करते हैं क्योंकि वह दलित हैं. 2017 में, एक दूसरे मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कर्णन को छह महीने की जेल के सजा सुनाई थी. उनके ऊपर आरोप सुप्रीम कोर्ट की एक महिला जज पर अभद्र टिप्पणी करने का था. हालांकि जस्टिस कर्णन ने राष्ट्रपति को दिए अपने खत में लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट उन्हें निशाना बना रही है क्योंकि उन्हें कई जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. इसी तरह, छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जाति के 17 जिला न्यायधीशों को उनकी सेवा की समय सीमा से पहले ही हटा दिया गया था. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह भी अवलोकन दिया था कि ज्यादातर उच्चतर कोर्ट अनुसूचित जाति या जनजाति के खिलाफ हुई हिंसा में दोषियों को कड़ी सजा नहीं देते हैं.
तो सवाल बनता है कि क्या अब भी न्यायपालिका में मौजूद जातिगत पूर्वाग्रह शोषितों की जिंदगी पर कहर ढा रहे हैं? इसकी पुष्टि करना बिलकुल ही मुश्किल नहीं है. फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला की "आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है" उत्तराखंड सरकार के एक फैसले के संदर्भ में आया था. मामले की बुनियाद बनी थी एक दलित टैक्स कलेक्टर की उत्तराखंड हाई कोर्ट में याचिका जिसमें उन्होंने अपने प्रमोशन को रोके जाने का सरकार पर आरोप लगाया था. कोर्ट के सामने मुद्दा था कि क्या राज्य सरकार बाध्य है अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए? मामला जब सुप्रीम कोर्ट गया तो अनुसूचित जाति के कई सरकारी कर्मचारियों ने कोर्ट के सामने सरकारी दस्तावेज पेश किए कि अनुसूचित जाति और जनजाति का ऊंचे पदों पर प्रतिनिधित्व संवैधानिक मानदंड 15 प्रतिशत से भी नीचे है. तब कोर्ट ने वह फैसला दिया था. अगर इस फैसले का विश्लेषण करें तो कोर्ट दलित और आदिवासी कर्मचारियों की याचिका यह कह कर भी खारिज कर सकती थी कि पदोन्नती एक सरकारी नीति है और न्यायलय इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी. मगर नहीं, न्यायलय ने पूरे आरक्षण के अधिकार को ही अनुकंपा का दर्जा दे दिया. वह भी तब, जब संविधान में दलित और आदिवासियों के लिए आरक्षण अंतर्निहित है.
इसी प्रकार से 1990 के दशक में बिहार में हुए दलितों के नरसंहार- लक्ष्मणपुर बाथे, शंकर बीघा, बथानी टोला- के मामले में, पटना हाई कोर्ट और जिला न्यायलय ने शामिल सभी आरोपियों को क्रमश 2013, 2015 और 2012 में बरी कर दिया. इन तीनों नरसंहारों में गैर सरकारी हथियारबंद भूमिहार दल ने क्रमश 58, 23, 21 दलित पुरुषों, औरतों और बच्चों का बेरहमी से कत्ल कर दिया था. फिर मई 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव में हुए एक दलित परिवार के नरसंहार की वजह जाति दुर्व्यहार नहीं थी. सन 2008 में खैरलांजी गांव में एक दलित परिवार के चार सदस्यों, जिनमें दो औरतें थीं, को उनके घर से बाहर खींच कर, नंगा कर, मौत के घाट उतार दिया गया था.
अनुसूचित आयोग ने अपने रिपोर्ट में लिखा था कि, "न्यायधीश कोई सुपर ह्यूमन (महामानव) नहीं है" और इसलिए यह “स्वाभाविक” है कि वह जिस जाति, वर्ग से आता है “उसके हित" उसके न्यायिक निर्णयों पर प्रभाव डालते हैं. जरूरी यह है कि संघ की बाकी दो शाखाओं, विधयिका और कार्यपालिका, की तरह न्यायपालिका भी संविधान में शोषितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को अपनाए और अपने न्यायधीशों में विविधता लाए.
भारतीय न्यायपालिका में कुछ परिवारों और कुछ जातियों का जमावड़ा सवर्ण वर्ग के गरीबों के भी हित में नहीं है. जुलाई 2019 में, इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक ब्राह्मण जज रंगनाथ पांडेय ने प्रधानमंत्री को यह खत लिख कर कहा था कि उन जैसे काबिल जज की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति इसलिए नहीं हो पा रही क्योंकि नियुक्ति प्रणाली "परिवारवाद और जातिवाद" पर आधारित है.