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24 दिसंबर 2023 को एक गुमनाम से संगठन, जनजाति सुरक्षा मंच ने झारखंड के रांची में एक रैली आयोजित की, जिसमें धर्मांतरित आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति सूची से हटाने की मांग की गई. दो दिन बाद इसी मांग के साथ त्रिपुरा के अगरतला में एक और रैली की गई. मूल रूप से क्रिसमस के दिन निर्धारित इस रैली को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा के हस्तक्षेप के बाद स्थगित कर दिया गया था. वर्ष की शुरुआत में, असम में जनजाति सुरक्षा मंच के एक गुट, जनजाति धर्म संस्कृति सुरक्षा मंच ने गुवाहाटी में विरोध प्रदर्शन किया था, जिसमें सूची से हटाने के साथ-साथ धर्मांतरणों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, उनकी कुछ रैलियों में आदिवासी समुदाय के हजारों लोग शामिल हुए.
हाल ही में बना और अब तक, गुप्त रहने वाला संगठन जिसकी कोई वेबसाइट नहीं है लेकिन एक फेसबुक पेज मौजूद है - जेएसएम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा समर्थित है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक सहयोगी संगठन है. इसके संयोजक गणेश राम भगत 2003 से 2008 तक रमन सिंह के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ कैबिनेट में मंत्री थे. जेएसएम के सह-संयोजक, राज किशोर हांडसा, संघ की आदिवासी शाखा, वनवासी कल्याण आश्रम के पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं. जनजाति धर्म संस्कृति सुरक्षा मंच के प्रमुख बिनोद कुंबांग ने मुझे बताया कि जेएसएम का गठन 2006 में "भारत के एसटी लोगों की मूल पहचान" को बचाने के स्पष्ट लक्ष्य के साथ किया गया था, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आरक्षण उन लोगों तक नहीं बढ़ाया जाए जिन्होंने "विदेशी" माने जाने वाले को धर्म अपना लिया है. संविधान की गलत व्याख्या करते हुए, जेएसएम आरक्षण के प्रावधानों के मामले में एसटी के लिए अनुसूचित जाति के साथ समानता की मांग करता है. भगत ने रांची में कहा कि "आदिवासी...वास्तव में हिंदू हैं." जेएसएम ने पिछले कुछ वर्षों में मध्य और पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी और आदिवासी बहुल जिलों में कई रैलियों और सार्वजनिक बैठकों के साथ अपनी गतिविधियों को बढ़ाया है.
जेएसएम और जेडीएसएसएम द्वारा किए गए शोर और बयानबाजी से एक बात स्पष्ट है- वे संघ की हिंदू राष्ट्र योजना और पूर्वोत्तर राज्यों के लिए उसके एजेंडे पर काम करते हैं. दशकों से क्षेत्र में संघ और उसके विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ताओं ने जनजातीय परंपरा में विश्वास रखने वालों को हिंदू धर्म में शामिल करने और अन्य धार्मिक समुदायों में रूपांतरण का विरोध करने के लगातार प्रयास किए हैं. जबकि धर्मांतरित आदिवासियों को सूची से हटाने की मांग 1960 के दशक से चली आ रही है, जेएसएम पिछले कुछ वर्षों से इस मुद्दे को उठाने में सबसे आगे रहा है. उसकी रैलियों और अभियानों ने अनेक क्षेत्रों, विशेषकर असम में जोर पकड़ लिया है. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, “जेएसएम छत्तीसगढ़ में धर्मांतरित आदिवासियों के लिए आरएसएस से जुड़े धर्म जागरण समिति के 'घर वापसी अभियान' की तरह ही काम करती है, सामाजिक न्याय मंच ने निगमों के खिलाफ रैली निकाली है जो कथित तौर पर अरुणाचल प्रदेश में धर्मांतरण का वित्तपोषण कर रहे हैं.”
ऐसी पहलों के पीछे मूल लक्ष्य, जिसमें से प्रत्येक को स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार संशोधित किया गया है, धार्मिक आधार पर आदिवासी समुदायों की पहचान को फिर से परिभाषित करना है. यह हिंदू धर्म को "स्वदेशी" धर्म के रूप में स्थापित करने और ईसाई धर्म और अन्य को "विदेशी" के रूप में उजागर करने के आरएसएस के बड़े बहुसंख्यकवादी एजेंडे को पूरा करता है. यह दो स्पष्ट परिणामों को हासिल करने के लिए काम करते हैं -उन आदिवासियों की पहचान करना, जो हिंदुओं की तरह कई जीववादी विश्वास प्रणालियों का पालन करते हैं; और एसटी स्टेटस को परिभाषित करने के लिए धर्म को एक पैरामीटर के रूप में स्थापित करना.
अगरतला रैली से एक दिन पहले, असम में माजुली के नदी द्वीप पर एक साथ दो समारोह हुए. जब माजुली में विभिन्न चर्चों में क्रिसमस उत्सव मनाया जा रहा था, तब एक "स्वधर्म सुरक्षा दिवस" दक्षिणपत गृहश्रमी सत्र और असम के विश्व हिंदू महासंघ द्वारा सत्राधिकार जनार्दन देव गोस्वामी के नेतृत्व में आयोजित किया गया था. गोस्वामी असम में कई वैष्णव मठों के मुख्य पुजारी हैं.
वर्षों से गोस्वामी, जो वैचारिक रूप से आरएसएस से जुड़े हैं, माजुली और शेष असम में मिसिंग समुदाय के बीच धर्मांतरण, विशेष रूप से ईसाई धर्म के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. हाल ही में, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी उत्तर कमलाबाड़ी सत्र में आयोजित एक कार्यक्रम के लिए माजुली का दौरा किया, जिसमें असम के 48 सत्रों और पूरे पूर्वोत्तर के 37 विभिन्न धार्मिक संस्थानों और संप्रदायों के नेताओं ने भाग लिया.
25 दिसंबर 2021 को गोस्वामी और वीएचएम ने माजुली में क्रिसमस समारोह का विरोध करने के लिए माजुली के जेनग्रेमुख में शिव मंदिर के सामने "भागवत पाठ" आयोजित किया था. पाठ के दौरान, उन्होंने और वीएचएम ने पाठ में भाग लेने वाले लोगों को भागवत गीता की प्रतियां और एक तुलसी का पौधा वितरित किया, इस कार्यक्रम में धर्मांतरण के खिलाफ भाषण भी दिए गए थे.
लेकिन तथ्य यह है कि आदिवासियों और आदिवासी समुदायों ने कभी भी खुद को हिंदू नहीं माना है. जनजातीय समुदायों ने हमेशा जनगणना के दौरान उन पर थोपे गए हिंदू टैग का विरोध किया है. उनका मानना है कि वे गलत वर्गीकरण का शिकार हुए हैं, क्योंकि जीववादी धर्मों के लिए कोई श्रेणी नहीं है, सभी आदिवासियों को या तो हिंदू या "अन्य" के रूप में गिना जाता है. ये समुदाय इसका विरोध कर रहे हैं और पांच राज्यों-झारखंड, ओडिशा, बिहार, असम और पश्चिम बंगाल के स्वदेशी समूहों ने मांग की है कि "सरना" धर्म को जनगणना श्रेणी में रखा जाए.
जनजातीय विश्वास प्रणालियां, खासकर असम में, ऐतिहासिक तौर पर आंशिक या पूर्ण रूप से प्रतिस्पर्धा और आत्मसात हो जाने की कहानियों से जुड़ी रही हैं. जिस मिसिंग समुदाय से मैं जुड़ा हूं, उसने न तो पूरी तरह से आत्मसात किया है और न ही एकीकृत करने के प्रयासों का पूरी तरह से विरोध किया है. दोनों मान्यताएं, वैष्णववाद और पारंपरिक मिसिंग विश्वास प्रणाली, समानांतर रूप से जारी हैं. मिसिंग जनजातियां बड़े तानी समूह का हिस्सा हैं, जो असम और अरुणाचल प्रदेश में फैली हुई हैं. तानी समूह - लगभग 17 लाख लोग - न्यीशी, आदि, अपातानी, गैलो, टैगिन और मिसिंग समुदायों से बना है. पहले पांच समूह अरुणाचल प्रदेश में रहते हैं. अधिकांश मिसिंग जिनकी पिछली जनगणना के अनुसार संख्या लगभग 6.8 लाख है, आधुनिक असम में रहते हैं, जबकि लगभग पचास हजार अरुणाचल प्रदेश में रहते हैं.
मिसिंग जनजातियों की सबसे अधिक संख्या माजुली में पाई जाती है, जहां 2011 की जनगणना के अनुसार, उनकी आबादी 41 प्रतिशत है. माजुली को कई नाम दिए गए हैं - असमिया सभ्यता का उद्गम स्थल, असम की सांस्कृतिक राजधानी, असम का वेटिकन सिटी - और चूंकि यह दुनिया के सबसे बड़े बसे हुए नदी द्वीपों में से एक है, इसलिए इसे एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल के रूप में जाना जाता है. बीजेपी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने इसे एक अलग जिला घोषित किया, जिसमें नए क्षेत्र जोड़े गए. जोरहाट और माजुली को जोड़ने वाला एक पुल अब बनाया जा रहा है. मिसिंग के अलावा, द्वीप पर मौजूद अन्य समुदाय देवरिस, कचारिस, अहोम, कोच और कलितास हैं. भीषण बाढ़ के कारण अधिकांश आबादी नियमित रूप से विस्थापित होती है.
हालांकि माजुली की उत्पत्ति के विभिन्न वर्णन हैं, यह पंद्रहवीं शताब्दी में श्रीमंत शंकरदेव द्वारा शुरू किए गए वैष्णव आंदोलन के साथ प्रसिद्ध हुआ, जिन्होंने माजुली का पहला सत्र बनाया था. एक समय द्वीप में 65 से अधिक सत्र थे जिनमें से 22 आज भी कार्य कर रहे हैं. मिसिंग और विभिन्न अन्य जनजातियों को वैष्णव संप्रदाय में लाने का सबसे पहला प्रयास शंकरदेव द्वारा भागवत परंपरा के एक नए धार्मिक आंदोलन, एकसारन हरि नाम धर्म के रूप में किया गया था. हालांकि, आदिवासी समुदायों के बीच इसे सीमित सफलता मिली.
शंकरदेव के उत्तराधिकारियों में से एक, गोपालदेव ने एक नया उप-संप्रदाय विकसित किया, जिसे काल-संघति के नाम से जाना जाता है, जिसने जनजातियों के जीववाद और सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों को समायोजित करने के लिए एकसारना के सिद्धांतों को कमजोर कर दिया और उन्हें भटकटिया प्रणाली से परिचित कराया. मिसिंग जैसी जनजातियों को काल-संघति के अंतर्गत लाया गया. विद्वान जे-इउन शिन इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि हालांकि "ऐसा प्रतीत होता है कि शंकरदेव ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को त्यागा नहीं है, उनकी शिक्षाएं ब्राह्मणवादी पुरोहितवाद के लिए एक चुनौती के समान थीं और उन्होंने धर्मग्रंथों और पूजा के कीर्तन रूप की सराहना करके ब्राह्मणवादी कर्मकांड के महत्व को कम कर दिया."
हालांकि, विद्वान महेश्वर नियोग और शिन ने यह भी बताया है कि शंकरदेव ने भागवत पुराण के अपने रूपांतरण में ग्रंथ में दिए गए म्लेच्छ लोगों के नामों को क्षेत्र में मौजूदा जनजातियों के नामों से प्रतिस्थापित कर दिया. शंकरदेव के उत्तराधिकारी माधवदेव का मानना था कि एक बार जब कोई म्लेच्छ वैष्णव धर्म स्वीकार कर लेता है, तो वह म्लेच्छ नहीं रह जाता. यह स्पष्ट है कि शुरुआत से ही, जीवन जीने के जनजातीय तरीके को आदर्श के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसी चीज़ के रूप में देखा गया जिसे पीछे छोड़ दिया जाना चाहिए.
एक सत्र की समृद्धि और प्रभाव सीधे तौर पर अहोम साम्राज्य के साथ उसके संबंधों से जुड़ा था, खासकर ऊपरी असम में. कुछ अहोम राजाओं द्वारा खुलेआम सत्रों पर अत्याचार करने पर यह रिश्ता घटता-बढ़ता रहा. समय के साथ ब्राह्मणों के नेतृत्व वाले सत्रों को राजाओं का आधिकारिक संरक्षण मिलना शुरू हो गया, जो इस हद बढ़ा तक कि ऐसा संरक्षण केवल ऐसे मठों तक ही सीमित हो गया. विशेषकर माजुली में ब्राह्मण सत्रों को अन्य सुविधाओं के अलावा, राजा से अनुदान के रूप में हजारों एकड़ राजस्व-मुक्त भूमि प्राप्त होती थी. राजा के पदभार संभालने के बाद अपने पहले आधिकारिक दौरे के रूप में सत्रों का दौरा करना, या सत्राधिकारों द्वारा स्वर्गारोहण समारोह को आशीर्वाद देना जैसी प्रथाएं बाद में स्थापित की गईं.
संयोग से, 2021 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के घोषणापत्र में असम में सभ्यता को मजबूत करने पर एक खंड शामिल था, जिसमें हाइलाइट करते हुए लिखा गया था, "सत्र भूमि रिकवरी टास्क फोर्स" स्थापित किया जाएगा, जो सत्र भूमि के अतिक्रमण को रोकेगा और अतिक्रमित भूमि को वापस हासिल करेगा. इसके अतिरिक्त, इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया कि बीजेपी असम में "लव जिहाद" और "भूमि जिहाद" से निपटने के लिए कानून लाएगी. 5 फरवरी 2022 को बारपेटा सत्र की भूमि खाली करने के सरकारी अभियान के तहत असम के बारपेटा जिले से 37 परिवारों को बेदखल कर दिया गया था. राज्य की बीजेपी सरकार ने हिंसक रूप से निष्कासन करने के लिए खुले तौर पर बुलडोजर का उपयोग किया है. विभिन्न बेदखली अभियानों से विस्थापित हुए लोगों में से अधिकांश बंगाली मूल के मुसलमान और अन्य कर्बी, आदिवासी, मिसिंग और तिवास जैसे समुदाय से हैं.
सत्र संस्कृति का केंद्र भी हैं. क्षेत्र के कई नृत्य रूपों, संगीत और साहित्यिक परंपराओं का पता सत्रों से लगाया जा सकता है. मौजूदा सत्रों में से कई अभी भी एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा का दावा करते हैं. उदाहरण के लिए, हर नवंबर में आयोजित होने वाला रास महोत्सव माजुली की यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय माना जाता है. हालांकि, ये वही स्थान हैं जो आदिवासी जीवन शैली और उसके हिंदू धर्म में शामिल होने के बीच के विवादों को सामने लाते हैं. माजुली के वर्तमान विधायक और बीजेपी के भुबम गम ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा कि उनके बचपन में, मिसिंग और अन्य आदिवासी लोग, जो रास महोत्सव में भाग लेने जाते थे, उन्हें कार्यक्रम स्थल से दूर लगभग एक किलोमीटर पहले अपनी चप्पलें उतारनी पड़ती थीं. सत्राधिकार महेश गोस्वामी ने एक स्थानीय समाचार चैनल को बताया कि जब मिसिंग उनके दादा, जो एक पूर्व सत्राधिकार थे, से मिलने गए थे, तो मिसिंग जिस लकड़ी के स्टूल पर बैठे थे, उसे बाद में धोया गया था.
माजुली के एक मिसिंग शिक्षाविद् ने अपनी पहचान गोपनीय रखने की शर्त पर मुझे बताया कि "पड़ोस के सत्र ने हमें कभी भी अपने इलाके में प्रवेश नहीं करने दिया और हमें बर्तन भी छूने नहीं दिए." उन्होंने आगे कहा, "यहां तक कि जब हमें पानी दिया जाता था, तब भी हमें गिलास छूने की इजाजत नहीं थी." उन्होंने कहा कि इस तरह की "भेदभावपूर्ण प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित है और हमें सत्रों से दूर रखती है."
हालांकि मिसिंगों के बीच जातिगत भेदभाव मौजूद नहीं है, फिर भी "शुद्ध" और "अशुद्ध" की अवधारणाएं यहां घर कर गई हैं. एसटी समुदायों के बीच ऐसी प्रथाओं का आगमन और इस तरह का व्यवहार इन समुदायों के हिंदूकरण का प्रत्यक्ष परिणाम है. यह संघ की इस इच्छा पर भी काम करता है कि सूची से हटाया जाना आदिवासियों के बीच धर्म परिवर्तन से जोड़ा जाए.
जेडीएसएसएम के प्रमुख कुंबांग ने मुझे बताया कि उनकी मुख्य मांग है कि "अनुच्छेद 342 (एसटी के लिए) में संशोधन कर इसे अनुच्छेद 341 (एससी के लिए) के बराबर किया जाए." अनुच्छेद 341 (एससी) में कहा गया है, यदि कोई एससी व्यक्ति किसी अन्य धर्म में परिवर्तित हो जाता है तो उसे एससी आरक्षण की सुविधा नहीं दी जाएगी. हालांकि, जो चीज अनुच्छेद 341 और अनुच्छेद 342 को अलग करती है वह धर्म का पैरामीटर है. एससी श्रेणी को बनाए जाने का कारण हिंदू जाति-आधारित व्यवस्था के भीतर अस्पृश्यता का होना था.
अनुच्छेद 342(1) के अनुसार, “राष्ट्रपति किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में और राज्य के राज्यपाल से परामर्श के बाद एक सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा जनजातियों या आदिवासी समुदायों के भीतर समूह को अनुसूचित जनजाति के रूप में निर्दिष्ट कर सकता है.” हालांकि, संविधान में अनुसूचित जनजाति के गठन के मानदंड स्पष्ट नहीं हैं.
1965 की लोकुर समिति की स्थापना उन शर्तों का आकलन करने के लिए की गई थी जो एससी और एसटी की सूची में निर्दिष्ट होने के लिए पात्रता निर्धारित करेंगी. समिति की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जाति की सूची तैयार करते समय, छुआछूत की ऐतिहासिक प्रथा के कारण उत्पन्न सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन को ध्यान में रखा गया. एसटी सूची के लिए रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “अनुसूचित जनजातियां किसी भी धर्म से संबंधित हो सकती हैं. उनके जीवन जीने के तरीके के कारण उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. यह स्पष्ट है कि आरएसएस समर्थित आंदोलन का कोई संवैधानिक आधार नहीं है. हालांकि, समिति ने स्वीकार किया कि अधिक उन्नत समुदायों को धीरे-धीरे आरक्षण से बाहर किया जाना चाहिए. यह सिफ़ारिश आर्थिक प्रगति पर आधारित थी न कि धार्मिक रूपांतरण पर, जैसा कि संघ और उसके सहयोगियों ने मांग की थी.
मिसिंग लोगो पर इन विभिन्न राजनीतिक-धार्मिक धाराओं की जटिलताओं का संभवतः एक अनपेक्षित प्रभाव हुआ है. मिसिंग और तानी समूह से संबंधित अन्य समुदायों की पारंपरिक विश्वास प्रणाली पीढ़ीयों से मौखिक रूप से बताई गई है. मिसिंगों में बिजली कड़कने, नदियों और जंगल समेत कई अन्य चीजों के लिए विशिष्ट अनुष्ठान हैं. आम धारणा यह है कि हमारे चारों ओर आत्माएं और ऊर्जाएं हैं और आत्माओं को प्रसन्न करने, शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रहने के लिए अनुष्ठान किए जाते हैं. चूंकि विश्वास प्रणाली संस्कृति और दैनिक प्रथाओं के साथ जुड़ी हुई है, इसलिए इसे दस्तावेज़ीकृत करने या संस्थागत बनाने की कभी आवश्यकता नहीं थी. अन्य धर्मों, विशेष रूप से ईसाई धर्म के साथ बढ़ती निकटता के साथ मिसिंग और अन्य तानी समुदायों के बीच नए उभरते बुद्धिजीवियों ने अपनी विशिष्ट संस्कृति और पहचान को संरक्षित करने के प्रयास किए हैं. इनमें से सबसे प्रमुख डोनयी-पोलो आंदोलन है. जबकि विद्वान अक्सर डोनयी-पोलो को एक पुनरुत्थानवादी आंदोलन बताते रहे हैं. मेरे लिए यह एक ख़त्म होती पहचान की रक्षा के उद्देश्य से संस्थागत बनाने का एक प्रयास है.
डोनयी-पोलो का मतलब सूर्य और चंद्रमा से है, मिसिंग विश्वास प्रणाली के लगभग सभी अनुष्ठानों में इनका आह्वान किया जाता है. संस्थानीकरण के प्रयासों से संगठित धर्मों के अन्य प्रतीकों का अनुकरण हुआ. उदाहरण के लिए आंदोलन ने भगवान की कल्पना, एक झंडा, एक पूजा स्थल, जिसमें साप्ताहिक प्रार्थनाओं के लिए विशिष्ट दिन शामिल थे, की शुरुआत की. उनका मानना था कि ये प्रयास पारंपरिक विश्वास प्रणाली को आधुनिक बनाएंगे और शिक्षित युवाओं के बीच मजबूत उपस्थिति दर्ज करेंगे, जो आधुनिक शिक्षा का पालन करने के कारण, कभी-कभी पारंपरिक अनुष्ठानों को अंधविश्वास के रूप में देखते हैं.
मेरा मानना है कि इस तरह के कोड और संरचनाओं का प्रवर्तन, पदानुक्रम के रूपों को संस्थागत बनाकर, मिसिंग विश्वास प्रणाली की लोकतांत्रिक प्रकृति को कमजोर करता है, जो सामाजिक नियंत्रण का एक साधन बन जाता है, कुछ ऐसा जो पहले विश्वास प्रणाली की एक परिभाषित विशेषता नहीं थी. उदाहरण के लिए, वैष्णव धर्म में परिवर्तित आदिवासियों को जाति पदानुक्रम में सबसे निचला दर्जा दिया गया था.
डोनयी-पोलो आंदोलन असम में मिसिंग लोगों के बीच महत्वपूर्ण पैठ बनाने में सक्षम नहीं हो पाया है. इसके अधिकांश अनुयायी जोनाई क्षेत्र में हैं, शायद इसकी वजह पासीघाट है, जहां इस आंदोलन की स्थापना हुई थी. अपनी शुरुआत में आंदोलन का रुख धर्मांतरण के खिलाफ था, खासकर ईसाई धर्म के प्रति, लेकिन जब हिंदू धर्म की बात आती है तो यह अपेक्षाकृत अस्पष्ट हो जाता है. डोनयी-पोलो अनुयायियों के विरोध के बावजूद, आरएसएस ने डोनयी-पोलोवाद को सनातन धर्म के विस्तार के रूप में बनाया है. ऐसा करने में आरएसएस ने जो किया है वह ईसाई धर्म को "विदेशी" के रूप में और हिंदू धर्म और अन्य आदिवासी धर्मों को स्वदेशी के रूप में बताने वाले आंदोलन के साथ जुड़ना है. यह आरएसएस की नीतियों में "अन्य" बनाम एक सामान्य "स्वदेशी" पहचान बनाने का एक उपकरण बन जाता है. यह धर्मांतरित लोगों पर हमलों को उचित ठहराने में भी मदद करता है, भले ही वे आदिवासी हों और धर्म के आधार पर समुदायों के भीतर मौजूदा दोष और भी मजबूत हो जाते हो.