“अदालत ने हमारे साक्ष्यों को स्वीकार नहीं किया”, रविदास मंदिर के याचिकाकर्ता

ऋषि कोछड़/कारवां
07 September, 2019

10 अगस्त को दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने तुगलकाबाद स्थित 15वीं सदी के संत और कवि रविदास के मंदिर को गिरा दिया. संत रविदास दलितों के श्रद्धेय संत हैं. मंदिर गिराए जाने के खिलाफ दलितों और रविदासियों ने बड़े आंदोलन किए. पंजाब में 13 अगस्त को आंदोलनकारियों ने बंद का आह्वान किया और बाद में दिल्ली में हुए प्रदर्शन में हजारों लोगों ने भाग लिया.

केन्द्र सरकार और मंदिर का रखरखाव करने वाली रविदास जयंती समारोह समाज के बीच मंदिर के स्वामित्व को लेकर तीन दशक से कानूनी लड़ाई जारी थी. इस साल अप्रैल में समाज यह केस हार गया था.

समाज के अध्यक्ष ऋषि पाल इस मामले में एकमात्र चश्मदीद थे. जिला अदालत में दायर अपने शपथपत्र में पाल ने दावा किया है यह जमीन उनके पुरखों की है और 19वीं शताब्दी के आरंभ से ही उनके पुरखे मंदिर का प्रबंधन करते आए हैं. कारवां के स्टाफ राइटर सागर के साथ बातचीत में पाल ने मंदिर पर समाज की दावेदारी, दलित समुदाय के लिए इसके महत्व और सरकार और अदालत से मिली निराशा पर प्रकाश डाला. उनका कहना है कि वे अदालत का सम्मान करते हैं लेकिन “अदालतों ने इस मामले को ठीक से नहीं समझा.”

सागर : रविदास मंदिर के निर्माण का इतिहास और जमीन पर समाज के दावे की पृष्ठभूमि क्या है?

ऋषि पाल : हमारे गुरु रविदास 16वीं शताब्दी की शुरुआत में यहां आकर 3 दिन ठहरे थे और लोगों को प्रवचन दिया था. दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान सिकंदर लोदी उन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने यह जमीन उन्हें दे दी. उस वक्त यह जमीन बहुत बड़ी हुआ करती थी लेकिन बाद में लगभग साढ़े 12 हजार वर्ग यार्ड की इस जमीन को हम अपने पास नहीं रख पाए. हमारे गुरु ने यहां आ कर कोढ़ियों को ठीक किया. यहां एक तालाब था जिसका नाम बाद में “चमारवाला झोड़” पड़ा. हमारे गुरु कोढ़ियों को आशीर्वाद देते और उन्हें तालाब के पानी में डुबकी लगाने को कहते. यह परंपरा आज तक जारी है.

डीडीए ने 1980 के दशक में तालाब के चारों ओर दीवार बना दी लेकिन लोग वहां आज भी जाते हैं. वे तालाब का पानी घर ले जाते हैं और दीवार के पास स्नान भी करते हैं. परंपरा का अनुसरण करते हुए, लोग अपने कपड़े पास के पेड़ से बांध देते हैं. 1930 में मेरे पूर्वज रूपानंदजी ने यहां एक झोपड़ी बना ली और पूजा करने लगे. उनकी मृत्यु के बाद पास में ही उनकी समाधि बना दी गई. उनके बाद पूजा पाठ का काम शेरा सिंह ने संभाला. शेरा सिंह के बाद हरिहर बाबा यहां के केयरटेकर बने. इन लोगों की मृत्यु के बाद मंदिर के पास ही उनकी समाधि बना दी जाती.

सागर: यह मंदिर कब बना?

ऋषि पाल : 1959 से अब तक के जो राजस्व रिकॉर्ड हमने कोर्ट में पेश किए थे, वे दिखाते हैं कि चमारवाला झोड़ का अस्तित्व पहले से था. उस वक्त आस-पास लोग नहीं रहते थे और तुगलकाबाद एक्सटेंशन या गोविंदपुरी विकसित नहीं हुए थे. यह जमीन स्थानीय ग्रामसभा के स्वामित्व में थी जिसके सदस्य हमारे अपने चमार समुदाय से थे. इस जमीन का स्वामित्व समाज के पास था.

मंदिर का निर्माण 1954 में शुरू हुआ और 1959 तक चला. हमारे समुदाय ने इसे बनाया. समाज के सदस्यों ने तत्कालीन रेल मंत्री जगजीवन राम को मंदिर के उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया और 1 मार्च 1959 को उन्होंने मंदिर का उद्घाटन किया. इसके तुरंत बाद 1959 में सोसाइटी का पंजीकरण कर लिया गया.

सागर : लेकिन निचली अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि सोसाइटी ने जमीन के स्वामित्व से संबंधित कोई रिकॉर्ड पेश नहीं किया?

ऋषि पाल : हमने उन्हें राजस्व रिकॉर्ड दिखाए थे लेकिन उन्होंने इन्हें नहीं माना. जो भी हमारे पक्ष में था उसे रिकॉर्ड नहीं किया गया. उन्होंने केवल उन्हीं दस्तावेजों को माना जो हमारे खिलाफ थे.

सागर : डीडीए ने जमीन पर अपनी दावेदारी क्यों की?

ऋषि पाल : 1962 में डीडीए ने दिल्ली का मास्टर प्लान जारी किया. डीडीए का कहना है कि उस वक्त उन्होंने हमारे मंदिर की जमीन भी अधिग्रहण कर ली थी. मुझे लगता है कि ऐसा उन लोगों ने अपने ऑफिस में बैठे-बैठे ही कर लिया था. उन लोगों ने इस बात की परवाह नहीं की कि कौन सा खसरा किस स्थान का है. उदाहरण के लिए, हमारे मंदिर परिसर का खसरा केवल कागजों में अधिग्रहण किया गया. वे लोग इस जगह पर नहीं आए और उन्हें पता नहीं था कि यहां एक मंदिर है, समाधियां हैं और तालाब है.

1963 के बाद भी यह जमीन हमारे कब्जे में थी और हम इसका प्रबंधन कर रहे थे और हमें कोई परेशानी नहीं हुई. हमने यहां एक स्कूल और एक धर्मशाला का निर्माण किया.

ऋषि कोछड़/कारवां

सागर : डीडीए ने सबसे पहले कब जमीन खाली करने को कहा था?

ऋषि पाल : 1983 में डीडीए ने अपने स्वामित्व वाली जमीन के चारों तरफ बाउंड्री वॉल बनानी शुरू की. लेकिन उन्होंने हमारी जमीन छोड़ दी जो अपने आप में यह दिखाता है कि यह जमीन हमारे समाज की थी. यहां तक कि इन लोगों ने मुख्य सड़क से मंदिर तक जाने के लिए रास्ता भी छोड़ा.

फिर 1986 में डीडीए ने नोटिस भेज कर कहा कि वह खसरा नंबर 122 का अधिग्रहण कर रही है. हमारे समाज ने नोटिस के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अर्जी लगाई. अदालत ने दोनों पक्षों को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया. अदालत ने हमें भी किसी तरह की गतिविधि न करने की हिदायत दी. 1992 में उन लोगों ने स्कूल और धर्मशाला गिरा दी. 1992 में हम एक बार फिर निचली अदालत गए. जहां से 1997 में यह मामला उच्च अदालत चला गया.

उच्च अदालत ने जमीन के स्टेटस पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए स्थानीय आयुक्त को नियुक्त किया. आयुक्त की रिपोर्ट में मंदिर और चमारवाला झोड़ के अस्तित्व में होने की बात है. आयुक्त ने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा कि गांव वालों ने उन्हें बताया है कि इस जमीन पर 30-40 साल से समाज का कब्जा है. उस रिपोर्ट के बाद डीडीए ने कोई कार्रवाई नहीं की और हमने भी मामले को आगे नहीं बढ़ाया.

2010 में एक बार फिर हमें निचली अदालत के सामने उपस्थित होने का समन मिला. हमने एक बार फिर कोर्ट के सामने तमाम तथ्य रखे. लेकिन हमारे तथ्यों की अनदेखी करते हुए अदालत ने डीडीए के तथ्यों को स्वीकर करते हुए 2018 की जुलाई में हमारे खिलाफ फैसला सुना दिया. हमने हाई कोर्ट में अपील की. हाई कोर्ट ने भी हमारी नहीं मानी. ऐसा लग रहा था जैसे हमसे यह मान लेने को कहा जा रहा है कि हम मंदिर की 100 यार्ड जमीन रख कर बाकी उनके हवाले कर दें. मुझे नहीं लगता कि आवश्यक कानूनी प्रक्रिया का पालन किया गया है. अदालत ने कहा कि डीडीए समाधियों को न हटाने पर विचार कर रही है लेकिन मंदिर को एक अलग स्थान पर बनाया जाएगा. लेकिन डीडीए ने उस छोटी जमीन को देने से इनकार कर दिया.

हमने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली लेकिन वहां भी हमारी याचिका खारिज हो गई. मैं कोर्ट का सम्मान करता हूं लेकिन मुझे लगता है कि अदालतों ने हमारे मामले को ठीक तरह से नहीं समझा.

सागर : लेकिन डीडीए का कहना है कि उसने खसरा संख्या 122, 123 और 124 असली मालिकों को क्षतिपूर्ति देकर हासिल किया है.

ऋषि पाल: इन लोगों ने कब्जा कार्रवाई केवल खसरा नंबर 122 के लिए की है जिसमें हमारी खेती की जमीन और स्कूल थे. अधिकरण करते वक्त इन लोगों ने इस जमीन को गैर मुमकिन घोषित किया. हमने इसका कंपनसेशन लेने से इनकार कर दिया लेकिन अदालत ने हमारी जिरह नहीं मानी क्योंकि हमारे पास दावे को साबित करने के दस्तावेज नहीं थे. हमारी समिति के सदस्यों के पास जमीन के लिए सरकार को जमा कराए गए कर की रसीदें नहीं थीं. कब्जा कार्रवाई खसरा नंबर 123 और 124 के लिए नहीं की गई.

सागर : केन्द्र सरकार से आप क्या मांग कर रहे हैं?

ऋषि पाल : हम चाहते हैं कि केन्द्र सरकार हमारे प्रति न्याय करे. हम देशभर में 30-40 करोड़ हैं और इस जगह के साथ हमारी धार्मिक आस्था जुड़ी है. हमारे कई गुरु यहां दफ्न हैं. सरकार को चाहिए कि वह हमें यह जमीन लौटा दे ताकि हम इस पर दोबारा मंदिर बना सकें.