2006 में बिहार सरकार ने कृषि क्षेत्र को नियंत्रण मुक्त कर दिया और खाद्यान्न खरीद पर सरकारी निगरानी को हटा दिया. पहले खाद्यान्न खरीद का अधिकांश हिस्सा कृषि उपज मंडी समिति के माध्यम से होता था, जो राज्य सरकार द्वारा संचालित एक विपणन बोर्ड होता था जो मंडियां लगाता जहां किसान तय किए हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अपनी उपज सीधे भारतीय खाद्य निगम या राज्य कृषि निगम को बेच सकते थे. एमएसपी किसानों को बाजार में उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए सरकार द्वारा दी जाने वाली कीमत है. 2006 में बिहार इस प्रणाली की जगह पंचायत स्तर की सोसायटियों की प्राथमिक कृषि साख सोसायटियों या पीएसीएस को ले आया जो खाद्यान्न खरीद में एक बिचौलिए के रूप में काम करते हैं. पीएसीएस किसानों से अनाज खरीदते हैं और इसे एफसीआई, एसएफसी या निजी थोक विक्रेताओं को बेचते हैं. हाल के तीन कृषि कानून से वही स्थिति हो जाएगी जो बिहार की 2006 के बाद हुई है. वास्तव में राज्य एमएसपी पर किसानों से सीधे अतिरिक्त अनाज खरीदने का बोझ नहीं उठा सकता है. इन कानूनों के पारित होने के बाद भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं ने कहा कि बिहार में पीएसीएस के प्रयोग ने किसानों को आर्थिक स्वतंत्रता दी और उनकी आमदनी बढ़ाई है. बिहार में मैंने जिन किसानों और पीएसीएस के अध्यक्षों से बात की उनमें से ज्यादातर ने मुझे बताया कि गेहूं और धान के किसानों की आय उससे बहुत कम हो गई है जितनी एपीएमसी प्रणाली के तहत हुआ करती थी. निजी मिलों के शामिल होने, किसानों को समय पर भुगतान कर पाने में सरकारी संस्थाओं की अक्षमता और राज्य एजेंसियों की खराब योजना के चलते ऐसा हुआ है.
कृषि कानूनों के खिलाफ हालिया विरोध प्रदर्शन के दौरान बीजेपी के नेता अक्सर बिहार के कृषि क्षेत्र को ऐसी सफलता की कहानी के तौर पर पेश करते रहे हैं जिसका देश भर में पालन होना चाहिए. 13 दिसंबर 2019 को बीजेपी ने पटना के भक्तिपुर इलाके में किसान चौपाल का आयोजन किया ताकि किसानों को आश्वासन दिया जा सके कि तीन नए कानून उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. कृषि पर केंद्रित क्षेत्रीय पत्रिका कृषि जागरण ने राज्य के बीजेपी प्रमुख संजय जायसवाल को उद्धृत किया है. सम्मेलन के दौरान उन्होंने कहा, "किसानों को भरमाने वाले किसानों को अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं." इसके अलावा, पत्रिका ने केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को भी उद्धृत किया. उन्होंने किसानों को आश्वासन दिया कि "नए कानूनों के तहत एमएसपी जारी रहेगी और इसलिए मंडी प्रणाली भी जारी रहेगी." उन्होंने कहा कि नए कानूनों "का उद्देश्य किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए उन्हें बिचौलियों के बिना अपने कृषि उत्पादों की बिक्री का प्रत्यक्ष लाभ प्रदान करना” है. दोनों वक्ताओं ने कहा कि एपीएमसी के 2006 के निरस्तीकरण के बाद बिहार का कृषि ट्रैक रिकॉर्ड यही साबित करता है. डेक्कन हेराल्ड ने प्रसाद के हवाले से बताया, "कानून किसानों को अपनी उपज या तो मंडी या पीएसीएस में या मंडी, पीएसीएस या व्यापर मंडल के दायरे से बाहर बेचने का मौका देता है ... मैं बस यह पूछना चाहता हूं कि किसानों को ऐसी स्वतंत्रता या मौका दिया जाए या नहीं.”
पीएसीएस में प्रसाद और जायसवाल के भरोसे के उलट राज्य में किसानों और पीएसीएस के अध्यक्षों ने मुझे बताया कि इस प्रणाली में कई बड़ी खामियां हैं और अक्सर किसानों को संकट के वक्त बहुत ही कम कीमतों पर बिक्री करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. "स्वतंत्रता" के उलट प्रसाद ने प्रणाली को लेकर दावा किया कि किसानों को अक्सर लगता था कि उनके उत्पाद की कीमतें सरकारी मशीनरी पर निर्भर थीं जो धीमी तथा भ्रष्ट थीं और अक्सर उन्हें राज्य के एमएसपी से नीचे अपनी उपज बेचने के लिए मजबूर किया जाता था. नई प्रणाली में मिल मालिकों, स्थानीय व्यापारियों और पीएसीएस अध्यक्षों सहित नए बिचौलिए भी हैं जिनमें से कुछ के बारे में किसानों का मानना है कि वे भ्रष्ट हैं.
एपीएमसी प्रणाली के तहत किसान मामूली शुल्क के लिए स्थानीय मंडी में जगह के लिए आवेदन कर सकते थे. यहां वे एफसीआई और एसएफसी जैसी सरकारी एजेंसियों को या सीधे थोक विक्रेताओं को उपज बेच सकते थे. इन मंडियों को राज्य सरकार द्वारा चलाया जाता था और एक बाजार समिति द्वारा प्रबंधित किया जाता था जिनमें से कुछ स्थानीय रूप से चुने जाते और अन्य को राज्य सरकार द्वारा नामित किया जाता था. खरीदारों को एपीएमसी मंडी में पंजीकृत होना होता जिसका अर्थ था कि सरकार एमएसपी को सख्ती से लागू कर सकती है. मंडी में जगह के लिए आवेदन करने में किसी भी दस्तावेज की आवश्यकता नहीं थी. इससे कई ऐसे किसानों को मदद मिली जिनके पास अक्सर जमीन के पंजीकृत दस्तावेज नहीं होते या जिनके पास अनधिकृत रूप से पट्टे पर ली गई जमीन होती थी. एपीएमसी नमी सोख चुके धान और गेहूं के भंडारण और सुखाने के लिए जगह थी, जिससे यह सुनिश्चित होता था कि किसान अपनी उपज बेचने में देरी कर सकते हैं और अच्छी कीमत पर उसे बेच सकते हैं. कई किसानों ने मुझे बताया कि मंडियों में उन्हें उसी दिन भुगतान किया जाता था जिस दिन उन्होंने अपनी उपज बेची थी.
पीएसीएस प्रणाली ने राज्य में पंचायत स्तर पर 8463 सोसायटियों का निर्माण किया जो किसानों से अनाज खरीदते, इसे एक निजी मिल में भेजते थे, फिर इसे थोक विक्रेताओं या राज्य एजेंसियों को बेचते थे. इन सोसायटियों का प्रबंधन उनके सदस्यों में से चुना जाता है. पीएसीएस में पंजीकरण के लिए भूमि और पहचान दस्तावेजों की आवश्यकता होती है, जिसके चलते अक्सर सीमांत किसानों के लिए या जो लोग अनौपचारिक तौर पर पट्टे की जमीन लेते हैं, उन्हें व्यवस्था से बाहर रखा जाता. प्रत्येक पीएसीएस के पास अपनी खुद की निधियों का भी अभाव होता है और यह एसएफसी को हुई बिक्री से प्राप्त धन पर निर्भर करता है, जिसका अर्थ है कि किसानों को तब तक भुगतान नहीं किया जाता जब तक कि एसएफसी पीएसीएस के खाते में राशि नहीं डालता, जो कि अगले फसल सत्र की शुरुआत के बाद ही होता है. प्रणाली की जटिलता और इसकी कड़ियों में अनियमितता के कारण कई किसान पीएसीएस में अपनी उपज बेचने में असमर्थ हैं. यह पूरी प्रक्रिया किसानों को उनकी अगली फसल के लिए आवश्यक बीज, उर्वरक और कीटनाशक खरीदने के लिए एमएसपी से नीचे की कीमतों पर बिक्री करने के लिए मजबूर करती है. पीएसीएस के अध्यक्षों ने मुझे यह भी बताया कि पीएसीएस से थोड़ी-बहुत आय होती उसे भी अक्सर निजी मिल उच्च प्रसंस्करण शुल्क के नाम पर हड़प लेती हैं. कुछ मिलें अनाज की मात्रा में हेर-फेर करने की कोशिश करतीं जिसे वापस कर दिया जात. यह पीएसीएस के लिए लंबी कानूनी लड़ाई बन जाती है जिसके चलते किसानों को भुगतान में देरी होती है. पीएसीएस अपने सदस्यों को खाद और बीज वितरित करता है. हालांकि जिन भी किसानों से मैंने बात की उनमे से ज्यादातर किसानों ने बताया कि ऐसा शायद ही कभी हुआ. अन्य राज्यों में जहां पीएसीएस लागू है, उनके द्वारा अक्सर खाद और बीज उपलब्ध कराए जाते हैं. पीएसीएस भी विशेषज्ञों को काम पर रखने के द्वारा नई खेती की तकनीकों के बारे में जागरूकता बढ़ाने वाला है, हालांकि किसानों ने मुझे बताया कि यह बिहार में कभी नहीं हुआ.
बिहार के कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि 2006 से किसानों की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक पीएसीएस में पंजीकरण था. “2015 में बिहार के मनेर के शेरभूका गांव के एक किसान गजेंद्र सिंह ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह अपना अनाज नहीं बेच सके थे और कर्ज में डूब गए,” सेंट्रल इंडियन ट्रेड यूनियन की बिहार इकाई के उपाध्यक्ष अरुण मिश्रा ने मुझसे कहा. मिश्रा ने कहा कि इस मौत के बाद वह सिंह के घर गए थे. “हमने देखा कि एक जगह पर अनाज के बैग रखे हुए थे जैसे कि उन्हें बेचने के लिए तैयार किया गया हो. उन्होंने 8000 रुपए प्रति बीघा की दर से लगभग 18 बीघा जमीन लीज पर ली थी.'' बिहार में एक एकड़ लगभग 1.6 बीघा के बराबर है.
मिश्रा ने कहा कि सिंह ने जमीन को पट्टे पर देने और कृषि लागतों के लिए ब्याज की अत्यधिक दरों पर साहूकारों से कर्ज लिया था. मिश्रा ने कहा, "वह दबाव में थे और अपने कर्ज का भुगतान करने के लिए अपने उत्पाद बेचना चाहते थे. उन्होंने पीएसीएस के माध्यम से इसे बेचने की कोशिश की लेकिन उनके पास उस जमीन का कोई दस्तावेज नहीं था जिस पर उन्होंने खेती की थी. वह अपनी उपज को बेच नहीं सके. इसलिए दबाव में आकर उन्होंने आत्महत्या कर ली. अगर पीएसीएस प्रणाली किसानों के कल्याण के लिए प्रभावी और सुचारू होती, तो गजेंद्र सिंह जीवित होते. उनकी मौत से पता चलता है कि सरकार द्वारा बनाई गई प्रणाली खोखली है और केवल कागजों पर ही है न कि जमीन पर.” कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि हालांकि बिहार में फसल और जमीन के पट्टे आम हैं लेकिन दस्तावेज रखने की कोई संस्कृति नहीं है. सिंह की तरह, यह कई किसानों को पीएसीएस खरीद प्रणाली के बाहर कर देता है.
पीएसीएस के लिए आवेदन प्रक्रिया अब पूरी तरह से डिजिटल है. कई कार्यकर्ताओं और किसानों ने मुझे बताया कि इससे बिना मोबाइल कनेक्टिविटी वाले या ऐसे लोगों के लिए आवेदन करना कठिन हो गया है जो कंप्यूटर चलाना नहीं जानते हैं. पंजीकरण हेतु आवेदन करने के लिए वेबसाइट और साथ ही पंजीकरण के लिए किसान के फोन पर भेजे गए वन-टाइम पासवर्ड अक्सर काम नहीं करते हैं. बिहार के अरवल जिले के पीएसीएस के अध्यक्ष राकेश कुमार ने मुझे बताया, "पीएसीएस में किसानों के पंजीकरण के लिए चीजें ऑनलाइन कर दी गई हैं. इस बार मैं पीएसीएस के माध्यम से किसानों की खरीद के लिए पंजीकरण करते समय इस तरह के मुद्दे पर आया था. साइट प्रक्रिया को पूरा नहीं कर रही है और उनके ओटीपी को स्वीकार नहीं कर रही है. मैंने खुद कुछ किसानों का पंजीकरण करने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका. अगर सिस्टम ऑनलाइन है तो इसे प्रभावी और सुचारू होना चाहिए.” उन्होंने कहा, “कुछ मामलों में किसानों ने अपने नंबर बदल दिए हैं और उन्हें अपने वर्तमान नंबर पर ओटीपी नहीं मिल रहा है. उस स्थिति में वे पंजीकृत नहीं हो सकते हैं और इसलिए उन्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने से वंचित किया जा सकता है.”
विकास अध्ययन के लिए चर्चित और सरकार द्वारा संचालित संस्थान, एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज-पटना, में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डीएम दिवाकर ने मुझे बताया कि उन्होंने बिहार के कई हिस्सों का अध्ययन किया था जहां ऑनलाइन आवेदन के चलते पीएसीएस में पंजीकरण किसानों के लिए दुर्गम बना दिया गया था. उन्होंने कहा, "बिहार में इंटरनेट की पहुंच बहुत कम है और दूरदराज के गांवों में किसान अक्सर पंजीकरण कराने और सेवाओं का लाभ उठाने में असमर्थ हैं. कृषि मंत्रालय के मानदंडों के अनुसार, किसानों की सहायता के लिए प्रत्येक पीएसीएस में एक विशेषज्ञ के साथ एक आईटी केंद्र मौजूद होना चाहिए. इन केंद्रों को वसुधा केंद्र कहा जाता है और वे मुफ्त में काम करने के लिए होते हैं. लेकिन हकीकत यह है कि आप आसानी से ऐसे केंद्र नहीं खोज सकते हैं और जो मौजूद हैं वे किसानों का पंजीकरण कराने की रकम लेते हैं.” दिवाकर ने कहा कि सरकार जितने पंजीकरण कराती है, वे अक्सर भ्रामक होते हैं क्योंकि शहरी क्षेत्रों के लोग या बिचौलिए ऐसे होते हैं जिनके प्रत्येक पीएसीएस में कई खाते दर्ज होते हैं. “प्रणाली ऑनलाइन है इसलिए सरकार कहती है कि चीजें पारदर्शी और सटीक हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. चीजें कागज पर अच्छी हैं लेकिन जमीन पर अच्छी नहीं हैं.”
किसानों और कार्यकर्ताओं ने मुझे यह भी बताया कि पीएसीएस में खरीद का समय कृषि सत्र के अनुरूप नहीं था. धान की कटाई अक्टूबर में की जाती है लेकिन इसके लिए पीएसीएस की खरीद प्रक्रिया आमतौर पर नवंबर के अंत या दिसंबर में शुरू होती है. बिहार के दरभंगा जिले के पीएसीएस अध्यक्ष श्याम भारती ने मुझे बताया कि दिसंबर में हर पीएसीएस को राज्य सहकारी बैंकों से एक लक्षित खरीद राशि का 20 से 40 प्रतिशत के लिए राज्य सरकार द्वारा निर्धारित ऋण राशि या नकद ऋण दिया जाता है. "पीएसीएस तब किसान से धान लेता है, चावल मिलों के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करता है और फिर मिल मालिक चावल को एफसीआई या एसएफसी को भेजता है," उन्होंने कहा. “बदले में पीएसीएस को सरकार से कमीशन के साथ उसके खाते में पैसे की किश्त मिलती है, वह भी कुछ हफ्तों या एक महीने की देरी से. तभी किसान को भुगतान मिलता है. इस सब के बाद ही पीएसीएस किसानों से अगली खरीद आयोजित कर सकता है. इस तरह से यह चक्र चलता है.”
उन्होंने बताया कि खेती के एक पुरे सत्र में अधिकांश पीएसीएस दो-चार खरीद चक्रों के बीच से गुजरते हैं. प्रत्येक चक्र को पूरे एक महीने से अधिक समय लगता है और इस बीच पीएसीएस में अक्सर भंडारण की सुविधा नहीं होती है जिसका अर्थ है कि इंतजार में लगे किसान का अनाज खराब हो सकता है. हर साल धान की खरीद 31 मार्च तक जारी रहती है, जबकि धान की कटाई अक्टूबर में हो गई होती है. भारती ने मुझे बताया कि इस दौरान चावल मिलों को मिलिंग के लिए इंतजार करने और एसएफसी द्वारा पीएसीएस को उसके भुगतान का इंतजार करने के कारण पीएसीएस को राज्य सहकारी बैंक से लिए गए ऋण के ब्याज का भुगतान जारी रखना होटा, जो कि अतिरिक्त वित्तीय बोझ बन जाता है.
राज्य सरकार हर साल धान और गेहूं की खरीद के लिए एक लक्ष्य घोषित करती है. अक्टूबर 2020 की फसल के बाद धान की खरीद का लक्ष्य 45 लाख मीट्रिक टन निर्धारित किया गया था. भोजपुर जिले के एक पीएसीएस अध्यक्ष ने कहा, "हमें किसानों से कृषि उत्पाद खरीदने का लक्ष्य दिया जाता है, लेकिन सरकार सुचारू और प्रभावी प्रक्रिया के लिए पर्याप्त पैसा नहीं देती है. इसके अलावा, हमारे खातों में पैसे जमा करने में देरी हो रही है. किसान को तुरंत पैसा चाहिए होता है और हमारे पास देने के लिए पैसे नहीं हैं. किसान इंतजार नहीं कर सकता क्योंकि उसे रबी की फसलों के लिए खेत तैयार करना पड़ता है. इसलिए ज्यादातर किसान संकट की इस घड़ी में बिक्री का विकल्प चुनते हैं, जिससे उन्हें घाटे का सामना करना पड़ता है और आगे ऋण लेना पड़ता है." मिश्रा ने मुझे बताया कि बिहार के कुछ हिस्सों में लगभग 80 प्रतिशत किसान अपनी पूरी फसल पीएसीएस द्वारा खरीद करने से पहले ही बेच देते, क्योंकि उन्हें अपनी अगली फसल लगाने के लिए पैसे की जरूरत होती है. जिन किसानों से मैंने बात की उन्हें अपना धान 900 से 1300 रुपए प्रति क्विंटल तक बेचना पड़ा, हालांकि इस साल राज्य में धान के लिए एमएसपी 1868 रुपए प्रति क्विंटल था. मिश्रा ने कहा, "सरकार द्वारा निर्धारित खरीद लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता. यह केवल कागज पर होगा."
बिहार में कृषि का अध्ययन करने वाली नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की 2019 की रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया है कि पीएसीएस में खरीद और कारिड की मात्रा पर प्रतिबंधों के कारण किसानों को उससे बहुत कम कीमत मिल रही थी, जो उन्हें मिलनी चाहिए थी. रिपोर्ट में कहा गया है, “किसानों के साथ चर्चा के माध्यम से जमीनी स्तर के सबूतों से पता चलता है कि खरीद कार्य एक निश्चित राशि और समय तक सीमित है और इन प्रतिबंधों को अत्यधिक मनमाना माना जाता है. इसके अलावा पीएसीएस समय पर गेहूं की खरीद नहीं करते हैं, जो कि होनी चाहिए. बाजार में उछाल के बावजूद किसानों को कम कीमत मिलती है.” खेती के मुद्दे पर लिखने वाले पटना के एक स्वतंत्र पत्रकार अनीश अंकुर ने मुझे बताया कि एक स्थिर एमएसपी के बावजूद धान या गेहूं के लिए औसत किसान को जितना पैसा मिला वह लगातार गिरता गया. अंकुर ने कहा, "2019 और 2020 के बीच, चावल के लिए एमएसपी 1815 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया था लेकिन किसानों को केवल 1350 या 1400 रुपए प्रति क्विंटल पर व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर किया गया था. गेहूं के लिए एमएसपी 1925 रुपए था लेकिन बिहार में किसानों को इसे 1800 या इससे भी कम पर बेचना पड़ा. मक्का के लिए किसानों ने 1000 से 1300 रुपए प्रति क्विंटल की कीमत मिलने की सूचना दी जबकि आधिकारिक एमएसपी चालू वर्ष में 1850 रुपए तय किया गया था. ”
बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के बैरिया ब्लॉक के एक किसान गिरधारी राम का मामला बताता है कि पीएसीएस की खरीद का बुरा समय किसानों की आय को कैसे प्रभावित करता है. राम ने बताया कि उन्होंने अक्टूबर के मध्य में धान कटाई की थी लेकिन अपनी अगली फसल बोने के लिए पैसे की सख्त जरूरत थी. दो हफ्तों के इंतजार के बाद भी जब स्थानीय पीएसीएस ने खरीद के बारे में कोई घोषणा नहीं की तो राम ने अपना धान एक स्थानीय व्यापारी को बेच दिया. उन्होंने कहा, "मेरे पास इस साल 14 क्विंटल धान था और मुझे 1170 रुपए प्रति क्विंटल की दर से 12 क्विंटल बेचना पड़ा." उनके पड़ोसी ने काफी इंतजार किया लेकिन नकदी की सख्त जरूरत के चलते एक हफ्ते बाद उसी व्यापारी को 1050 रुपए प्रति क्विंटल पर अपना अनाज बेच दिया. बिहार सरकार ने राम के स्टॉक को बेचने के तीन हफ्ते बाद अपने खरीद लक्ष्य की घोषणा की, जिसमें एमएसपी 1925 रुपए प्रति क्विंटल था. राम ने कहा, "मैं अपने पड़ोसी से ज्यादा खुश हूं लेकिन अगर पीएसीएस प्रभावी होता तो मेरे जैसे छोटे किसान के लिए एक यह अच्छी रकम होती. देर से भुगतान और देर से खरीद ने किसानों को पीएसीएस को फसल बेचने को हतोत्साहित किया है. हमारे क्षेत्र में मेरे जैसे कई लोग हैं. ”
बिहार के भोजपुर जिले के अर्रा नगरपालिका के एक 25 वर्षीय किसान अपना नाम जाहिर करना नहीं चाहते लेकिन उनकी कहानी भी कुछ ऐसी ही है. "22 दिसंबर को मैंने अपने स्थानीय पीएसीएस, पश्चिम गुंडी पंचायत, में 30 क्विंटल धान बेचने के लिए ऑनलाइन आवेदन किया और पांच दिनों के बाद मुझे जवाब मिला और मुझे 6 जनवरी को खरीद के लिए आने के लिए कहा." 6 जनवरी को पता चला कि उनके अनाज की तुरंत खरीद नहीं की जाएगी क्योंकि उन्होंने चावल को स्टोर करने के लिए गनी बैग नहीं खरीदा है. “एक क्विंटल धान के लिए उन्होंने मुझे बताया कि मुझे गनी गनी बैग लाने की जरूरत है. यह पीएसीएस द्वारा दिया जाना चाहिए लेकिन मुझे नहीं पता था कि उनके साथ बहस कैसे की जाए,” उपाध्याय ने कहा. उन्होंने कहा, “इसलिए मैं अर्रा गया और 26 रुपए प्रति बैग की दर से बैग खरीदे. उन सभी खर्चों के बाद मुझे अभी भी पीएसीएस ने किसी भी चीज के लिए भुगतान नहीं किया है. पीएसीएस अध्यक्ष ने मुझे बताया था कि कुछ दिनों में मुझे भुगतान हो जाएगा. अब कई दिन हो गए हैं और मुझे अपने अनाज के लिए कोई भुगतान नहीं किया गया है.
कई पीएसीएस के अध्यक्षों ने मुझे यह भी बताया कि निजी मिलों के साथ काम करते समय उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा. बिहार के राज्य खाद्य निगम धान अधिप्राप्ति अभियान नियमों के अनुसार, निजी मिलों को अपने भण्डार से एसएफसी को अग्रिम रूप से धान के बदले चावल देना होता है जो उन्हें पीएसीएस द्वारा दिया जाता है. यह नियम इसलिए बनाया गया था ताकि राज्य खरीद प्रणाली तेजी से काम करे. लेकिन अरवल के पीएसीएस अध्यक्ष कुमार ने मुझसे कहा कि यह शायद ही कभी सुचारू रूप से होता है. खरीद अभियान के नियमों के अनुसार, प्रत्येक 403 क्विंटल धान के लिए एक पीएसीएस चावल मिल को भेजा जाता है. मिल को 270 क्विंटल चावल एसएफसी को भेजना होता है. यह अंतर भूसी और अन्य अशुद्धियों के वजन के लिए है जिसे प्रक्रिया में हटा दिए गए हैं. साथ ही चावल की एक अतिरिक्त मात्रा है जो मिल अपने काम के भुगतान के बदले बेच सकती है. भारती ने मुझे बताया कि क्योंकि यह भुगतान सिस्टम में बनाया गया था. मिलों को पीएसीएस को मिल के लिए कोई पैसा नहीं देना चाहिए. कई पीएसीएस अध्यक्षों ने मुझे बताया कि कई मिलों ने अभी भी उनसे शुल्क लिया है. भारती ने कहा, “उन्होंने पीएसीएस के प्रसंस्करण के लिए पीएसीएस से 100 से 200 रुपए प्रति क्विंटल का अतिरिक्त शुल्क लिया.'
कई पीएसीएस अध्यक्षों ने मुझे यह भी बताया कि मिल मालिक कभी-कभी एसएफसी को उनकी जरूरत से बहुत कम राशि भेजते हैं. यह लंबी कानूनी लड़ाई की ओर जाता है. पीएसीएस को हतोत्साहित करता है और किसान को भुगतान पाने को स्थगित कर देता है. भारती ने बताया, ''2017 में मैंने दरभंगा के बहादुरपुर थाने में एक मिल के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई जिसे 2346.59 क्विंटल धान के बदले एसएफसी को 1572.21 क्विंटल चावल देना था. 1572.21 क्विंटल चावल के स्थान पर उन्होंने एफएससी को केवल को 540 क्विंटल चावल दिया. इसमें खाद्यान्न का धोखा मिला. मामला अभी भी जारी है लेकिन यह पीएसीएस के सुचारू कामकाज के लिए वास्तव में हतोत्साहित करने वाला पहलू है. ऐसे कई मामले हैं जिन्होंने पीएसीएस प्रणाली को कमजोर बना दिया है. ”
कार्यकर्ताओं ने मुझे यह भी बताया कि पीएसीएस प्रणाली की जटिलता के कारण स्थानीय व्यापारी अक्सर बिचौलियों के रूप में काम करते हैं. अनिल कुमार रे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं. वह 20 वर्षों से किसानों के अधिकारों के लिए काम कर रहे हैं, उन्होंने कहा, ''बिहार में लगभग सभी पंचायतों में पीएसीएस मौजूद हैं लेकिन पीएसीएस के माध्यम से अनाज खरीदने की जानकारी दुर्लभ है. “बिहार में छोटे किसानों की संख्या बहुत अधिक है जिनमें बहुत कम ही अपनी घरेलू जरूरतों से अधिक अनाज पैदा कर पाते हैं. जो किसान अनाज या दाल बेचने की स्थिति में होते हैं वे ज्यादातर जरूरत पड़ने पर कम मात्रा में बेचते हैं. अपने अनाज को साफ करना और अपने स्थानीय पीएसीएस के अध्यक्ष के दरवाजे पर ले जाना और फिर उसके नखरे सहना मुश्किल है." उन्होंने कहा, “इसके बजाय वह स्थानीय व्यापारी को बुलाते हैं जो निर्धारित मूल्य से कम कीमत पर उनका अनाज खरीदता है और फिर इसे पीएसीएस को बेचता है. बिहार में हर जगह आमतौर पर यही होता है. पीएसीएस अध्यक्ष अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपनी मजबूरी भी बताते हैं. यह प्रशासनिक भ्रष्टाचार का संकेत है क्योंकि केवल किसानों को पीएसीएस में बेचने की अनुमति है.”
पटना के प्रोफेसर दिवाकर ने मुझे यह भी बताया कि बिचौलिया अक्सर पीएसीएस खरीद में बड़ी भूमिका निभाते हैं. "पीएसीएस का मॉडल पूरी तरह से विफल है," उन्होंने मुझे बताया. “व्यवहार में इस प्रणाली से काला बाजारी और भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है. पीएसीएस और कुछ चुनिंदा किसानों के बीच उनकी फसल पहले खरीदने को लेकर एक मजबूत सांठगांठ है. अतिरिक्त अनाज की खरीद बंद करने के लिए पीएसीएस और मिल मालिकोंके बीच भी सांठगांठ है. और अंत में, सरकारी अधिकारियों के साथ प्रणाली में सांठगांठ है ताकि भुगतान सही ढंग से और समय पर किया जाए. इसलिए कुछ अपवादों को छोड़ कर पूरी प्रणाली पारदर्शी होने या बिहार में किसानों की मदद करने में विफल रही है.”
कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि राज्य खाद्यान्न खरीद में भारी गिरावट आई है. अंकुर ने बताया, "खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि बिहार में 20 प्रतिशत से भी कम धान और सरकारी एजेंसियों द्वारा जीरो प्रतिशत गेहूं खरीदा जाता है. रिपोर्टों के मुताबिक, बिहार में सरकार द्वारा संचालित अनाज खरीद केंद्रों की संख्या 2016 में 9000 से घटकर 2020 में 1619 हो गई है. बिहार के अनुभव से पता चलता है कि मुक्त बाजार वाले नए कृषि कानूनों के बाद देश का क्या होने वाला है.”