जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत से जुड़ी सुनवाई के सिलसिले में महाराष्ट्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में जमा कराए गए दस्तावेज़ कई मामलों में एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं। ये कागज़ात एक रिपोर्ट के साथ जमा किए गए हैं जिसे महाराष्ट्र राज्य गुप्तचर विभाग (एसआइडी) के आयुक्त संजय बर्वे ने राज्य के गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव के लिए तैयार किया है। इन काग़ज़ात की प्रतियां उन याचिकाकर्ताओं को सोंपी गई हैं जिन्होंने नागपुर में 2014 में लोया की रहस्यमय मौत की जांच की मांग की थी। ये काग़ज़ात केस की परिस्थितियों पर कई और सवाल खड़े कर रहे हैं तथा द कारवां द्वारा इस मामले में उजागर की गई चिंताजनक विसंगतियों में से एक का भी समाधान कर पाने में नाकाम हैं। इनसे यह भी संकेत मिलता है कि रिकार्ड में जानबूझ कर ऐसी हेरफेर की गई रही होगी जिससे लोया को दिल का दौरा पड़ने से हुई स्वाभाविक मौत की एक कहानी गढ़ी जा सके।
बयान कहता है कि दांडे अस्पताल की ईसीजी मशीन काम नहीं कर रही थी
जो काग़ज़ात जमा किए गए हैं, उनमें उन चार जजों के बयानात हैं जिनका दावा है कि वे आखिरी घंटे तक लोया के साथ मौजूद थे- श्रीकांत कुलकर्णी, एसएम मोदक, वीसी बर्डे और रुपेश राठी। इनमें से किसी भी जज ने आज तक न कोई बयान दिया है और न ही अपना कोई बयान दर्ज कराया है। राठी ने एसआइडी को हाथ से लिखा एक बयान सौंपा है जिसमें उन्होंने कहा है कि वे 2014 में नागपुर में कार्यरत थे और यह कि जब लोया को उनकी मौत की रात वहां ले जाया गया, तब दांडे अस्पताल की ईसीजी मशीन काम नहीं कर रही थी।
राठी के बयान में कहा गया है कि दांडे अस्पताल ''पहले तल पर था इसीलिए हम सभी सीढि़यों से चढ़कर वहां पहुंचे। वहां एक सहायक डॉक्टर मौजूद था। श्री लोया ने सीने में तेज़ दर्द की बात कही। उनके चेहरे पर पसीना हो रहा था और वे लगातार सीने में ज्यादा दर्द और दिल जलने की शिकायत कर रहे थे। उस वक्त डॉक्टर ने उनका ईसीजी करने की कोशिश की लेकिन ईसीजी मशीन के नोड टूटे हुए थे। डॉक्टर ने कोशिश की और कुछ वक्त बरबाद किया लेकिन मशीन काम नहीं कर रही थी।'' सुप्रीम कोर्ट में जमा राठी के दो पन्ने के बयान में ये पंक्तियां पहले पन्ने पर सबसे नीचे मौजूद हैं। साफ़ दिख रहा है कि महाराष्ट्र सरकार ने याचिकाकर्ताओं को बयान की जो प्रति दी है, उसमें पहले पन्ने पर यह बात अजीबोगरीब तरीके से कटी हुई दर्ज है।
जज राठी का बयान लोया की बहन डॉ अनुराधा बियाणी के द कारवां को दिए बयान से मेल खाता है जिसे नवंबर 2017 में पत्रिका में रिपोर्ट किया गया था। बियाणी ने बताया था कि लोया की मौत के ठीक बाद जज के परिवार को सूचना दे दी गई थी कि दांडे अस्पताल में उनका कोई ईसीजी नहीं किया गया क्योंकि ''ईसीजी काम नहीं कर रहा था।''
इस बीच इंडियन एक्सप्रेस ने लोया परिवार की चिंताओं की उपेक्षा करते हुए उसे बदनाम करने की कोशिश में एक ईसीजी चार्ट यह कहते हुए प्रकाशित कर डाला कि यह दांडे अस्पताल में लोया का ईसीजी है। ईसीजी पर पड़े समय और तारीख के मुताबिक ईसीजी 30 नवंबर, 2014 की सुबह किया गया था जबकि लोया की मौत 30 नवंबर और 1 दिसंबर की दरमियानी रात हुई थी। बाद में इंडियन एक्सप्रेस ने दांडे अस्पताल के मालिक के हवाले से बताया कि यह एक ''तकनीकी गड़बड़ी'' है। इसी ईसीजी चार्ट के बारे में नागपुर के पुलिस आयुक्त ने मीडिया को दिए अपने बयान में उद्धृत किया, जिसे एनडीटीवी ने रिपोर्ट करते हुए कहा कि ''उसे ईसीजी की रिपोर्ट नागपुर पुलिस ने दी है।''
एसआइडी को दिए अपने बयानात में मोदक और कुलकर्णी ईसीजी का कोई जि़क्र तक नहीं करते। बर्डे सरसरी तौर पर जि़क्र करते हैं कि दांडे अस्पताल में ड्यूटी पर तैनात मेडिकल अफसर ने लोया का मेडिकल परीक्षण किया जिसमें ईसीजी भी शामिल था। खुद एसआइडी की रिपोर्ट ईसीजी टेस्ट का कोई जि़क्र नहीं करती है।
राठी की प्रत्यक्षदर्शी गवाही कि ''मशीन काम नहीं कर रही थी'', ईसीजी चार्ट की विश्वसनीयता पर संदेह करने की ज़मीन को और पुख़्ता करती है। यदि वास्तव में दांडे अस्पताल में लोया का ईसीजी हुआ ही नहीं, तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि कि आखिर कैसे ऐसे किसी परीक्षण से निकला एक कथित चार्ट जिसके हाशये पर हाथ से ''दांडे अस्पताल'' लिखा है, चुनिंदा मीडिया प्रतिष्ठानों तक द कारवां में पहली स्टोरी आने के हफ्ते भर के भीतर पहुंचा। दिसंबर में प्रकाशित एक फॉलो अप रिपोर्ट में द कारवां ने लोया की मौत से जुड़े प्रासंगिक रिकार्डों में संभावित हेरफेर के संकेतों की ओर इशारा किया था। ध्यान देने लायक बात है कि उक्त रिपोर्ट में संभावित छेड़छाड़ वाले जिन रिकॉर्ड की बात की गई है- मुख्यत: ईसीजी चार्ट, नागपुर में लोया जिस गेस्टहाउस में रुके थे वहां की उपस्थिति पंजिका के पन्ने और उनके पंचनामे का पन्ना, आदि- उसमें से एक भी काग़ज़ सुप्रीम कोर्ट में जमा 60 पन्नों के दस्तावेज़ में शामिल नहीं है। जमा किए गए दस्तावेज़ों की सूची में लोया के पंचनामे का जि़क्र है लेकिन अदालत के सामने अब तक केवल आंशिक दस्तावेज़ ही रखे गए हैं। जमा किए गए दस्तावेज़ों में पेज संख्या 25 पर पंचनामे का पहला पन्ना लगा बताया गया है लेकिन यह पन्ना मौजूद ही नहीं है। द कारवां की दिसंबर वाली रिपोर्ट में लोया के पंचनामा रिपोर्ट का पहला पन्ना छपा था जिसमें बताया गया था कि उस पर लिखी तारीख पर दोबारा लिखाई की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने 22 जनवरी को लोया संबंधी याचिकाओं के बारे में जो निर्देश दिया था, उसके मद्देनज़र एक याचिकाकर्ता ने जब अदालत में गायब पन्ने का सवाल उठाया तो महाराष्ट्र सरकार की पैरवी कर रहे वकीलों हरीश साल्वे और मुकुल रोहतगी के एक सहायक ने जवाब दिया कि उसे ''जल्द ही उपलब्ध करा दिया जाएगा''। द कारवां को अब तक पता नहीं चल सका है कि याचिकाकर्ताओं को गायब पन्ने की प्रति मिल पाई है या नही।
अपनी आखिरी रात लोया ने कथित रूप से सीने में दर्द की जब शिकायत की तो उन्हें कथित तौर पर जिस पहली जगह ले जाया गया वह दांडे अस्पताल था। वहां से उन्हें नागपुर के मेडिट्रिना अस्पताल रेफर कर दिया गया। मेडिट्रिना में मेडिको-लीगल कंसल्टेंट निनाद गवांडे ने मुझे 5 दिसंबर 2017 को बताया कि लोया की मौत की रात उनके साथ अस्पताल में कोई ईसीजी चार्ट नहीं लाया गया था। उन्होंने कहा, ''मैंने वह ईसीजी नहीं देखा उस वक्त।'' गवांडे ने बताया कि ईसीजी चार्ट अगले दिन ''लाया गया''। वे बोले, ''उसमें कुछ बदलाव दिख रहे थे... म्योकार्डियल इनफार्क्शन का संकेत था। मान लें कि उनके पास पहले का ईसीजी था ही, तो मेरे खयाल से... हमने भी अपने निदान में मरीज़ में म्योकार्डियल इनफार्क्शन पाया होता और बहुत संभव होता कि इस बारे में हम पुलिस को सूचित नहीं करते। ऐसा तभी होता जब ईसीजी उस वक्त होता। उस वक्त हालांकि असल बात यह थी कि कोई ईसीजी नहीं था।'' मैंने उसी वक्त गवांडे से पूछा था और इस बात की पुष्टि उन्होंने की थी कि दांडे अस्पताल का ईसीजी लोया की मौत के एक दिन बाद मेडिट्रिना पहुंचा था। उन्होंने जवाब दिया था, ''मैंने उसे अगले दिन देखा, जब वह यहां आया लेकिन कब आया, मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता क्योंकि मेरे खयाल से ईसीजी मरीज़ की मौत की घोषणा से पहले तो नहीं आया था क्योंकि मैंने उसे तब तक नहीं देखा था। उस वक्त ईसीजी यहां नहीं था।''
मेडिट्रिना से जारी किए गए मेडिको-लीगल प्रमाण पत्र के नीचे गवांडे के दस्तखत हैं। उस पर 1 दिसंबर 2014 की तारीख पड़ी है। इसे सुप्रीम कोर्ट में जमा किया गया है। इस काग़ज़ को डेथ समरी (यानी मौत की संक्षिप्त रिपोर्ट) के आधार पर तैयार किया गया था। डेथ समरी भी मेडिट्रिना में तैयार की गई थी जिसमें ''मौत का कारण पता करने के लिए एमएलसी और पंचनामे'' की सिफारिश की गई थी। सुप्रीम कोर्ट में डेथ समरी भी जमा कराई गई है, जो कहती है, ''मरीज़ को दांडे अस्पताल ले जाया गया। ईसीजी हुआ - s/o tall ‘T’ on ant (इसे पढ़ा नहीं जा सकता) ... शिफ्ट करते वक्त मरीज़ कोलैप्स कर गया।'' मोटे तौर पर ऐसा लगता है कि गवांडे ने जज की मौत के दिन ही ईसीजी चार्ट के आधार पर मेडिको-लीगल रिपोर्ट तैयार की रही होगी जबकि साक्षात्कार में उन्होंने मुझे बताया था कि लोया की मौत के एक दिन बाद ही उन्हें दांडे अस्पताल की ईसीजी रिपोर्ट देखने को मिली थी।
यह विरोधाभास मेडिट्रिना से सुप्रीम कोर्ट में जमा कराए दस्तावेज़ों की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है। आखिर मेडिट्रिना ने लोया की मौत के वक्त तैयार किए गए एक दस्तावेज़ में एक ऐसे काग़ज़ का जि़क्र कैसे कर दिया जो उस वक्त अस्पताल में उपलब्ध ही नहीं था?
मेडिट्रिना के बिल पर लोया की ''न्यूरो सर्जरी'' का ज़िक्र है
मेडिट्रिना से सुप्रीम कोर्ट में जमा कराए मेडिकल काग़ज़ात इस बारे में अस्पष्ट हैं कि वहां लाए जाने से पहले लोया मर चुके थे या कि वे जिंदा थे और वहां उन्हें उपचार दिया गया। मेडिको-लीगल प्रमाण पत्र कहता है कि उन्हें अस्पताल में ''मृत लाया गया'' लेकिन डेथ समरी कहती है, ''इमरजेंसी मेडिकेशन दी गई, डीसी झटका 200 (अस्पष्ट) का कई बार दिया गया... सीपीआर जारी.... मरीज़ को वापस नहीं लाया जा सका।'' निनाद गवांडे ने मुझे दिसंबर में बताया था कि जब लोया को मेडिट्रिना लाया गया था उस वक्त ''महज टर्मिनल (दिल का) रिद्म मौजूद था, उन्हें भर्ती करते ही सीपीआर शुरू कर दिया गया। लेकिन एक ऐसा वक्त आया जब हमें अहसास हुआ कि इस मरीज को बचाया नहीं जा सकता।''
लोया के नाम मेडिट्रिना से जारी ''फाइनल इनपेशेंट बिल समरी'' जो कि सुप्रीम कोर्ट में जमा कराए गए दस्तावेज़ों में शामिल है, दिखाती है कि ''न्यूरो सर्जरी'' के लिए 1500 रुपये वसूले गए। (अनुराधा बियाणी ने कहा था कि जब उनकी लाश परिवार को सौंपी गई तो उन्होंने लोया की गरदन पर खून के दाग देखे थे। लोया की एक और बहन सरिता मांधाने ने द कारवां को दिए एक अलग साक्षात्कार में यही बात कही थी)। यह साफ़ नहीं है कि मेडिट्रिना के डॉक्टरों ने लोया की न्यूरो सर्जरी क्यों की होगी जब उन्हें कथित रूप से दिलका दौरा पड़ने के संकेतों के साथ वहां लाया गया था।
पुलिस रिकॉर्ड में बेमेल तारीखें और अन्य विरोधाभासी विवरण
सुप्रीम कोर्ट में जमा कराए गए दस्तावेज़ों में दुर्घटना से हुई मौत (एडीआर) की एक रिपोर्ट शामिल है जिसे नागपुर के सीताबल्दी थाने में दर्ज करवाया गया था जिसके न्यायक्षेत्र में मेडिट्रिना अस्पताल आता है। इसमें लोया की मौत का वक्त और तारीख है ''30/11/2014'' को 6.15 एएम- यानी उनकी मौत से ठीक एक दिन पहले का वक्त (बिलकुल यही विसंगति ईसीजी चार्अ में दर्ज है)। मेडिट्रिना के रिकॉर्ड दिखाते हैं कि उन्हें ''1/12/2014'' को 6.15 एएम पर मृत घोषित किया गया।
अब तक इसकी वजह साफ़ नहीं है कि आखिर लोया की मौत की फाइल को सीताबल्दी थाने से सदर थाने क्रूों भेज दिया गया जिसके न्यायक्षेत्र में वह गेस्टहाउस आता है जहां लोया ठहरे हुए थे। सदर थाने में तैयार ताज़ा एडीआर में लोया की मौत का वक्त और तारीख है ''01/12/2014'' को 6.15 एएम। मानक प्रक्रियाओं के मुताबिक देखें तो सदर थाने की रिपोर्अ को सीताबल्दी थाने की रिपोर्ट पर आधारित होना चाहिए था। दस्तावेज़ों में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि आखिर क्यों और कैसे दोनों रिपोर्टों में जज की मौत की तारीखें अलग-अलग हैं।
सीताबल्दी थाने में तैयार पंचनामा कहता है कि ''मृतक के रिश्तेदार डॉ. प्रशांत बजरंग राठी ने मृतक का चेहरा देखने पर पहचाना कि वह बृजमोहन हरकिशन लोया का चेहरा है।'' पुलिस में राठी ने जो बयान दिया है उसे सदर की रिपोर्ट के साथ नत्थी किया गया है जिसमें वे कहते हैं कि लोया ''मेरे अंकल के रिश्तेदार हैं''। मैंने जब दिसंबर में प्रशांत राठी से बात ी तो उन्होंने कहा, ''मैं तो लोया साब को जानता तक नहीं हूं।'' उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे कभी जज से मिले तक नहीं और ''उनका उनसे कभी कोई संपर्क नहीं रहा।'' इस आलोक में पुलिस का यह दावा आश्चर्यजनक जान पड़ता है कि राठी ने ''मृतक की पहचान की''।
राठी के बयान में कहीं कोई ज़िक्र नहीं है कि लोया को दांडे अस्पताल ले जाया गया और केवल इतना कहा गया है कि उन्हें ''मेडिट्रिना अस्पताल में भर्ती किया गया था''। स्थापित प्रक्रियाओं के तहत यह ज़रूरी है कि पुलिस मृतक के साथ उसके आखिरी वक्त में मौजूद लोगों के बयान दर्ज करे, बावजूद इसके अकेले राठी का बयान ही लिया गया। उन चार जजों में से किसी का भी बयान नहीं लिया गया जिन्होंने दावा किया है कि वे लोया को अस्पताल लेकर गए थे।
आरएसएस का संबंध
लोया का पार्थिव शरीर नागपुर से उनके निवास स्थान मुंबई के बजाय उनके गृहजिले लातूर भेजा गया जहां उनके परिवार ने उसे हासिल किया। अनुराधा बियाणी ने द कारवां को बताया था कि ईश्वर बहेटी नाम का एक लातूर निवासी शख्स, जिसे वे ''आरएसएस के कार्यकर्ता'' के रूप में पहचानती हैं, परिवार के पास आया था, उन्हें नागपुर जाने से रोका था और यह सूचना दी थी कि लाश रास्ते में है और वहीं आ रही है। लोया की मौत के कई दिन बाद बहेटी ने उनका मोबाइल फोन परिवार को लौटाया जिसमें सारे कॉल रिकॉर्ड और संदेश डिलीट किए हुए थे। यह साफ़ नहीं हो सका है कि बहेटी को ये सारा विवरण कैसे पता था और उसके पास लोया का मोबाइल फोन कहां से आया।
अपनी रिपोर्ट के खंड 3.8 में एसआइडी दावा करती है कि उसने ''श्री ईश्वर बहेटी की भूमिका के बारे में कारवां की रिपोर्ट में उठाए गए संदेह'' को दूर कर दिया है। एसआइडी का कहना है कि बहेटी को लोया की मौत की खबर अपने ''बड़े भाई'' ''डॉ. हंसराज गोविंदलाल बहेटी (निवासी लातूर)'' से मिली जिन्हें ''01/12/2014 को तड़के कॉल आई थी और श्री लोया की सेहत के बारे में बताया गया था।''
एसआइडी ने इस अहम सवाल की उपेक्षा कर दी है कि आखिर लोया की मौत के वक्त उनके साथ मौजूद चार जजों सहित अन्य लोग कैसे यह जानते थे कि इसका समाचार लोया के परिवार तक पहुंचाने के लिए लातूर में हंसराज बहेटी से संपर्क करना है। द कारवां ने हंसराज बहेटी और दांडे अस्पताल के मालिक डॉ पिनाक दांडे के आरएसएस के साथ रिश्ते की खबर दिसंबर वाली फॉलो अप रिपोर्ट में दी थी। एसआइडी की रिपोर्ट जहां इस दावे को खारिज करने का प्रयास करती है कि ईश्वर बहेटी के आरएसएस से संबंध हैं, वहीं यह ध्यान दे पाने में नाकाम रहती है कि दरअसल हंसराज बहेटी के संघ के साथ संपर्क बिलकुल स्पष्ट हैं। एसआइडी की रिपोर्ट लोया के मोबाइल फोन का कोई जि़क्र नहीं करती है या इस बात का कि आखिर ईश्वर बहेटी के माध्यम से वह फोन जज के परिवार तक कैसे पहुंचा जबकि कायदे से उसे पुलिस के कब्जे में होना चाहिए था और पंचनामे में लोया के पास से ज़ब्त सामानों की सूची में उसे दर्ज होना चाहिए था। बाद में कायदा यह बनता था कि बिना किसी छेड़छाड़ के उसे पुलिस लोया के परिवार को लौटा देती।
यह मानने के कारण हैं कि लोया परिवार से लिए गए लिखित बयान दबाव में दर्ज किए गए
द कारवां ने पहली बार लोया के परिवार के संदेहों पर रिपोर्ट 20 और 21 नवंबर 2017 को की थी। उसके बाद हफ्ते भर से ज्यादा वक्त तक परिवार संपर्क से बाहर रहा। लोया के पिता हरकिशन 5 दिसंबर को अपने घर लातूर लौटे। फिर अचानक 14 जनवरी को लोया के पुत्र अनुज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखे। वे नर्वस दिख रहे थे और प्रेस कॉन्फ्रेंस का संचालन एक वकील कर रहा था जो अनुज को बता रहा था कि कब बोलना है और किन सवालां के जवाब उन्हें देने चाहिए। जब अनुज से पूछा गया कि वे अपने पिता की मौत की जांच चाहते हैं या नहीं, उनका जवाब था, ''इसे मैं नहीं तय कर सकता।''
सुप्रीम कोर्ट में जमा दस्तावेज़ों में अनुराधा, हरकिशन और अनुज के दस्तखत किए बयान शामिल हैं। बयान कहते हैं कि परिवार को लोया की मौत पर कोई संदेह नहीं है। तीनों बयान एसआइडी के आयुक्त संजय बर्वे को संबोधित हैं और इन पर 27 नवंबर 2017 की तारीख पड़ी है। यह वही अवधि है जब परिवार संपर्क से बाहर था। ये बयान किन परिस्थितियों में दर्ज किए गए, यह जाने बगैर इस पर आश्चर्य करने की पर्याप्त वजहें हैं कि बयान स्वेछा से दिए गए या दबाव के तहत। यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर इस मामले में महाराष्ट्र राज्य की गुप्तचर इकाई को क्यों लाया गया अथवा किस अधिकार से उसने ये बयान दर्ज किए। अपनी मौत के वक्त लोया सोहराबुद्दीन शेख की हत्या की सुनवाई कर रहे थे जिसमें मुख्य आरोपी अमित शाह हैं, जो फिलहाल भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष हैं। महाराष्ट्र में फिलहाल बीजेपी की सरकार है। ऐसी परिस्थितियों में राज्य की गुप्तचर इकाई का इस्तेमाल सवालों के घेरे में है।
संजय बर्वे को महाराष्ट्र सरकार की ओर से 23 नवंबर 2017 को एक पत्र मिला जिसमें उन्हें द कारवां की रिपोर्टों की ''डिसक्रीट पड़ताल'' (डिसक्रीट यानी विचक्षण, दिमाग लगाकर मौके के हिसाब से) करने का निर्देश दिया गया। उसी दिन बर्वे ने बंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर उन जजों के बयान दर्ज करने की अनुमति मांगी जो लोया के साथ थे। कोर्ट ने उसी दिन इसकी अनुमति दे दी। ये सारे पत्र सुप्रीम कोर्ट में जमा किए गए हैं। बर्वे की अंतिम रिपोर्ट पर 28 नवंबर 2017 की तारीख पड़ी है।
अनुराधा और हरकिशन के बयान इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन्होंने एक पत्रकार से बात की थी लेकिन इन्होंने कहा है कि इन्हें इस बात की ख़बर नहीं थी कि इनका वीडियो बनाया जा रहा था। वास्तव में परिवार के संदहों पर स्टोरी करने वाले पत्रकार निरंजन टाकले ने दोनों की पूरी सहमति लेकर ही उनका वीडियो इंटरव्यू रिकॉर्ड किया था। कोई भी इंटरव्यू स्टिंग ऑपरेशन नहीं था। इन्हें देखने पर साफ़ दिखता है कि अनुराधा और हरकिशन के मन में साफ़ था कि वे वीडियो पर हैं। हरकिशन 17 नवंबर 2017 को सरिता मांधाने के साथ वीडियो पर आए थे। इसके ठीक तीन दिन बाद द कारवां ने लोया पर अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित की थी।
टाकले की रिपोर्ट में जैसा कहा गया था, लोया के मामले को लेकर सबसे पहले उनसे अनुराधा की बेटी नूपुर बियाणी ने संपर्क साधा था। यह बात दोनों के बीच 28 सितंबर को वाूट्सएप पर शुरू हुए संवाद से स्थापित होती है। टाकले ने नूपुर से लोया के पोस्ट-मॉर्टम की छवियां भेजने का अनुरोध किया था जिसके जवाब में नूपुर पूछती हैं कि तस्वीरें कैसे भेजें। इसके बाद नूपुर ने लोया की मौत के वक्त अपनी मां की डायरी में की गई एंट्री भी टाकले को भेजी, जिन्हें टाकले ने रिपोर्ट में जगह दी है।
टाकले ने करीब एक साल तक लोया की मौत की खबर पर काम किया था। वे जज के परिवार के सदस्यों से कई बार मिले और उनसे बात की, जिनमें नूपुर, अनुराधा, हरकिशन, सरिता और अनुज शामिल थे। रिपोर्ट प्रकाशित होने से पहले परिवार ने उनसे कई बार पूछा भी कि रिपोर्अ कब आएगी।
हरकिशन और सरिता के 17 नवंबर 2017 को लिए वीडियो इंटरव्यू से ठीक पहले अनुराधा ने अपनी बेटी के नंबर के वॉट्सएप से टाकले को मिलने की जगह का पता भेजा। इंटरव्यू के बाद अनुराधा ने संदेश भेजा, ''सर इंटरव्यू संतोषजनक रहा'', जिसके जवाब में टाकले ने लिखा, ''हां हां... बहुत बढि़या था...।'' उन्होंने जवाब दिया, ''ओके सर''।
संपर्क से बाहर होने से पहले टाकले के साथ परिवार का आखिरी संवाद 21 नवंबर 2017 को हुआ, द कारवां में पहली रिपोर्ट छपने के एक दिन बाद। अनुराधा बियाणी ने अपनी बेटी के फोन से टाकले को लिखा, ''सर मुझे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन घर में परिवार घबराया हुआ है।''
इसके पृष्ठभूमि में ऐसा लगता है कि परिवार ने एसआइडी को अपना बयान दबाव में दिया है और मौजूद साक्ष्यों से उन बयानों को आसानी से चुनौती दी जा सकती है।
रवि भवन में रिकॉर्ड के रखरखाव में गड़बड़ी
सुप्रीम कोर्ट में जमा किए गए चार जजों में से किसी के बयान से यह बात साफ़ नहीं हो पाती कि आखिर रवि भवन की उपस्थिति पंजिका में लोया का नाम क्यों नहीं दर्ज मिलता जहां वे नागपुर में ठहरे हुए थे। ऐसा तब है जबकि बयान देने वाले दो जज लोया की आखिरी रात रवि भवन में ही थे। एसआइडी की रिपोर्ट यह भी बता पाने में नाकाम है कि रजिस्टर में दर्ज प्रविष्टियों में हेरफेर क्यों की गई, जैसा कि द कारवां ने रिपोर्ट किया था।
सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गई जानकारी के जवाब में महाराष्ट्र सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए रजिस्टर के पन्नों की प्रतियों को देखकर ऐसा लगता है कि बेहद कड़ी सुरक्षा कवरेज वाले अतिथियों के नाम भी रजिस्टर में दर्ज किए जाते हैं। मसलन, एक प्रविष्टि लोया की मौत के तीन महीने बाद मार्च 2015 की है जिसमें अमित शाह का नाम दर्ज है। इसके ठीक नीचे एक नाम अनिल सिंह का है (द कारवां इस बात की पुष्टि नहीं कर सका है कि ये अनिल सिंह वही हं जो भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हैं और जो सोहराबुद्दीन मामले में अमित शाह को बरी किए जाने के खिलाफ लगी जनहित याचिका में सीबीआइ की ओर से फिलहाल पैरवी कर रहे हैं)। रजिस्टर के रखरखाव में ऐसी सावधानी बरती जाती है कि एक भी अतिथि उससे बाहर नहीं रह सकता, इसका पता अनिल सिंह की प्रविष्टि वाले कॉलम में एक अतिरिक्त प्रविष्टि के बतौर सुप्रीम कोर्ट के जज यूयू ललित का नाम डाले जाने से लगता है। अगर रवि भवन में रिकॉर्ड के रखरखाव में ऐसा कड़ा अनुशासन नियमित रूप से बरता जाता है, तो यह समझना मुश्किल है कि आखिर लोया का नाम रजिस्टर में क्यों नहीं दर्ज किया गया।